गुरुवार, जुलाई 2

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 

सुकून झरता है 
उसी तरह...  जैसे जल 
हम उपेक्षा का छाता लगाए 
बच निकलते हैं 
काश ! अस्तित्व के साथ यूँ होता मिलन
जैसे टकराते हैं दो पात्र निकट आकर सहजता से 
और फ़ैल जाती है संगीत की स्वर लहरी !

मिलन तो निरन्तर घटेगा 
उसी से उपजे हैं 
उसी में रहेंगे.... 
इस मिलन से बह सकता है 
मधुर गीत 
या फूट सकती हैं ज्वालायें !

उसके साथ यदि टकराई  लहर 
जो सागर अनंत है 
तो खो जाएगी...
 चाहे तो लहराए उसके विशाल प्रांगण में 
संगीत गुंजाए.... नाचे 
सूर्य की किरणों में 
सतरँगी आभा बिखराये !

कभी निकल पड़े आकाश की यात्रा पर 
फिर बदली संग बरस जाए
मानसरोवर  या हिमालय शिखर पर
प्रकृति के साथ संघर्ष हुआ 
तो रोना ही होगा 
न जाना यह भेद तो 
हर युग में मानव को को-रोना ही होगा !

9 टिप्‍पणियां:

  1. प्राकृति से टकराव कहीं नहीं ले जाने वाला ...
    मिल के चलना ही हर बात का समाधान है ... सुन्दर गहरे भाव ...

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  2. मिलन से मधुर गीत निकलेगा या ज्वालाएं यह मिलन केी प्रकृति व उद्देश्य पर निर्भर है ...मनुष्य को प्रकृति ने सबकुछ दिया है पर उसका उपयोग सार्थक हो इसकी समझ जरूरी है . बहुत गहरे भाव हैं उतने ही व्यापक भी .

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    1. सही कह रही हैं आप गिरिजा जी, स्वागत व आभार !

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  3. प्रकृति ही संतुलन बनती है मनुष्य साधन मात्र हे
    बहुत बढ़िया

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  4. बहुत सुंदर सीख देती रचना ,सादर नमन

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