मंगलवार, जुलाई 28

घर-बाहर

घर-बाहर 

तुम्हारे भीतर जो भी शुभ है 
वह तुम हो 
और जो भी अनचाहा है 
मार्ग की धूल है 
सफर लंबा है 
चलते-चलते लग गए हैं 
कंटक  भी कुछ वस्त्रों पर 
 मटमैले से हो गए हैं 
पर वे सब बाहर-बाहर हैं 
धुल जायेंगे 
एक बार जब पहुंचे जाओगे घर !

मार्ग में दलदल भी थे लोभ के 
थोड़ा सा कीचड़ लगा है पैरों पर 
गुजरना पड़ा होगा कभी जंगल की आग से भी 
धुआँ और कालिख चिपक गयी होगी 
कभी राग के फल चखे होंगे 
मधुर जिनका रस-रंग भी टपक गया है 
कभी द्वेष की आंच में तपा होगा उर 
सब कुछ बाहर ही उतार देना 
घर में प्रवेश करने से पूर्व !

घर में शीतल जल है 
प्रक्षालन के लिए
तुम्हारा जो भी शुभ है स्वच्छ है 
नजर आएगा तभी 
मिट जाएगी सफर की थकान 
और पाओगे सहज विश्राम 
घर बुलाता है सभी को 
पर जो छोड़ नहीं पाते मोह रस्तों का 
भटकते रहते हैं 
अपने ही शुभ से अपरिचित 
 वे कुछ खोजते रहते हैं !

9 टिप्‍पणियां:


  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 29 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आदरणीया मैम,
    बहुत ही सुंदर कविता।
    इतनी सहजता से मोक्ष का वर्णन कर दिया आपने।
    सुंदर रचना के लिये आभार

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  3. स्वागत व आभार अनंत जी, कविता के मर्म को समझा है आपने

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