शुक्रवार, जनवरी 28

एक सूर्य उग आए ऐसा

एक सूर्य उग आए ऐसा


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दीप जले अंतर में ऐसा 

ज्योति कभी ना ढके तमस से, 

जगमग कर दे राहें सारी 

कोई विकार छिपे न मन से !


अंत:लोक में जाग उठें हम 

एक सूर्य उग आए ऐसा, 

युगों युगों की नींदें टूटें 

स्वप्न कभी मत घेरे मन को !


अब भी बादल छाते नभ पर 

तूफां भीषण तेज हवाएँ, 

किंतु अमर यह ज्योति अनुपम 

बाल न बाँका ज़रा कर पाएँ !


जो भी जगता इस प्रकाश में 

उसे न अंधकार का भय है, 

मिथ्या जैसे स्वप्न लोक है 

वैसे ही यह जगत लुप्त है  !


14 टिप्‍पणियां:

  1. अनुपम भाव से हृदय दीप्त हुआ। उस सूर्योदय की प्रतीक्षा प्रबल हो उठी। कल्पना कर के भी आनन्द की अनुभूति हो रही है।

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    1. कविता के मर्म को जान सुंदर प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार अमृता जी !

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२९-०१ -२०२२ ) को
    'एक सूर्य उग आए ऐसा'(चर्चा-अंक -४३२५)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  3. मन में आशा के दीप जलाती बहुत सुंदर रचना ।

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  4. सकारात्मक भावों का संचार करती सुन्दर कृति ॥

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  5. सकारात्मक भावों से ओतप्रोत बहुत ही उम्दा सृजन

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  6. जिज्ञासा जी, मीना जी, मनीषा जी, अनुराधा जी, व भारती दास जी आप सभी का स्वागत व आभार!

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  7. गुरुकृपा से ज्ञान मिलता और ज्ञान से अंतरात्मा प्रकाशित होती है। तेजोमय आत्मा को भय नहीं रहता। आपकी रचनाएँ ईश्वर से जोड़ देती हैं।

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  8. मन में जब आशा का दीप जल जाता है तो प्रकाश आलोकिक हो जाता है ...
    न बुझने वला ... सदैव प्रज्वलित ..

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