गुरुवार, अक्तूबर 19

अनजाने पथ पर वह सहचर

अनजाने पथ पर वह सहचर

नव सृजन घटे नव द्वार खुलें

 कदम पड़ेगा जब अनंत का,

नूतन राग जगेंगे,  जैसे 

 शीश उठाये कोमल दूर्वा !


नव भाषा, नव छंद, शब्द नव 

है अपार उसका भंडारा,  

मिलकर जिससे जीवन जी ले 

मिले सदा के लिए सहारा !


पुष्प खिलेंगे जब श्रद्धा के 

 इक अभिनव मुस्कान उठेगी, 

हर लेगी हर तमस भाव वह 

शुभ्र ज्योत्सना छा जाएगी !


चहुँ दिशाओं में गुंजित सदा 

  तान नशीली प्रेम की अमर, 

हाथ पकड़ कर ले जाता है 

अनजाने पथ पर वह सहचर !


अंतर्यामी मन का वासी 

जो आह्लादित पल-पल रहता, 

अति निकटता के क्षण में कभी  

मौन मुखर उसका हो जाता !


 अपना वही नहीं जो सपना 

हाथ बढ़ाकर छूलें जिसको, 

जिसके होने से ही जग है 

कैसे भला बिसारें उसको !


6 टिप्‍पणियां:

  1. उस लोक का जिसे अलोकिक भी कह सकते हैं |

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    1. स्वागत व आभार जोशी जी, आपने सही कहा है, वह अलौकिक है पर उससे ही यह लोक आया है

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  2. जीवन पथ भी तो अनजाना ही है ... इश्वर ही सहचर हो जाएँ को बात ही क्या ...

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