बुधवार, अक्तूबर 4

भावों का अभाव उर खलता


भावों का अभाव उर खलता


बनता सहज अभाव का भाव

 भावों का अभाव उर खलता

टिकी ‘नहीं’ पर  नज़र  सदा ही 

मन ‘है’ को  देख नहीं पाता  !


जग, सोने का अभिनय करता

नूतन रंग सपन में भरता,

पल दो पल का भ्रम है सपना 

 सत्य  देखने से यह डरता  !


 कठिन जगाना जगे हुए को

 जल से तेल न होता हासिल,

फिर भी जतन यहाँ जारी है 

दूर दिखायी देता साहिल !


कभी होश आ खुलेगी आँख 

नभ निज होगा जगेंगी पाँख,

देर न हो जाये डर यह है

रिसता जीवन लाखों सुराख !


13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर हृदय स्पर्शी रचना

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  2. बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !

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  3. वाह! अनीता जी ,बहुत खूब! जग सोनें का अभिनय करता ,सत्य देखनें से है डरता ...सही कहा आपनें ..

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  4. सारगर्भित सृजन, हृदय तक उतरता।

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  5. सच है जागे को जगाना मुश्किल ही होता है ... बहुत भावपूर्ण रचना ...

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