सोमवार, अगस्त 25

जीवन बीता ही जाता है

जीवन बीता ही जाता है


ज्वालामुखी दबे हैं भीतर 

काश ! हमें सावन मिल जाता, 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों से फिर 

अंतर  का उपवन खिल जाता !


बाहर अंबर बरस रहा है 

भू हुलसे पादप हँसता है, 

किंतु गई पीर नहीं मन की 

जीवन बीता ही जाता है !


यूँ तो अंचल में हैं ख़ुशियाँ 

कोई कहीं अभाव नहीं है, 

लेकिन फिर भी उर के भीतर 

कान्हा वाला भाव नहीं है !


काव्यकला में ह्रदय न डूबे 

मोबाइल से नज़र न हटती, 

फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको 

हर द्वारे से दुनिया आती !


कैसे अंतर रस में भीगे 

कैसे सावन की रुत भाये, 

जीवन भी जब फिसला जाता 

मौत का ताँडव यही रचाये !


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