बुधवार, नवंबर 3

जब अंतरदीप नहीं बाले




जब अंतरदीप नहीं बाले

पूर्ण हुआ वनवास राम का, 
सँग सीता के लौट रहे हैं
 हुआ अचंभा देख लखन को , 
द्वार अवध के नहीं खुले हैं !

अब क्योंकर उत्सव यह होगा, 
दीपमालिका नृत्य करेगी,
रात अमावस की जब दमके, 
मंगल बन्दनवार सजेगी  ! 

हमने भी तो द्वार दिलों के, 
कर दिये बंद ताले डाले
राम हमारे निर्वासित हैं,
जब अंतरदीप नहीं बाले !

राम विवेक, प्रीत सीता है, 
दोनों का कोई मोल नहीं
शोर, धुआँ ही नहीं दिवाली, 
जब सच का कोई बोल नहीं !

धूम-धड़ाका, जुआ, तमाशा, 
देव संस्कृति का हो अपमान,
पीड़ित, दूषित वातावरण है 
उत्सव का न किया सम्मान !

जलें दीप जगमग हर मग हो, 
अव्यक्त ईश का भान रहे,
मधुर भोज, पकवान परोसें
 मन अंतर में रसधार बहे !

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