जीवन बीता ही जाता है
ज्वालामुखी दबे हैं भीतर
काश ! हमें सावन मिल जाता,
रिमझिम-रिमझिम बूँदों से फिर
अंतर का उपवन खिल जाता !
बाहर अंबर बरस रहा है
भू हुलसे पादप हँसता है,
किंतु गई पीर नहीं मन की
जीवन बीता ही जाता है !
यूँ तो अंचल में हैं ख़ुशियाँ
कोई कहीं अभाव नहीं है,
लेकिन फिर भी उर के भीतर
कान्हा वाला भाव नहीं है !
काव्यकला में ह्रदय न डूबे
मोबाइल से नज़र न हटती,
फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको
हर द्वारे से दुनिया आती !
कैसे अंतर रस में भीगे
कैसे सावन की रुत भाये,
जीवन भी जब फिसला जाता
मौत का ताँडव यही रचाये !
वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंसच है ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 26 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंबहुत बेहतरीन रचना 🙏
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंभाग्य में लिखा उसे देखना ही पड़ता है इसलिए आज में ही जीना बेहतर,,,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,,
सही कहा है आपने,स्वागत व आभार!
हटाएंकाव्यकला में ह्रदय न डूबे
जवाब देंहटाएंमोबाइल से नज़र न हटती,
फ़ुरसत कहाँ घड़ी भर उसको
हर द्वारे से दुनिया आती !
बहुत सटीक सामयिक सृजन
वाह!!!