चलते जाना ही है मंज़िल
भेद-भाव सारे ऊपर हैं
नीचे सम-रसता की धारा,
जाति, धर्म ओढ़े ऊपर से
नहीं बनें वे दुर्गम कारा !
कलम हाथ में अगर न थामी
शब्दों को दे कौन सहारा,
यादों की कंदील जल रही
पथ पर करती सहज उजारा !
चलते जाना ही है मंज़िल
दूर कहाँ है? निकट किनारा
दिल की दिल में ही रह जाती
देखो किसी ने पुन: पुकारा !
बटन दबाते आती बिजली
जगमग जैसे घर हो सारा,
याद ह्रदय में पावन जिसने
दिपदिप मन का आँगन बारा !
वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंकिनारा निकट ही होता है चलते जाने पर ... बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंबहुत रम्य सुखद अनुभूति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंचलते जाना ही है मंज़िल
जवाब देंहटाएंदूर कहाँ है? निकट किनारा …,अति सुन्दर सन्देश । मनमोहक कृति ।
स्वागत व आभार!
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