गुरुवार, मार्च 14

पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है


एक निर्झरी सी भावों की
जाने कहाँ से फूटी भीतर,
हटा पत्थरों की सीमा को
उमड़े ज्यों जलधार निरंतर !

जाने कहाँ छिपा रखा था
पाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !

आज उमड़ ही आया अभिनव
इक सैलाब विमल अविरल सा
डूबे जिसमें संशय सारे
ज्यों संगम का तट निर्मल सा !

मीलों तक अब बिछा मोद है
सहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है !

एक ही जीवन, एक ऊर्जा
विष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !


21 टिप्‍पणियां:

  1. रविकर जी, स्वागत व आभार !

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  2. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ..

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  3. सुन्दर भावों से सजी सुन्दर रचना ...
    सादर !

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  4. सुंदर रचना। विरोधाभाषों के समुच्चय में जीवन के प्रवाह को शब्द देती कविता।

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    1. वृजेश जी, आपने सही कहा है जीवन धारा विरोधों के बीच ही बहती है..आभार !

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  5. सुंदर भावाभिव्यक्ति.......
    साभार......

    जवाब देंहटाएं
  6. मीलों तक अब बिछा मोद है
    सहज हुआ हर पल मिलता है,
    जैसे नभ में तिरते पंछी
    पांखुरी-पांखुरी मन खिलता ..ati sundar....

    जवाब देंहटाएं
  7. जाने कहाँ छिपा रखा था
    पाहन सा दिल भारी तो था,
    जाने किसकी करे प्रतीक्षा
    आखिर एक पुजारी तो था !

    मंत्र-मुग्ध करती सुकोमल रचना......

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  8. वीरू भाई, अदिति जी, शिवनाथ जी आप सभी का स्वागत व आभार!

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  9. एक ही जीवन, एक ऊर्जा
    विष भी वही, वही है अमृत,
    मिल जाती पगडंडी सच की
    नहीं सुहाए जिसको अनृत !

    अनुपम प्रस्तुति.

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  10. प्रतिभा जी व रचना जी, स्वागत व आभार!

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