बुधवार, जून 21

दोराहे हर मोड़ खड़े हैं




दोराहे हर मोड़ खड़े हैं



कहीं प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा सी
कहीं धुँए से ढकी सुलगती,
कहीं सुगंधित अनिल बह रही
कहीं घुटन से फिजां रुँधी सी !

जीवन मिले बिछाय बिसातें 
चाहे जिस पाले में जाएँ,
पल-पल चुनना स्वयं को यहाँ
किसे सहेजें किसे लुटाएं !

दोराहे हर मोड़ खड़े हैं
निज हाथों में ही गेंद सदा,
हों स्वतंत्र हर दांवपेंच में
काटेंगे खुद का ही बोया !

एक ही नियम एक सदुपाय
जागे-जागे कदम बढ़े हर,
सूत्र यही इस खेल का सहज
यही बहे बन विजय का सुस्वर !

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