शुक्रवार, मई 22

‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है

‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है 


‘मैं’ ‘तू’ होकर ही मिलता है 
‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है, 
मन अंतर में यह खेल चले 
बाहर इक कण ना हिलता है !

जो विभु अतीव वह क्षुद्र बना 
सागर से ही हर लहर उठी, 
 मायापति वरत योगमाया 
यह मन माया से रचता है !

जब तक यह भेद नहीं जाना 
मैं'' खुद को ही स्वामी समझे,
फिर जो भी कर्म किये उसने 
उसके बंधन में फँसता है !

यदि खुद का किया नहीं रुकता 
यह चक्र कभी ना टूटेगा, 
इक कठपुतली सा नाच रहा 
अनजाना बना फिसलता है !

जो झुक जाये उन चरणों में 
‘मैं’ को ‘तू’ ही ढक लेता जब, 
सुन मद्धिम सी आवाजों में 
कुछ सूत्र नए, संभलता है !

जैसे-जैसे ‘मैं’ ‘तू’ बनता 
‘तू’ ही ‘तू’ रह जाता केवल  
फिर कैसा कर्मों का बंधन
मन पंछी बना विचरता है !


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