शनिवार, मई 15

शून्य हो पाथेय अपना

 शून्य हो पाथेय अपना 

अंतहीन है जीवन का यह सफर 

 इस पर थोड़ा भी कम पड़ जाता है 

और ज्यादा भी काम नहीं आता 

अनंत हो जिसका फैलाव 

उसमें भला अल्प कब तक साथ देगा 

और कितना भी ज्यादा हो 

कम ही लगेगा 

चादर कितनी भी फैलाओ 

पैर बाहर निकले आते हैं 

छोटी पड़ जाती है दो अंगुल 

हर बार रस्सी, 

भला इस जग के सामान 

वहाँ कब तक  काम आते हैं 

चलना है अनंत की यात्रा पर तो 

शून्य हो पाथेय अपना 

खाली हो जाये सारे उहापोहों से मन 

टूट जाये हर सपना

 तो जो यात्रा होगी उसकी मंजिल

 झट मिल जाएगी 

जिंदगी बिन बात ही खिल जाएगी ! 


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