मंगलवार, नवंबर 19

कोई

कोई 


कोई निकट ही नहीं 

बहुत निकट है 

पल-पल देख रहा है

देह की हर शिरा का स्पंदन 

प्राणों का आलोड़न 

मन का सहज आनंद 

झट ‘तथास्तु’ कह कर मुस्का देता है 

और वही देख चुका है 

देह की जड़ता 

प्राणों की आतुरता 

मन का रुदन 

पर तब हामी नहीं भरी थी  

प्रकाश की आस जगायी थी 

सहलाया था अदृश्य हाथों से 

घोर अंधेरों में !



रविवार, नवंबर 17

प्रेम

प्रेम 


प्रेम के क्षण में 

स्वर्ग बन जाती है दुनिया 

देव बन जाता है मन 

जो देना चाहता है 

सारे वरदान 

इस जगत को 

प्रेम की नन्ही सी किरण

मिटा देती है सारा तम

खिल जाता है मन उपवन 

प्रेम की तरंग 

भिगो देती है 

आसपास के तटों को 

जब उठती है हास्य के सागर में 

प्रेम दिव्य है 

मानव का मूल है 

पर जो ढक जाता है 

द्वेष और नासमझी के पहाड़ों से

धारा में मीलों नीचे दबे 

हीरे की तरह 

अनदेखा ही रह जाता है 

मन की खुदाई कर उसे पाना है 

प्रियतम के मुकुट में सजाना है 

बार-बार सुननी हैं प्रेम गाथायें 

और गीत प्रेम का गाना है ! 


शुक्रवार, नवंबर 15

प्यास

प्यास 


सब कुछ बेमानी लगता है जब 

कुछ भी समझ नहीं आता 

क्या करना है 

क्यों करना है 

कोई जवाब मन नहीं पाता 

रोज़मर्रा के काम जब अर्थहीन लगते हैं 

कुछ नया है 

पर पकड़ में नहीं आता है 

एक सवाल सा मन में सदा बना रहता है 

जवाब कोई देता हुआ सा नहीं लगता 

एक मौन घेर लेता है जब तब 

चुपचाप बैठ कर उसे सुनने का मन होता है 

शायद उस मौन से ही कोई जवाब आएगा 

बाहर तो कुछ भी आकर्षित नहीं करता 

किसी और लोक में बसता है शायद वह 

जो भीतर ऐसी प्यास भरता है 


बुधवार, नवंबर 13

ऋण

ऋण 


पिता आकाश है, माँ धरा 

जो अपने अंश से 

पोषण करती है संतान का 

पिता सूरज है, माँ चंद्रमा 

जो शीतल किरणों से 

हर दर्द पर लेप लगाता है 

पिता पवन है, माँ अग्नि 

जो नेह की उष्मा से 

जीवन में रंग भरती है 

पिता सागर है, माँ नदिया 

जो मीठे जल से प्यास बुझाती है 

पिता है, तो माँ है 

आकाश के बिना धरा कहाँ होगी 

अंततः सूरज से ही उपजा है चाँद 

वाष्पित सागर ही नदी है 

दोनों पूरक हैं इकदूजे के 

और इस तरह हर कोई 

ऋणी है माँ-पिता का ! 


रविवार, नवंबर 10

गोपी पनघट-पनघट खोजे

गोपी पनघट-पनघट खोजे


सुंदरता की खान छिपी है 

प्रेम भरा कण-कण में जग के , 

छोटा सा इक कीट चमकता 

रोशन होता सागर तल में !


बलशाली का नर्तन अनुपम 

भीषण पर्वत, गहरी खाई, 

अंतरिक्ष अगाध गहरा है 

क़ुदरत जाने कहाँ समाई !


खोज रहे हैं कब से मानव 

महातमस छाया है नभ में, 

शायद पा सकते हैं उसको 

धरित्री के भीतर अग्नि में !


नटखट कान्हा छुप जाता ज्यों 

गोपी पनघट-पनघट खोजे, 

उसके भीतर छिपा हुआ है 

घूँघट उघाड़ वहीं न देखे !


रस्ता भटक गया जो राही 

भटक-भटक कर ही पहुँचेगा, 

गिरते-पड़ते, रोते-हँसते 

अपनी भूलों से सीखेगा !


शुक्रवार, नवंबर 8

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

फूलों से नहीं दुआ-सलाम

दुनिया दुख का दूसरा नाम 

कहते आये सुबह औ'शाम, 

देख न पाये उड़ते पंछी 

फूलों से नहीं दुआ-सलाम !


जान-जान कर कुछ कब आया

प्रेम लहर इक भिगो गयी उर, 

एक सफ़र पर सबको जाना 

मिटने से क्यों लगता है डर !


माना अभी-अभी आये हैं 

दूर अतीव  दूर जाना है, 

इक दिन तो मंज़िल आएगी 

गीत पूर्णता का गाना है !


एक बीज से वृक्ष पनपता 

एक अणु में नृलोक समाया, 

एक कोशिका से जन्मा नर 

तन में सारा ज्ञान छिपाया !


सत्य देखना जिस दिन सीखा 

शृंग हिमालय के उठ आये, 

मन के पार उगे हैं उपवन 

कुंज गली में श्याम समाये !


मंगलवार, नवंबर 5

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 


जब सौंप दिया है स्वयं को 

अस्तित्त्व के हाथों में 

तब भय कैसा ?

जब चल पड़े हैं 

कदम उस पथ पर

उस तक जाता है जो 

तो संशय कैसा  ?

जब बो दिया है बीज प्रेम का  

अंतर में उसने ही 

तो उसके खिलने में देरी कैसी  ?

जब भीतर उतर आये हैं 

शांति के कैलाश 

तो गंगा के अवतरण पर 

भीगने से संकोच कैसा  ?

अपना अधिकार लेने में

 यह झिझक क्यों है 

हम उसी के हैं, और वही 

हम बनकर जगत में आया है 

जब जान लिया है या सत्य 

तब यह नाटक कैसा  ?

उसी को खिलने दो 

बढ़ने दो 

कहने दो 

अब अपनी बात चलाने का 

यह आग्रह कैसा  ?

डूब जाओ 

उसके असीम प्रेम में 

किसी तरह 

वह यही तो चाहता है 

फिर उससे भिन्न होने का 

भ्रम कैसा ? 


रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !


बुधवार, अक्तूबर 30

एक दीप अंतर करुणा का

एक दीप अंतर करुणा का


दीप जलायें शुभ स्मृतियों के 

स्मरण करें राघव, माँ सीता,

इस बार दिवाली में हम मिल 

वरण करें कान्हा की गीता !


 साधें सुमिरन आत्मज्योति का

सुदीप जलायें दिवाली में, 

याद करें सभी प्रियजनों को 

जो अंतर में गहरे बसते  ! 


 अवतारों, सिद्धों को पूजा 

 स्मृति में उनकी ज्योति जलायें,  

करुणामय माँ, परम पिता की  

याद का दीप जले हृदय में !


चैतन्य का दीपक प्रज्ज्वलित 

अपने लक्ष्यों को याद करें, 

मंज़िल तक राहों पर पग-पग 

दीप जलायें संकल्पों के ! 


बहे उजियाला संतोष  का 

आशा का भी दीप जलायें,

दीप जलायें उसी स्नेह से 

पिघल-पिघल जो बहे ह्रदय से !


इस धरती को रोशन कर दे 

भाव व्यक्त हों, बहे उजाला, 

दीप जले श्रद्धा का अनुपम  

एक दीप अंतर करुणा का !




सोमवार, अक्तूबर 28

ऑरोविल - प्रभात की नगरी


ऑरोविल - प्रभात की नगरी 

{दूसरा भाग}


संध्या काल में हम आश्रम के निकट स्थित समुद्र तट पर गये, जहाँ कई लोग आये हुए थे। लंबे तट पर जगह-जगह काले बड़े-बड़े पत्थरों से ऊँचे मार्ग बनाये गये थे, जो समुद्र में भीतर तक जाते थे, जिनपर बैठकर या चलकर लोग बिना भीगे सागर की लहरों के नृत्य का आनंद ले सकते थे। आकाश का नीला रंग प्रतिबिंबित होकर सागर को भी गहरा नीला रंग प्रदान कर रहा था, सागर की  मचलती लहरें सदा से हरेक को आकर्षित करती आयी हैं।हमने कई तस्वीरें उतारीं, पुत्र ने ड्रोन से कुछ वीडियो बनाये। कुछ स्थानीय लोग भी आकर अपना वीडियो बनवाने में उत्सुक हो गये। रेतीले तट से पूर्व हरे घास के मैदान थे, जिस पर कई दुकानें भी लगी हुई थीं। पश्चिम में सूर्यास्त हो रहा था, आकाश गुलाबी हुआ फिर सलेटी, और हम अगले दिन सूर्योदय देखने का निर्णय लेकर वापस लौट आये। 


सुबह उठकर हम पुदुचेरी का एक अन्य समुद्र तट ‘पौंडी मरीना बीच’ देखने गये। पूर्व दिशा में उगते हुए सूर्य का गोला पानी में पिघलते हुआ सोने जैसा लग रहा था। गगन में कई रंग छाये थे। हमने पानी में उतरकर लहरों का स्पर्श किया, तेज गति से आती हुई लहरें और पैरों के नीचे से खिसकती हुई रेत का रोमांच जाना-पहचाना सा लग रहा था। धूप तेज हो गई तो हम एक अच्छे से रेस्तराँ में नाश्ता करने गये। इसके बाद बारी थी नौकायन की, बैक वॉटर बोट यात्रा के बारे में कई जगह सुना व पढ़ा था। नाविक ने बताया वह हमें पहले  मैंग्रोव वन ले जाएगा फिर गिंगी नदी के मुहाने पर। नदी में लहरें शांत थीं, दोनों ओर तट बहुत सुंदर और हरियाली से पूर्ण थे। पेड़ों की शाखाएँ नदी को छू रही थीं, जानगल और नदी जैसे एक-दूसरे में समा गये थे। नौका विहार के लिए यह एक लोकप्रिय स्थान है। हमने कई तस्वीरें लीं। नाविक हमें अरिकमेडु नामक पुरातत्व स्थल पर ले गया। प्राचीन काल में यह भारत, रोम और यूनान के मध्य व्यापार का एक केंद्र था।हमने वहाँ किसी प्रचान क़िले के अवशेष देखे, सारा वातावरण दर्शनीय था, अनेक यात्री दो हज़ार वर्ष पुरानी दीवारों के सामने तस्वीरें खिंचवा रहे थे।कुछ देर वहाँ बिताने के बाद हम पुन: मोटर बोट में बैठ गये। नदी के मुहाने पर जाते ही जहाँ से समुद्र आरंभ होता है, वहाँ लहरें तेज हो गयीं, हमारी दस सीटों वाली छोटी नौका डोलने लगी, सभी यात्री रोमांच का अनुभव कर रहे थे। दोपहर को हम साधना फ़ॉरेस्ट देखने गये, यह एक स्वयं सेवी संस्था है जो ऑरोविल से कुछ दूर एक हरे-भरे  स्थान पर स्थित है। एक साधिका ने उसका इतिहास बताया, २००३ में एक इज़राइली जोड़े ने इस ख़ाली पड़ी पथरीली बंजर ज़मीन को देखा था, और जंगल उगाने की शुरुआत की थी।आज यहाँ घना जंगल है, उनकी संस्था भारत में मेघालय और अफ़्रीका के कुछ स्थानों पर भी जंगल लगाने और जल के संग्रह व सरंक्षण का काम करती है।एक स्वयं सेविका ने हमें जंगल का टूर करवाया, जिसकी बातें सुनकर सभी आश्चर्य चकित रह गये। साधना वन में प्रति वर्ष एक हजार स्वयंसेवकों को स्थानीय, प्राकृतिक सामग्रियों से निर्मित झोपड़ियों में निःशुल्क आवास प्रदान किया जाता है। यहाँ पर्माकल्चर पाठ्यक्रम और जलवायु संरक्षण के लिए विभिन्न कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, राष्ट्रीय वन विभाग के वनवासियों को भी प्रशिक्षित किया गया है ।यहाँ इस्तेमाल होने वाली बिजली सौर ऊर्जा से बनायी जाती है। पुरानी वस्तुओं को रीसाइकिल किया जाता है। पानी की एक-एक बूँद को बचाने का उपाय किया जाता है।मानवीय व सभी तरह के अपशिष्ट से कंपोस्ट खाद बनायी जाती है, जो जंगल में नये वृक्षों को बढ़ने में मदद देती है। उनके आवासों में एसी तो दूर पंखा भी नहीं था। आस-पास के गांवों के बच्चे और युवा इस परियोजना में उत्साहित होकर सक्रिय भाग लेते हैं। हमें बताया गया कि हर शुक्रवार शाम 4:30 बजे जंगल का टूर कराया जाता है, एक इको फ़िल्म दिखायी जाती है और निःशुल्क शाकाहारी जैविक रात्रिभोज भी कराया जाता है। इसके बाद हमने एक ऑर्गेनिक फार्म में उगाये अनाज व सब्ज़ियों से बनाये गये स्थानीय भोजन का आनंद लिया, जो केले के पत्तों पर परोसा गया था। लाल चावल का स्वाद विशिष्ट था। 


पूर्व में क्रांतिकारी रहे स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेता महर्षि अरविंद के आश्रम में प्रवेश करते ही एक गहन शांति का अनुभव होता है,  वहाँ इस मौसम में भी सैकड़ों फूल खिले थे। महर्षि तथा श्री माँ की समाधि को फूलों से अति आकर्षक ढंग से सजाया गया था। श्री अरविंद आश्रम 1910 में शिष्यों के एक छोटे से समुदाय से तब विकसित हुआ, जब श्री अरविंद, जेल में एक आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त होने के बाद, राजनीतिक जीवन से  सेवानिवृत्त होकर पांडिचेरी में बस गये  थे। 24 नवंबर 1926 को एक प्रमुख आध्यात्मिक अनुभूति के बाद श्री अरविंद अपनी साधना जारी रखने के लिए सार्वजनिक जीवन से से हट कर पूर्ण एकांत में चले गए। इस समय उन्होंने साधकों के आंतरिक और बाहरी जीवन और आश्रम की पूरी जिम्मेदारी अपनी आध्यात्मिक सहयोगी, श्री माँ को सौंप दी, जो मूलत: फ़्रांस की निवासी थीं और जिनका नाम मीरा अलफ़स्सा था। हमने श्री अरविंद की लिखी कुछ पुस्तकें ख़रीदीं।


क्रमश: