मंगलवार, अप्रैल 27

पावन परिमल पुष्प सरीखा

पावन परिमल पुष्प सरीखा
एक चेतना! चिंगारी हूँ
एक ऊर्जा सदा बहे जो,
सत्य एक धर रूप हजारों
परम सत्य के संग रहे जो !

अविरत गतिमय ज्योतिपुंज हूँ
निर्बाधित संगीत अनोखा,
सहज प्रेम की निर्मल धारा
पावन परिमल पुष्प सरीखा !

चट्टानों सा अडिग धैर्य हूँ
कल-कल मर्मर ध्वनि अति कोमल,
मुक्त हास्य नव शिशु अधरों का
श्रद्धा परम अटूट निराली !

अन्तरिक्ष भी शरमा जाये
ऐसी ऊँची इक उड़ान हूँ,
पल में नापे ब्रह्मांडों को
त्वरा युक्त इक महायान हूँ !

एक शाश्वत सतत् प्रवाह जो 
शिखरों चढ़ा घाटियों उतरा,
पाया है समतल जिसने अब
सहज रूप है जिसका बिखरा !

22 टिप्‍पणियां:

  1. सम्भवतः ये उद्गार आपने अपने मन के लिए व्यक्त किए हैं। अत्यंत सुंदर शब्दों से सजी है यह कविता। पढ़कर मन को शीतलता एवं आनंद की अनुभूति हुई।

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 28 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सत्य के कितने स्वरूप !बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!!!

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  4. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२७-०४-२०२१) को 'चुप्पियां दरवाजा बंद कर रहीं '(चर्चा अंक-४०५०) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  5. आदरणीया मैम, बहुत ही सुंदर रचना जो हमें मानव की उच्चता औरह.मारी आत्मा के नित्य निर्मल और आनंदरूप होने का स्मरण कराती है । आपकी यह कविता पढ़ कर मुझे गोस्वामी तुलसीदासजी की चौपाई याद आ गई :-।। ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशि ।। हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।

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    1. प्रिय अनंता जी, आपकी इस सुंदर प्रीतिक्रिया ( प्रतिक्रिया नहीं ) पढ़कर आनंद हुआ, स्वागत है !

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  6. वाह! अद्भुत! सुंदर व्यजंनाएं सुंदर कथन ।
    बहुत सुंदर सृजन।
    मन में अनुराग जगाती रचना।
    सस्नेह।

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    1. कविता आपको अच्छी लगी जानकर खुशी हुई, स्वागत व आभार !

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  7. जीव,अपना मूल रूप पहचान ले तो उसकी अनुभूति ऐसी ही आनन्दमय होती है.निर्मल मन को उसका आभास अनायास मिल जाता है.

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    1. वाह ! कितने सुंदर शब्दों में आपने जीवन के परम सत्य को कह दिया है , स्वागत व आभार !

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  8. अनुपम कृति । हार्दिक आभार एवं शुभकामनाएँ ।

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  9. एक शाश्वत सतत् प्रवाह जो
    शिखरों चढ़ा घाटियों उतरा,
    पाया है समतल जिसने अब
    सहज रूप है जिसका बिखरा !
    बहुत सुंदर शब्दों में आपने जीव को उसके वास्तविक स्वरूप की पहचान कराई है। सादर।

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