सारे माला के मनके हैं
सच के सपने देखा करता
माया में रमता निशदिन मन,
जाने किसने बंधन डाले
मुक्त सदा ही मुरली की धुन !
अग्निशिखा सा दिप-दिप करता
भीतर कोई यज्ञ चल रहा,
दैव एक लिखता जाता है
लेख कर्म के कौन पढ़ रहा !
शून्य वही जो ब्रह्म कहाये
एक अनूप लोक गढ़ता है,
ख़ुद ही ख़ुद को रहे जानता
चकित हुआ मन जब तकता है !
है अनंत, अनंत का सब कुछ
जड़-चेतन दोनों उसके हैं,
वही बनाये वही चलाये
सारे माला के मनके हैं !
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