सोमवार, जनवरी 6

तम की कारा में दुख झेला

तम की कारा में दुख झेला 


तम की कारा में दुख झेला 

राजस मुक्ति पथ दिखलाता, 

सत ने सत्य  को दिया आश्रय 

लेकिन क्रम पुन: तम का आया !


एक  चक्र में घूम रहे जन 

बार-बार वे गलियाँ आतीं, 

जिनमें दंश कभी पाये थे 

फिर भी कदम वहीं लिए जातीं !


निज भूलों को भाग्य बताकर   

निज करनी से बाज न आते, 

जिस राह  पर मिले थे काँटे 

फिर-फिर उस पर कदम बढ़ाते  !


स्वयं ज्ञान का करें अनादर 

सुख  चाहों  में दौड़े जाते, 

तृष्णा मन की तृप्त न होगी 

अटल सत्य यह फिर बिसराते  !


सतयुग से कलयुग तक पहुँचे  

 अब फिर से ऊपर जाना है, 

थम जाये यह बस सतयुग में 

 इक नया विधान बनाना है !



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