भव सागर में डोले नैया
मन ही तो वह सागर है
जिसमें उठती हैं निरंतर लहरें
मन ही तो वह पानी है
जो तन नौका के छिद्रों से
भीतर चला आया है
तभी तन की यह नाव
जर्जर होती जाती है
नाविक ने कहा भी था
छिद्रों को बंद करो
पानी को उलीचो बाहर
नाव हल्की हुई तो तिर जाएगी
ज्यों की त्यों उस पार उतर जाएगी
अथवा तो आने दो
परम सूर्य की
किरणों को
मन को सुखाने दो
मन वाष्प होकर उड़ जाएगा
देह ख़ाली होगी
पानी भर जाये तो डुबाता है
बाहर रहे तो पार ले जाता है
मन जितना अ-मन हो
उतना ही भला है
उसकी तर्क पूर्ण बातें
केवल मदारी की कला है !
सुन्दर
जवाब देंहटाएं