सारे माला के मनके हैं
सच के सपने देखा करता
माया में रमता निशदिन मन,
जाने किसने बंधन डाले
मुक्त सदा ही मुरली की धुन !
अग्निशिखा सा दिप-दिप करता
भीतर कोई यज्ञ चल रहा,
दैव एक लिखता जाता है
लेख कर्म के कौन पढ़ रहा !
शून्य वही जो ब्रह्म कहाये
एक अनूप लोक गढ़ता है,
ख़ुद ही ख़ुद को रहे जानता
चकित हुआ मन जब तकता है !
है अनंत, अनंत का सब कुछ
जड़-चेतन दोनों उसके हैं,
वही बनाये वही चलाये
सारे माला के मनके हैं !
सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 22 जनवरी 2025 को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बहुत बहुत आभार पम्मी जी !
हटाएंआध्यात्म भाव से सृजित सुन्दर सृजन । सादर नमस्कार अनीता जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी !
हटाएंवाह,!अनीता जी ,बहुत सुन्दर!
जवाब देंहटाएंअग्निशिखा सा दिप-दिप करता
जवाब देंहटाएंभीतर कोई यज्ञ चल रहा,
दैव एक लिखता जाता है
लेख कर्म के कौन पढ़ रहा
गहन आध्यात्मिक होकर ही ऐसा लिखा जा सकता है. सादर नमन .
स्वागत व आभार मीना जी, और पढ़ा भी तभी जा सकता है
हटाएंसारे माला के मनके है - हृदय के असीम प्रिय भावों को छू उसे एक मधुर शांत स्फुरित आनंद भावधारा से भर देती रचना । बहुत ही सुंदर। सत्यभाव से सुसंपन्न । बहुत - बहुत अभिनंदन आपको । शब्द कम पड़ रहे है .. और आगे क्या कहूँ । पढ़कर मन प्रसन्न हो गया । 🌸🙏🌸
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रियंका जी, रचना आपको छू गयी, काव्य गंतव्य तक पहुँच गया
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