शनिवार, अप्रैल 10

कविता

 कविता 

नहीं जानती थी वह 

कैसे लिखी जाती है कविता 

न कभी छंद का ज्ञान लिया

 न अलंकारों का अध्ययन किया 

पर चाँद को देखकर उसका मन खिल जाता है 

और नदी में पड़ते उसके प्रतिबिम्ब पर तो 

लट्टू हो जाता है 

इस तरह  

कि जैसे हाथ में ही आ जायेगा देह से निकल कर 

जब वह किसी खेत की पगडंडी पर धरती थी कदम 

तो चप्पल उठाकर हाथों में पकड़ लेती 

ताकि मिट्टी का स्पर्श भर सके 

नसों से उठता दिल से दिमाग तक 

उसने दिमाग से काम लेना 

छोड़ दिया था उस दिन  

 जब घर के बड़ों की चर्चा में 

 सलाह देने पर 

टोक दिया था किसी ने 

 हरी घास में छिपा नन्हा कीट दिख जाता है उसे

दिख जाता है दूर खिला अकेला फूल 

या शाम के धुँधलके में उड़ता हुआ अकेला पंछी 

वह उन सबके साथ इस दुनिया की 

सबसे राजदार शै को बांटती है !


6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह .... चाँद , नदी , मिटटी सभी तो उससे कहलवा लेते मन की बात ... फिर कविता लिखने कि ज़रूरत ही क्या ..

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  2. चाहे कितना भी व्यवधान हो पर स्वयं मार्ग खोजकर निर्झरी सी कविता बहती ही रहती है ।
    अति सुन्दर कथ्य ।

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  3. छंद और अलंकार का ज्ञान भले ही न हो...कवि का सा ह्रदय होना चाहिए

    ुन्दर लेखन

    मेरी रचनायें पढ़ें - तरक्की

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  4. आप सभी रसिकजनों का स्वागत व आभार !

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