तम की कारा में दुख झेला
तम की कारा में दुख झेला
राजस मुक्ति पथ दिखलाता,
सत ने सत्य को दिया आश्रय
लेकिन क्रम पुन: तम का आया !
एक चक्र में घूम रहे जन
बार-बार वे गलियाँ आतीं,
जिनमें दंश कभी पाये थे
फिर भी कदम वहीं लिए जातीं !
निज भूलों को भाग्य बताकर
निज करनी से बाज न आते,
जिस राह पर मिले थे काँटे
फिर-फिर उस पर कदम बढ़ाते !
स्वयं ज्ञान का करें अनादर
सुख चाहों में दौड़े जाते,
तृष्णा मन की तृप्त न होगी
अटल सत्य यह फिर बिसराते !
सतयुग से कलयुग तक पहुँचे
अब फिर से ऊपर जाना है,
थम जाये यह बस सतयुग में
इक नया विधान बनाना है !