शनिवार, मई 23

वाराणसी – एक अंतहीन उत्सव


वाराणसी – एक अंतहीन उत्सव

हम अर्धरात्रि दो बजे वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरे. मुख्यद्वार से सटा हॉल खचाखच भरा था, पुल पर भी बोरिया-बिस्तर लिए सैकड़ों व्यक्ति थे, कुछ बैठे, कुछ लेटे हुए सोए थे. उनमें से कई तीर्थयात्री रहे होंगे जो आस-पास के गावों तथा कस्बों से गंगा मैया तथा बाबा विश्वनाथ के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करने हर पर्व पर वाराणसी आते हैं. कुछ मेडिकल कॉलेज में इलाज करने आये होंगे. स्टेशन से बाहर निकले तो सड़क पर भी चहल-पहल थी. ऑटो रिक्शा वाले ताजा-तरीन मूड में थे, कोई भी उनींदा नजर नहीं आया. कहते हैं एक अजीब सी मस्ती या खुमारी यहाँ की हवा में है, जिसमें हर तबके के लोग डूबे रहते हैं. वाराणसी, जिसे बनारस और काशी भी कहते हैं, के बारे में कहा जाता है कि ‘सात वार और नौ त्यौहार’, अर्थात यहाँ किसी दिन एक से अधिक पर्व भी मनाया जाता है. यहाँ स्थान-स्थान पर आस्था के प्रतीक स्थल हैं, शहर के हर मुख्य तिराहे या चौराहे पर हनुमानजी, शिवजी अथवा देवी के मन्दिर हैं, कहते हैं काशी के कंकर-कंकर में शंकर का वास है. अगले एक सप्ताह तक हम बनारस के इसी रूप को निकट से महसूस करने की ख्वाहिश लेकर आये थे.

सुबह उठकर हम विश्व प्रसिद्ध घाट देखने निकले. जो हजारों वर्षों से काशी की शोभा बढ़ा रहे हैं. वर्तमान में यहाँ अठाहरवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में निर्मित पत्थर की असंख्य सीढ़ियों वाले घाट तथा उन पर स्थिर अनेक भव्य मन्दिर, महल, आलीशान द्वार तथा हवा का आनंद लेने के लिए बने गई खास इमारतें हैं. हम रिक्शे से सीधे दशाश्वमेध घाट आये, जो सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा स्वच्छ घाट है. बड़े-बड़े श्वेत व गुलाबी आभा लिए पत्थरों द्वारा बनाये गये घाटों तथा जल तक उतरती सीढ़ियों ने हमारा मन मोह लिया तथा कल-कल बहती गंगा का नीला जल हृदय को भीतर तक शीतल कर गया. काशी में गंगा नदी का नहीं आस्था का नाम है. गंगा के प्रति लोगों की भक्ति यहाँ देखते ही बनती है. बांस की छतरी लगाये, लकड़ी के तख्तों पर अपना आसन बिछाए पंडे-पुजारी दूर प्रदेशों से आये यात्रियों को पूजा करवा रहे थे, तथा उनके सामान की सुरक्षा भी कर रहे थे. एक स्थान पर हमें दक्षिण भारत से आया एक परिवार मंत्रोच्चारण करता हुआ दिखा. जल को श्रद्धा से मस्तक पर छुआते, आचमन करते तथा डुबकी लगाते सैकड़ों यात्री सुंदर दृश्य उत्पन्न कर रहे थे. कहीं कोई बालक तैरने का अभ्यास कर रहा था तो कहीं कोई महिला किनारे पर बैठ लोटे से सिर पर जल उडेंल रही थी. नौका भ्रमण कराते हुए नाविक ने बताया कि बरसात में जब पानी सीढ़ियों को ढक लेता है नाव चलाना जोखिम भरा काम होता है. सर्दियों में जब गंगा का शांत रूप देखने को मिलता है, अंतिम सीढ़ी तक उतर कर जल में प्रवेश मिलता है.

गंगा की शोभा प्रातःकाल से रात्रि तक कई रूपों में परिलक्षित होती है. गंगा जो नित्य नई है और हजारों वर्ष पुरानी भी, साक्षी है अनेक राजवंशों की, जो अपने समय में उन्नति के शिखर पर पहुंचे थे. जिसके स्मृति चिह्न घाटों के रूप में आज भी मौजूद हैं. उनमें अहल्याबाई होल्कर हैं, जयपुर के महाराजा जयसिंह, मराठा सरदार पेशवा अमृतराव हैं. त्रिपुराभैरवी घाट दक्षिण भारतीय लोगों का निवास स्थल है, जहाँ हजारों की संख्या में आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक से यात्री आते हैं.

हमने देखा हर घाट चाहे वह छोटा हो या बड़ा, अपनी अलग पहचान लिए है. लगभग सौ घाटों में से कुछ समय के साथ ढह गये हैं, कुछ पूरी आन-बान के साथ हर सुबह स्नानार्थियों का स्वागत करते हैं. कुछ का नवीनीकरण हुआ है. कितनों के किनारे आधुनिक होटल बन गए हैं, कुछ में बनारसी साड़ियों की दुकानें व कारखाने भी हैं. कई घाटों पर योगकेंद्र भी तथा कुछ पर लोगों ने अपना निवास भी बना रखा है. यहाँ नित्य एक उत्सव का माहौल बना रहता है. नगर के दक्षिणी छोर पर स्थित है अस्सी घाट, गंगा व असी नदी के संगम स्थल पर स्थित यह घाट बनारस के प्राचीनतम स्थलों में से है. इसके बाद तुलसी घाट, हनुमान घाट हरिश्चन्द्र घाट तथा केदार घाट हैं. हरिश्चन्द्र तथा मणिकर्णिका दोनों श्मशानघाट हैं, वहाँ जाकर जीवन की नश्वरता का बोध हमें गंभीर बना गया. काशी को मुक्ति स्थल माना गया है, यह पंच तीर्थों में से एक है. नौकावाहक ने जो हमारे गाइड का काम भी कर रहा था, कई घाटों से जुडी कथाएं भी सुनायीं. राजा हरिश्चन्द्र का महल, डोम के रूप में उनका निवास स्मृति रूप में अभी तक सुरक्षित है. जहाँ तुलसी ने रामचरितमानस लिखी थी, जहाँ कबीर को गुरू मिले थे, वे स्थान तथा जहाँ शंकर का कर्णफूल गिरा था और पार्वती का मणि, वह कुंड आज भी मौजूद है. काशी में समय जैसे ठहर गया है, चाहे दुनिया कितनी तेजी से आगे बढ़ रही है, यहाँ के मन्दिर तथा घाट अपनी प्राचीन भव्यता को सुरक्षित रखे हुए हैं.

संध्या काल में होने वाली गंगा आरती में शामिल होने के लिए हमने पुनः नाव का आश्रय लिया. नाविक ने अनेक छोटी-बड़ी नौकाओं के साथ अपनी नाव भी स्थिर कर ली. आस-पास के सभी स्थान लोगों से भर गये थे, कुछ चबूतरों व सीढ़ियों पर बैठकर प्रकाश के इस उत्सव का आनंद उठा रहे थे. धूप, दीप, लोहबान, कपूर, पुष्प तथा कई सामग्रियों के द्वारा सात पुजारियों ने जब मंत्रोच्चार करते हुए आरती की तब सभी मंत्रमुग्ध हो गये. जल में दीपों का प्रतिबिंब तथा नदी की धारा के साथ बहते पत्तों की नाव में तैरते दीपक जाने किस लोक की खबर दे रहे थे.

अगले दिन मन्दिर दर्शन का कार्यक्रम था. सबसे पहले हमारा रिक्शा रुका, महा मृत्युंजय मन्दिर पर, जहाँ दर्शनार्थियों की कतार पहले से ही लगी थी, हमने बाएं द्वार से शिव पिंडी के दर्शन किये. हमें आगे पैदल ही जाना पड़ा, संकरी गली में दो ट्रक आमने-सामने आ जाने से आगे नहीं जाया जा सकता था. रास्ता पूछते-पूछते हम काशी के प्रसिद्ध काल भैरव मन्दिर पहुंचे. काशीवासी इन्हें काशी का कोतवाल मानते हैं, सर्वप्रथम इनके दर्शन का विधान है. संकटादेवी के मन्दिर में हम सीढियाँ चढ़ते हुए पहुंचे तो श्वास फूल रही थी, घाट पर स्थित अनेक मन्दिरों में से यह एक है. इसके बाद भूल-भुलैया गलियों में चलते-चलते हम विश्वनाथ गली पहुंचे जहाँ विश्वप्रसिद्ध विश्वनाथ मन्दिर है. कई बार हुए आतंकवादी हमलों के कारण तथा विवादित क्षेत्र होने के कारण यहाँ पुलिस का सख्त पहरा था. इस मन्दिर का निर्माण इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने अठाहरवीं शताब्दी में करवाया था. इसके शिखर पर महाराजा रणजीत सिंह ने लगभग बाइस टन सोना लगवाया था.

उसी दिन संध्या के समय नगर के तीन प्रसिद्ध मन्दिर – बिरला मन्दिर, जो बनारस हिंदू विश्व विद्यालय में स्थित है, संकट मोचन हनुमान मन्दिर, जो संतकवि तुलसीदास को समर्पित है, तथा श्री दुर्गा मन्दिर देखने गये. नवरात्रि के कारण हर जगह भीड़ थी. दुर्गा मन्दिर के सामने तो व्रती स्त्रियों की लम्बी-लम्बी कतारें लगी थीं, जो हमें धर्म के बदलते हुए रूप पर सोचने को विवश कर रही थीं. अगले दिन मौसम गर्म था सो हमने सुबह-सवेरे ही नाव से गंगा के दूसरे तट पर जाकर, जहाँ पानी अपेक्षाकृत स्वच्छ था तथा भीड़ भी कम थी, स्नान किया, गंगा का रेतीला तट मीलों तक पसरा हुआ था.


वाराणसी से मात्र दस किमी दूर बौद्धों का पवित्र विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल सारनाथ स्थित है. शाम सारनाथ के हरे भरे बगीचों में हिरणों को बेफिक्री से घूमते हुए देखने तथा शीतल हवा का आनंद लेने में बितायी. भगवान बुद्ध ने अपने प्रथम पांच शिष्यों को जिस स्थान पर उपदेश दिया था वहाँ सुंदर भव्य मूर्तियों द्वारा बना स्मारक सभी दर्शनार्थियों को आकर्षित करता है. विभिन्न देशों के पर्यटक बौद्ध लामाओं द्वारा दिए गये प्रवचन को सुनने के लिए एक मन्दिर के पास लॉन में कतार बद्ध बैठे थे. एक अन्य समूह मौन धारण किये किसी साधना कक्ष से निकल रहा था. महात्मा बुद्ध के अवशेषों को समेटे स्तूप जो तेतीस मीटर ऊंचा है और लाल इंटों व पत्थरों से बना है, हमें दूर से बुला रहा था. सारनाथ संग्रहालय में सम्राट अशोक की भव्य लाट तथा पुरानी मूर्तियाँ, लेख तथा बर्तन देखकर किसे भारत के स्वर्णिम अतीत पर गर्व नहीं होगा. हमने पैदल घूमते हुए चीनी, जापानी व तिब्बती बौद्ध मन्दिर देखे. अपने पड़ाव के अंतिम दिन हम वरुणा नदी के तट पर नये बने लाल बहादुर शास्त्री घाट को देखने गये. कई सुखद स्मृतियाँ लेकर हमने उसी रात्रि वापसी की यात्रा आरम्भ की.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत समय से वाराणसी जाने का मन बना रही थी लो आज हो भी आए
    सुन्दर प्रस्तुति
    आभार

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  2. स्वागत व आभार रचना जी..

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  3. 4 दिनों में इतना पा लिया और बता दिया आपने ! सुखद आश्चर्य हुआ।

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