सोमवार, अक्तूबर 29

मन की नदी



मन की नदी

श्वास और मौन के दो तटों के मध्य
बहती है मन की नदी...
जिसे लील जाता है कभी अगाध मरुथल
निगल जाता है कभी आसमान
जाने कितनी नदियाँ गुम हो गयीं
कुछ पल हँस कर फिर चुप हो गयीं
सुना है इस तट पर या उस तट पर
उतर जाता है कभी कोई राही
तो हजार राहें बिछ जाती हैं
उसके लिए फूलों भरी
कतारें लग जाती हैं.... रोशनियों की
झालरें झूमती हैं...
पर यह होता है कभी..कभी...

रविवार, अक्तूबर 28

कुछ सुनहरे पल गोवा में


प्रिय ब्लोगर साथियों
पिछले माह के अंतिम सप्ताह में मुझे गोवा जाने का सुअवसर मिला, डायरी लिखने की आदत के चलते उस यात्रा के अनुभव मैंने शब्दों और चित्रों में बटोर लिए, अब आपसे उन्हें साझा करने आयी हूँ. आशा है आप भी इसे पढकर भारत के इस सुंदर प्रदेश के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और हो सकता है यह विवरण आपकी अगली यात्रा के लिए प्रेरक भी सिद्ध हो. तो प्रस्तुत है डायरी की चौथी व अंतिम प्रविष्टि -



आज भी सुबह साढ़े पांच बजे हम उठे, अँधेरा ही था तब. आज प्रातः भ्रमण न करके कमरे में ही योग के आसन व प्राणायाम किये. ताजे फल, कॉर्न फ्लेक्स, छोले-भटूरे व दोसे का नाश्ता करके हम गोवा के समुद्री तट देखने निकले,  सबसे पहले ताज होटल का कान्दोलिन बीच देखने गए जहां एक पुरानी इमारत के अवशेष थे, जिसकी दीवारों को सागर की लहरें छू रही थीं, एक गोल इमारत थी, सामने ताज होटल था, उसकी चौड़ी दीवारों पर बैठकर सागर की हवाओं का स्पर्श एक अनोखा अनुभव था. लहरों से ओम की ध्वनि आ रही थी. उसके बाद हम आगुडा नामक किले को देखने गए, जहां किसी फिल्म की शूटिंग चल रही थी. पूरी यूनिट अपना सेटअप लगा रही थी. कैमरे, लाइट, म्यूजिक सिस्टम. आगुडा का अर्थ है पानी, यह किला पुर्तगालियों ने डच व मराठा सेनाओं से बचने के लिए बनवाया था. यहाँ मीठे पानी का एक स्रोत था जिससे समुद्री जहाज पानी का भंडारण किया करते थे. किले में एक लाइट हाउस भी है जो दूर से जहाजों को दिशा निर्देश दिया करता रहा होगा


उसके बाद बारी थी वागातुर समुद्र तट की, जहां ऊपर से सागर के सुंदर दृश्यों को निहारते रहे व दृश्यांकन किया. अंजुना तट पर सीढ़ीयों से नीचे उतर कर चट्टानों पर बैठे व फोटोग्राफी की. कलंगुट तट पर रेतीला मैदान था जहां अनेकों दुकानें लगी थीं. हमने कुछ खरीदारी की. रास्ते में एक किताबों की विशाल दुकान में रुके जिसपर लिखा था ‘गोवा का सबसे बड़ा किताब घर’, जहाँ से गोवा के बारे में एक किताब तथा लोकगीतों व नृत्यों पर आधारित एक डीवीडी खरीदा.  दोपहर बाद पुनः हयात जाना था जहां कोरोजन पर पेपर सुने. शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम था. पुराने हिंदी फ़िल्मी गानों की धुन पर नृत्य करने के लिए मेहमान कलाकारों ने श्रोताओं को भी शामिल कर लिया. लौटते हुए दस बज गए थे. अगले दिन फिर नौ बजे हयात पहुंचे कांफ्रेंस में शामिल हुए, ‘कोरोजन और पनिशमेंट’ पर भाषण का दूसरा भाग था. बाद में पतिदेव ने नेस की सदस्यता ग्रहण की. वहाँ से हम बाजार गए, मित्रों के लिए गोवा की मिठाई खरीदी.

दोपहर के भोजन के बाद हम पुराने गोवा के चर्च देखने गए, दो अति प्राचीन चर्च आमने सामने हैं, से कैथ्रेडल तथा सेंट फ्रांसिस चर्च जो गोवा की शान हैं. सोलहवीं शताब्दी में बने ये चर्च वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं. बाहर सुंदर बगीचा है, जिसमें बगुलों का एक झुण्ड आकाश में उडकर एक लॉन से दूसरे में जा रहा था. वहाँ से लौटे तो होटल के पास स्थित बागा मैरीना तट पर गए, पिछले चार दिनों में यहाँ का बदलाव अनोखा था, बीच पर अनेकों दुकानें खुल गयी थीं. बीसियों बार थे, लोग खाना पीना कर रहे थे, कुछ लोग नाच रहे थे. कुछ मसाज करवा रहे थे. लोगों का उत्साह यहाँ देखते ही बनता है. जैसे गोवा मस्ती का पर्याय हो. कुछ समय वहाँ बिता कर हम लौट आए. गोवा में यह हमारी अंतिम रात्रि है, यहाँ होटल में भी मेहमानों की संख्या एकाएक बढ़ गयी है.


आज यहाँ हमारा अंतिम दिन है, अभी कुछ देर पहले ही हम नाश्ता करके आए. पास के मार्केट तक पैदल ही गए, एक छोटा सा उपहार खरीदा, यहाँ होटल के स्टाफ को छोटी-छोटी काजू की चाकलेट्स दीं, इतने दिन यहाँ रहते हुए सभी से परिचय हो गया है. सुबह उठकर सागर तट पर टहलने गए, कुछ लोग रेत पर ही सो रहे थे. एक ग्रुप में देखा दो-तीन लडकियां नशे के बाद अजीब सी हालत में वापस आ रही थीं. यहाँ होटल में भी कल से कमरे से निकलते ही सिगरेट व अल्कोहल की गंध नाक में घुसने लगी है, गोवा में सुबह से मुसाफिर सुरूर में आ जाते हैं. समुद्र तट पर सामिष भोजन करते हैं. तामसिक वृति का उदाहरण है यहाँ का जीवन, जिससे लोगों में संयम, श्रद्धा आदि भावनाएं दब जाती हैं, जो पर्यटक बाहर से आते हैं, वही ऐसा करते हैं, आज पहले दिन की अपेक्षा तट कितना गंदा लग रहा था. भीतर तो सबके वही परमात्मा है. तामसिक वृत्ति का इंसान या तो खाता है, या काम करता है या सोता है चौथा काम उसे आता ही नहीं. उसका कोई घर ही नहीं वह जाये भी कहाँ, जिसको अपना पता नहीं वह इंसान कितना अकेला है इस विशाल दुनिया में. जीवन का ऐसा ही रवैया है.


शुक्रवार, अक्तूबर 26

कुछ सुनहरे पल गोवा में


प्रिय ब्लोगर साथियों
पिछले माह के अंतिम सप्ताह में मुझे गोवा जाने का सुअवसर मिला, डायरी लिखने की आदत के चलते उस यात्रा के अनुभव मैंने शब्दों और चित्रों में बटोर लिए, अब आपसे उन्हें साझा करने आयी हूँ. आशा है आप भी इसे पढकर भारत के इस सुंदर प्रदेश के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और हो सकता है यह विवरण आपकी अगली यात्रा के लिए प्रेरक भी सिद्ध हो. तो प्रस्तुत है डायरी की तीसरी प्रविष्टि -



ग्रैंड हयात में कलात्मक कृति 


अगले दिन भी हम सुबह प्रातः भ्रमण को गए. आज समुद्र तट की ओर न जाकर धान के खेतों की ओर. रास्ते में कितने ही होटल व रिसॉर्ट दिखते हैं, ‘यहाँ बाइक किराये पर मिलती है’ के साइन बोर्ड भी. फूलों के कितने ही वृक्षों को निहारते हम लौटे. प्राणायाम किया, हार्लिक्स पिया और तैयार हुए. नाश्ते के बाद हमें निकलना था. साढ़े नौ बजे हम ग्रैंड हयात कांफ्रेंस स्थल पर पहुंच गए. हॉल ए में भाषण सुनने गए. ‘कोरोजन एंड पनिशमेंट’ पर नेस के अध्यक्ष केविन के विचार सुने, ग्यारह बजे हम हॉल डी में पहुंचे जहां पतिदेव का पेपर था. अच्छा रहा, काफी लोगों से बात हुई. पौने दो बजे हम वहाँ से निकट ही आइनोक्स में ‘बरफी’ देखने गए, जिसकी बड़ी तारीफ सुनी थी, सचमुच फिल्म काबिले तारीफ़ है. यहाँ से पुनः हयात जाकर प्रदर्शनी देखी. बड़े-बड़े पोस्टरों के द्वारा कई कम्पनियों ने अपने उत्पाद दिखाए थे. कोरोजन के कारण तेल कम्पनियों व रिफाइनरियों को हर वर्ष लाखों का नुकसान उठाना पड़ता है, पेंट उद्योग के लोग भी वहाँ आए थे. इतना कुछ देख सुन कर कुछ पंक्तियाँ कलम से उतर गयीं.

‘’कोरोजन यानि ‘जंग’
जब धातु नहीं जीत पाती
वातावरण के खिलाफ जंग
तो उसमें लग जाता है जंग...
गिर जाती हैं इमारतें
पुल टूट जाते हैं..
खा जाता दीमक की तरह
रह जाता मानव दंग
अद्भुत है जंग का दर्शन
लग जाती है कैसे आग
जंग खायी गैस पाइपों में
सुना इसका लोमहर्षक वर्णन.. ‘’


दौना पौला स्मारक 
उसी शाम हम दौना पौला समुद्र तट देखने गए,हीर की तरह दौना पौला ने भी प्रेम के लिए अपनी जान दे दी थी, वह एक पुर्तगीज वायसराय की पुत्री थी,एक मछुवारे से उसके प्रेम को समाज कैसे स्वीकार करता, लेकिन वह अमर हो गयी, दोनों प्रेमियों की मूर्तियां इस बीच की शान हैं. एक दूजे के लिए फिल्म की शूटिंग यहीं हुई थी. ठंडी हवा बह रही थी. मौसम बहुत अच्छा था. वहाँ से मीरामार बीच. जहां ब्रह्मकुमारी संस्था के कुछ लोग पोस्टर लगाकर कक्षा ले रहे थे. वहीं से मांडवी नदी होते हुए वापस होटल आ गए हैं. जुआरी और मांडवी ये दोनों नदियाँ गोवा की जीवन रेखाएँ हैं, आते-जाते इन नदियों के किनारे-किनारे गुजरते यात्री-गण इनके सौंदर्य को निहारते रहते हैं. वैसे गोवा अभी इस वर्ष के यात्रियों के आने की राह देख रहा है.

मीरामार में सूर्यास्त 
ईसा पूर्व तीसरी शती में यह मौर्य शासन का अंग था. जिसके बाद सातवाहन, राष्ट्रकूट, तथा कादम्बस वंश के शासन में रहा. चौदहवीं शताब्दी में यहाँ दिल्ली के सुल्तान का शासन था. किन्तु कुछ ही वर्षों में हिंदू राजा हरिहर से होता हुआ जब गोवा बीजापुर के आदिलशाह के पास गया, पुर्तगाली ओल्ड गोवा में अपना अधिकार कर चुके थे. इस तरह यहाँ हिंदू राजाओं का शासन रहा, मुस्लिम सुल्तानों का और पुर्तगालियों का भी, सभी का प्रभाव यहाँ की मिली-जुली संस्कृति पर पड़ा है. प्राचीन काल में कोंकण काशी के नाम से भी जाना जाने वाला गोवा भारत का एक अति समृद्ध व खुशहाल राज्य है. वास्को इसका सबसे बड़ा शहर है, मार्गाओ में पुर्तगाली सभ्यता के चिह्न स्पष्ट दिखायी पड़ते हैं. गोवा के इतिहास के बारे में पढ़-सुन कर  उसी के बारे में सोचते हम निद्रामग्न हो गए.

शनिवार, अक्तूबर 20

कुछ सुनहरे पल गोवा में


प्रिय ब्लोगर साथियों
पिछले माह के अंतिम सप्ताह में मुझे गोवा जाने का सुअवसर मिला, डायरी लिखने की आदत के चलते उस यात्रा के अनुभव मैंने शब्दों और चित्रों में बटोर लिए, अब आपसे उन्हें साझा करने आयी हूँ. आशा है आप भी इसे पढकर भारत के इस सुंदर प्रदेश के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और हो सकता है यह विवरण आपकी अगली यात्रा के लिए प्रेरक भी सिद्ध हो. तो प्रस्तुत है डायरी की दूसरी प्रविष्टि -
ग्रैंड हयात का सुंदर बगीचा 
 आज ग्रैंड हयात जाना है, जहाँ एक कांफ्रेंस में भाग लेने हम आए हैं. छब्बीस एकड़ में फैला यह अति विशाल होटल बाम्बोलिम में है. प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर इस होटल को हरे-भरे लॉन तथा दीर्घ  समुद्र तट एक विशिष्टता प्रदान करते हैं. हम तलघर स्थित बालरूम में गए, वहीं रजिस्ट्रेशन होना था, बाद में मुख्य हाल में गए जहाँ भारतीयों के साथ कई विदेशी भी थे. इस कांफ्रेस में भी कई देशों के लोग आए हैं. रजिस्ट्रेशन की औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद कुछ पल समुद्र तट पर बिताये.


वहाँ से हम गोवा का विश्व प्रसिद्ध दूध सागर प्रपात देखने गए. जो यहाँ से साठ किमी दूर है. कर्नाटक और गोवा की सीमा पर स्थित यह प्रपात महावीर वन्य जीवन सरंक्षित जंगल में है. इसकी ऊँचाई एक हजार फीट है. इसके बारे में सुन-पढ़कर हम जब हरे-भरे मार्गों से गुजर कर वहाँ पहुंचे, जहां से चौदह किमी दूर स्थित प्रपात के लिए पर्यटकों को ले जाया जाता है तो पता चला कि अक्तूबर माह से ही यात्रा आरम्भ होती है, फ़िलहाल कुछ बाइकर यात्रियों को रेलवे ट्रैक के किनारे-किनारे पत्थरों पर बाइक चला कर ले जाते हैं, हिम्मत करके हम भी बाइक पर बैठे पर दो किलोमीटर की रोमांचक यात्रा के बाद ही लौटना पड़ा, रास्ता बहुत खतरनाक था और बाइकर काफी तेज चला रहे थे. सागर में पानी में होने वाले रोमांचक खेल भी अभी बंद हैं, अक्तूबर के बाद ही गोवा में आधिकारिक तौर पर पर्यटन समय का आरम्भ होता है.

गोवा में बहुत पुराने कई हिंदू मंदिर हैं, दूध सागर तक न जा पाने का दुःख दूर करने का उपाय था कि मंदिर में जाकर दर्शन करके पुनः उत्साहित हो जाएँ. ड्राइवर हमें अति प्राचीन व भव्य शांता दुर्गा मंदिर ले गया. जो गोवा की राजधानी पंजिम से तेतीस किमी दूर पोंडा तालुका में स्थित है. रास्ते से फूल माला खरीदी, यहाँ छोटे-छोटे सफेद कमल के फूल बहुतायत में उगते हैं, उन्ही की मालाएं व गुलदस्ते जगह जगह बिक रहे थे. पौराणिक कथा है कि जब शिव और विष्णु में विवाद हो गया तो उन्हें शांत करने के लिए देवी ने शांता दुर्गा का रूप धरा. मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही एक श्वेत दीप स्तम्भ दिखाई पड़ता है.  मंदिर की छतें पिरामिड के आकार की लाल रंग की हैं. यहाँ की वास्तुकला पर पुर्तगाली प्रभाव स्पष्ट दीखता है. मुख्य कक्ष की दीवारों पर चांदी मढ़ी है जिस पर सुंदर चित्र बने हैं. हमने सुना कि सोने की एक पालकी भी वहाँ है जहां उत्सव के अवसर पर देवी को ले जाया जाता है. मंदिर के भोजनालय में ही प्रसाद जैसा सात्विक भोजन ग्रहण किया. वापसी में घर ले जाने के लिए कुछ उपहार खरीदे.

गोवा के मंदिरों की पहचान दीप स्तम्भ 
वहाँ से हम गोवा के दूसरे प्रसिद्ध मंदिर मंगेश मंदिर गए. वास्तुकला में यह शांता दुर्गा मंदिर के समान ही है. यहाँ स्वच्छता अधिक थी. चांदी का प्रयोग यहाँ भी बहुत ज्यादा किया गया है. वहाँ से लौटे तो शाम के चार बज चुके थे. थकान से आँखें बोझिल हो रही थीं. लगभग दो सौ किमी की यात्रा हमने कार में की थी. बिस्तर में पड़ते ही नींद आ गयी, ऐसा आराम महसूस हुआ जो कड़े श्रम के बाद गांव के किसान को होता होगा. एक घंटा सोकर शाम के उद्घाटन कार्यक्रम के लिए तैयार हुए साढ़े छह बजे हम हयात होटल पहुंचे. चाय का वक्त था. पाव भाजी, सैंडविच, बिस्किट, ब्राउन ब्रेड, जिसको जो मन भाये वह ले सकता था. सात बजे हम हॉल में बैठे, कई गणमान्य व्यक्ति वहाँ थे, कई कम्पनियों के निदेशक, ओएनजीसी के वासुदेव मुख्य अतिथि थे. नेस ( national association of corrosion engineer )के यू एस अध्यक्ष केविन थे. शिपिंग के हाजरा थे. कई लोगों ने अपने भाषण दिए उसके बाद भोजन था. पतिदेव के साथ इस कांफ्रेंस में भाग लेने का अवसर मुझे भी मिल गया था, ज्यादातर लोग सूटेड बूटेड थे पर कुछ यहाँ भी टी शर्ट पहन कर आ गए थे. टाटा स्टील जमशेदपुर से आयी एक महिला ने मेरे पास आकर असम की पारम्परिक पोशाक को पहचानते हुए बात करनी शुरू कर दी, वह ऐसे बात कर रही थी जैसे पुरानी परिचित हो. लौटे तो दस बज गए थे. 
क्रमशः

गुरुवार, अक्तूबर 18

कुछ सुनहरे पल गोवा में


प्रिय ब्लॉगर साथियों
पिछले माह के अंतिम सप्ताह में मुझे गोवा जाने का सुअवसर मिला, डायरी लिखने की आदत के चलते उस यात्रा के अनुभव मैंने शब्दों और चित्रों में बटोर लिए, अब आपसे उन्हें साझा करने आयी हूँ. आशा है आप भी इसे पढकर भारत के इस सुंदर प्रदेश के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और हो सकता है यह विवरण आपकी अगली यात्रा के लिए प्रेरक भी सिद्ध हो. तो प्रस्तुत है डायरी की पहली प्रविष्टि -


गोवा की यह हमारी दूसरी यात्रा है, ९९ दिसम्बर में हम तीन परिवार दक्षिण भारत की यात्रा करके मुम्बई होते हुए गोवा पहुंचे थे. उस बार हम ओल्ड गोवा के सरकारी पर्यटक भवन में ठहरे थे, कहीं भी जाना होता तो आधे घंटे की पणजी(गोवा की राजधानी) तक की यात्रा बस से करनी पडती थी, अक्सर बस भरी हुई होती थी और मछली बेचने वाली महिलाएं अपनी खाली या भरी टोकरी लेकर उसी बस में यात्रा करती मिलतीं थीं, आधा घंटा नाक बंद करके या खिड़की से मुँह बाहर निकाल कर बैठना पड़ता था. अब यदि किसी का मछली से परिचय मात्र एक्वेरियम के कांच के पीछे से ही हुआ हो, उससे इस गंध को सहने की उम्मीद करना ज्यादती ही होती. दूसरी घटना थी ‘स्पाइस प्लान्टेशन’ की, (गोवा अपने मसालों के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध है) जहां कन्डक्टेड टूर के दौरान हमें ले जाया गया था, दोपहर का भोजन भी वहीं करना था, भोजन के समय हमारे ग्रुप में से किसी ने कहा कि दाल में मछली की आँख जैसा कुछ है, मुझे जैसे उबकाई आने लगी, किसी तरह सादे चावल खाकर निकल आई और मन ही मन संकल्प लिया कि अब कभी मैं गोवा नहीं आऊँगी. लेकिन बारह वर्ष बाद हम पुनः गोवा जा रहे हैं. हवाई अड्डे पर पहुंचे ही थे कि तेज वर्षा आरम्भ हो गयी. हवाई अड्डे के कर्मचारियों द्वारा दिए गए एक जैसे रंगीन बड़े छातों को लेकर यात्री आने वाली उड़ान से आ रहे थे. बादलों के ऊपर जब जहाज उड़ रहा था तो उनकी सुंदर आकृतियाँ मोह रही थीं. उतरे तो कोलकाता की चौड़ी सडकें, फ्लाईओवर, ऊँची-ऊँची इमारतें और बड़े-बड़े होर्डिंग देखकर भारत के विकास की एक तस्वीर दिखी.

कितना सन्नाटा है यहाँ कोलकाता के इस शानदार होटल की आठवीं मंजिल के कमरे में, कितना सुकून भरा सन्नाटा..अपने भीतर की सब आवाजें आ रही हैं. हमारी आवाज इस सन्नाटे में गूंज रही है. कल सुबह हमें गोवा जाना है. अभी कुछ देर पूर्व हम भोजन करके आये. घर पर होते तो दाल, रोटी व एक सब्जी खाते, यहाँ चार तरह की सब्जियाँ, सूप, सलाद, तंदूरी रोटी और तरह-तरह की  स्वीट डिशेज...तभी तो यात्रा का इतना आकर्षण है. सुबह पाँच बजे उठे, रात भर मिठाई बाँटने के स्वप्न देखती रही.


बागा मेरिना होटल 
 गोवा के लिए जहाज ने उड़ान भरी तो आकाश फिर बादलों से भरा था. ऊपर से धरा की हरीतिमा व इमारतें अनोखी लगती हैं. सागर व जंगल के ऊपर से उड़ते हुए दोपहर को हम गोवा पहुंचे. यहाँ का होटल ‘दी बागा मेरिना’ भी बहुत सुंदर है, हमारा कमरा भी काफी बड़ा व खुला है. सौदामिनी, रेस्टोरेंट होस्टेस बहुत मृदुभाषी है, उड़ीसा की रहने वाली है. वैसे यहाँ के स्टाफ में सभी बहुत सहयोग करने वाले हैं.
शाम को हम ‘बागा बीच’ यानि निकटतम समुद्र तट पर पहुंचे. जहाँ बहुत चहल-पहल थी. सागर की लहरें डूबते हुए सूर्य की लालिमा में बहुत सुंदर लग रही थीं. पानी की लहरों में घुटनों तक पैर डाले हम अँधेरा होने तक टहलते रहे फिर लौट आए. होटल के आस-पास का छोटा सा बाजार देखा, यात्रा के दौरान काम आने वाली छोटी-मोटी वस्तुएं खरीदीं. रात्रि भोजन के बाद होटल के लॉन में ही टहलते रहे. जहाँ सुंदर फूलों के वृक्ष, पौधे और तरण ताल है. सुबह उठकर प्रातः भ्रमण के लिए पुनः समुद्र तट पर गए. रास्ते में जगह-जगह शराब की दुकाने हैं, स्पा हैं, टैटू बनाने के केन्द्र हैं, पर्यटकों के लिए अतिथि घर हैं. गोवा में लगभग चालीस समुद्र तट हैं, दुनिया के हर हिस्से से लोग यहाँ की सुंदरता से आकर्षित होकर आते हैं.


बागा बीच 
कोंकण क्षेत्र में स्थित क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का सबसे छोटा और जनसंख्या के हिसाब से दूसरा सबसे छोटा राज्य है गोवा. साढ़े चार सौ वर्षों तक यहाँ पुर्तगालियों का शासन रहा, दिसम्बर १९६१ में ही यह भारत का अंग बना. महाभारत कल में यह गोपराष्ट्र के नाम से जाना जाता था, संस्कृत में इसे गोप पुरी या गोपकपट्टन कहा जाता था. धर्म परिवर्तन के अनेकानेक प्रयासों के बावजूद भी यहाँ की मूल संस्कृति का विनाश नहीं हुआ.
क्रमशः


शनिवार, अक्तूबर 13

नहीं अचानक मरता कोई


नहीं अचानक मरता कोई


नव अंकुर ने खोली पलकें
घटा मरण जिस घड़ी बीज का,
अंकुर भी तब लुप्त हुआ था
अस्तित्त्व में आया पौधा !

मृत्यु हुई जब उस पौधे की
वृक्ष बना नव पल्लव न्यारे,
यौवन जब वृक्ष पर छाया
कलिकाएँ, पुष्प तब धारे !

किन्तु काल न थमता पल भर
वृक्ष को भी इक दिन जाना है,
देकर बीज जहां को अपना
पुनः धरा पर ही आना है !

नहीं अचानक मरता कोई
जीवन मृत्यु साथ गुंथे हैं,
पल-पल नव जीवन मिलता है
पल-पल हम थोड़ा मरते हैं !

शिशु गया, बालक जन्मा था
यौवन आता, गया किशोर
यौवन भी मृत हो जायेगा
मानव हो जाता जब प्रौढ़ !

वृद्ध को जन्म मिलेगा जिस पल
कहीं प्रौढता खो जायेगी,
नहीं टिकेगी वृद्धावस्था
इक दिन वह भी सो जायेगी

पुनः शिशु बन जग में आये
एक चक्र चलता ही रहता,
युगों-युगों से आते जाते
जीवन का झरना यह बहता !

गुरुवार, अक्तूबर 11

जीना इसी का नाम है


जीना इसी का नाम है 

अँधेरे कमरे में
बंद आँखों से
खाते हुए ठोकरें
वे चल रहे हैं
और इसे जीना कहते हैं...

बाहर उजाला है
सुंदर रास्ते हैं
वे अनजान हैं
इस शहर में
सो बाहर नहीं निकलते हैं....

जाने क्या आकर्षण
है इस पीड़ा में
कि दुःख को भी
बना लेते हैं साथी
बड़े एहतियात से
बना कर घाव
उस पर मरहम धरते हैं..

पुकारता है अस्तित्त्व
वह प्रतीक्षा रत है
कैसा आश्चर्य है
सीमाओं में बंधा हर मन
फड़फड़ाता है अपने पंख
पिंजरे में बंद पंछी की तरह
पर द्वार पिंजरे का
खोले जाने पर भी
नहीं जाता बाहर
अपने सलीबों से वे बंधे रहते हैं

रविवार, अक्तूबर 7

नहीं, यह मंजिल नहीं है



नहीं, यह मंजिल नहीं है  

नहीं, यहाँ राजपथ नहीं हैं
पगडंडियाँ हैं, जो खो गयी हैं कंटीले झाड़ों में
स्वयं निर्मित मार्ग पर ही बढ़ सकेंगे
नहीं खोजना है चिन्ह कोई
छोड़ गया हो जो, कोई राहगीर
अनजाने मार्गों से प्रवेश करेंगे..

नहीं, कंटक दुखद नहीं हैं
यदि बच के निकल सकेंगे
घाटियों से गुजर कर ही पाएंगे शिखर..

नहीं, यह मंजिल नहीं है
द्वार है केवल, जिससे होकर गुजरना है
छोड़ देना होगा ताम-झाम बाहर ही
द्वार संकरा है यह
समय भी छूट जायेगा बाहर
क्षुद्र सब गिर जायेगा
धारा के साथ जब बहेंगे
पंख बिना ही तब उडेंगे..

नहीं, यहाँ पाना नहीं है कुछ
अनावरण करना है उसे जो है
व्यापार नहीं करंगे जो प्रेम में
वही उसकी गहराई में उतर सकेंगे..

गुरुवार, अक्तूबर 4

कवि अनुराग अनंत का काव्य संसार


खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि अनुराग अनंत इस कड़ी के अगले हस्ताक्षर हैं. इलाहबाद के रहने वाले अनंत ने लखनऊ से पत्रकारिता की पढ़ाई की है,  समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं, रंगमंच से भी इनका जुड़ाव है. इनके दो ब्लॉग हैं- अनंत का दर्द-http//:anantsabha.blogspot.in तथा अनंत की गजल- http//:anuraganant.blogspot.in
इस संग्रह में कवि की छह रचनायें हैं.  जर्जर किले के पीछे, बापू तुम्हारी मुस्कुराती हुई तस्वीर, उम्र के अठारह वसंत पार करके, खुद-ब-खुद तीन लम्बी कवितायें हैं, जिनमें समाज और राज्य की विसंगतियों की ओर कई प्रश्न उठाये हैं.  तीन अन्य कवितायें हैं- काश, बापू तुम्हारा नाम गाँधी न होता, मैंने माँ को देखा है, मैंने कलम उठायी है. इनकी कविताओं की विषय वस्तु समाज और देश है.
जर्जर किले के पीछे पढते हुए पाठक उन सवालों से खुद को घिरा पाता है, जो देश और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से पैदा होते हैं-

शहर के एक छोर में,
एक जर्जर किले के पीछे,
बूढ़े बरगद के नीचे
डूबते सूरज से लाल होती नदी के किनारे,
एक उठान पर,
गिरा पड़ा रहा हूँ मैं
कई कई शाम
सवाल चारों तरफ बच्चों सा खेलते रहे हैं,
...

चेहरों की झुर्रियों,
पेशानी की सिलवटों,
जुबान की अकुलाहटों,
और जिंदगी की झंझटों में,
..
लिपटे हुए
सवाल ?
जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ
किस तरफ हूँ मैं?
तनी संगीनो की तरफ
या उन हाथों की तरफ
जिन्होंने संगीनों के जवाब में,
पत्थर उठाये हैं
..
मेरा तिरंगा कौन सा है ?
संसद, लाल किले,
जिंदल. अम्बानी, टाटा-बाटा, बिरला
के महलों पर लहराता
..
या-भूखी नंगी काया के हाथों में
उम्मीद के तीन रंगों वाला
..
मेरा देश कौन सा है
कंक्रीट के ऊँचे-ऊँचे जंगलों में,
भावनाओं को ठगता
..
रोटियां छीन कर बोटियाँ चबाता
इण्डिया या जल, जमीन, जंगल में मुस्काता,
जिंदगी में लिपटा
..
खून, पसीना, आँसू बहाता
हिन्दुस्तान
मेरा देश कौन सा है ?
..
सवाल जवाब मांगते हैं
सख्ती के साथ 
एक कदम चलना भी
मुश्किल है साथी
..
इन जवाबों में मेरा एक भी जवाब नहीं है
सारे के सारे अवैध हैं
नाजायज हैं

हार कर अब नहीं जाता
उस जर्जर किले के पीछे
..
मैं सवालों से भाग रहा हूँ
शायद इसलिए भीतर से मर रहा हूँ
जीने के लिए सवाल जरूरी हैं

काश बापू, तुम्हारा नाम गाँधी न होता व बापू तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर ये दोनों कवितायें कवि मन की करुणा को व्यक्त करती है, बापू के प्रति हृदय में प्रेम की भावना समेटे कवि आज के समाज की विडम्बनापूर्ण स्थिति से गुजरता है जहाँ नोट पर तो गाँधी की मुस्कुराती तस्वीर दिखाई देती है, पर उनके आदर्शों को हम भूल गए हैं. बापू की तस्वीर के सामने ही सारे अपराध किये जाते हैं.

काश बापू, तुम्हारा नाम गाँधी न होता

गाँधी जी से प्रेम है मुझे
...
मगर ये भी सच है कि गाँधी जी का नाम सुनते ही
मेरे मन में भर जाता है, एक लिजलिजा सा कुछ
..
गाँधी जी के नाम में गांधारी छिपी है
जो अंधे धृतराष्ट्र की पट्टी खोलने के बजाय
स्वयं अंधी पट्टी बांध लेती है
..
मुझे लगता है कि गाँधी गाँधी न होते
गर उनका नाम गाँधी न होता
इस गाँधी नाम ने उन्हें
गांधारी बना डाला
और राष्ट्र को धृतराष्ट्र.

बापू तुम्हारी मुस्कुराती तस्वीर

बापू तुमने कभी हिंसा नहीं की
सब कहते हैं
पढते हैं
जानते हैं
सीखते हैं
सब क सब झूठे हैं
मुझे माफ़ करना बापू
मैं यह सच कहूँगा
कि तुमने बहुतों को मारा है
मरवाया है

विदर्भ में हजारों किसानों ने फांसी लगा ली
क्योंकि तुम्हारी हरे पत्तों पर छपी
मुस्कुराती तस्वीर नहीं थी उनके पास

...
तुम निष्ठुर – निर्दयी थे कि नहीं
मुझे नहीं मालूम
पर तुम्हारी तस्वीर निष्ठुर और निर्दयी है
...
तुम्हें पाने ले लिए गरीब अपने तन से लेकर मन तक बेच देता है
पर तुम उसके हक के बराबर भी उसे नहीं मिलते
...
तुम्हारी हँसती हुई तस्वीर से चिढ है मुझे
थाने से लेकर संसद तक जहां भी
मेहनतकशों पर जुल्म ढाये जाते हैं
तुम हंसते हुए पाए जाते हो

जब गरीब तुम्हारी कमी से
अपना मन कचोट रहा होता है
तुम हँसते मिलते हो
..

किसी ने सही कहा है, क्योंकि ईश्वर हर जगह नहीं पहुंच सकता इसलिए उसने माँ को बनाया, माँ ही बच्चे को दुनिया में लाती है, जद्दोजहद से गुजरकर वह उसे दृष्टि देती है, सपने भरती है और एक नई दुनिया गढ़ने का साहस देती है. यह कविता हर माँ की व्यथा को शब्द देती हुई सी लगती है..
मैंने माँ को देखा है

मैंने माँ को देखा है
तन और मन के बीच किसी नदी की तरह
मन के किनारे पर निपट अकेले
और तन के किनारे पर
किसी गाय की तरह बंधे हुए
मैंने माँ को देखा है
..
जाड़ा, गर्मी, बरसात,
सतत् खड़े किसी पेड़ की तरह
..
किसी खेत की तरह जुतते हुए
किसी आकृति की तरह नपते हुए
घड़ी की तरह चलते हुए
...
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए
मैंने माँ को देखा है

पर..माँ को नहीं देखा है
कभी किसी चिड़िया की तरह उड़ते हुए
खुद के लिए लड़ते हुए
बेफिक्री से हंसते हुए
अपने लिए जीते हुए
अपनी बात करते हुए
मैंने माँ को कभी नहीं देखा
मैंने बस माँ को माँ होते देखा है.


यूँ तो संविधान ने हर वयस्क को वोट का अधिकार दिया है, लेकिन उस अधिकार का प्रयोग करने के बाद भी जब समाज में अन्याय खत्म नहीं होता दीखता, तो हर उस युवा का मोहभंग होता है, जो सोचता है कि वह इस अधिकार से कुछ पा गया है...   
उम्र के अठारह वसंत पार करके, खुद-ब-खुद

सब कहते हैं
मेरे पास कुछ है
...
बड़ी ताकतवर चीज है वो
संसद चलाती है
सरकार बनाती है
बड़े-बड़े सूरमा
हाथ जोड़ते हैं
मेरे सामने
..
कि मैं अपने खुरदुरे हाथों से
दे दूँ उन्हें वो चीज
जिसे मैंने पा लिया था
..
मुझे यकीन नहीं होता
कि मेरे पास कुछ है
..
जिसकी कुछ कीमत है
..
बल्कि हर बार ऐसा लगता है कि
आश्रित होने का झूठा भ्रम रचा जाता है
लोकतंत्र की रीढ़विहीन लाश का
बचा हुआ खून चूसने के लिए
...
नया शोषक नए तरीके से
नए जोश और रणनीति के साथ
उम्र के अठारह वसंत पार करके
..
हर बार मुझे लगा है
नपुंसक हूँ मैं
जो नहीं सम्भाल पाया
वो कीमती चीज
जो पा लिया था
छीन लिया शोषक ने
और कर रहे हैं शोषण लोकतंत्र की लाश का
बदल कर चाल-चेहरा
भाषा, रंग और झंडा
खड़े हैं चारों तरफ बदले हुए
..
छीन लेंगे इस बार भी मुझसे
वो चीज जिसे मैंने पाया था
उम्र के अठारह वसंत पार करके
खुद-ब-खुद

कवि कर्म का लक्ष्य क्या है, कोई स्वांत सुखाय लिखता है और दूसरा समाज को राह दिखाने के लिए अथवा तो परिवर्तन की लहर लाने के लिए..इस अंतिम कविता में कवि सत्य के प्रति प्रतिबद्दता व्यक्त करता है, सत्य के लिए वह मर मिटने को तैयार है.

मैंने कलम उठाई है

मेरी कब्र खोदने के लए ही मैंने कलम उठाई है
कुदाली की तरह खोदेगी ये मेरी कब्र
चीटियों के कंधे पर चढ़ कर मैं पहुंचूंगा
उस जगह
जहां मैं आजाद हूँ जाऊंगा
मुसलसल चली आ रही कैद से


..
झंडे के नीचे जमे अँधेरे के खिलाफ
दिया बनने के लिए कलम उठायी है मैंने
ये जानते हुए कि अदना ही सही पर
बड़ा गहरा है ये अँधेरा
..
ये अच्छी तरह जनता हूँ मैं
पर मैंने तय कर लिया है
मैं खुद को मारूंगा
मैंने तय कर लिया है
इस झूठी दुनिया में में सच बोलूँगा.

कवि अनुराग अनंत की रचनाएँ जहाँ एक ओर मन को झिंझोड़ती हैं वहीं एक नया जोश भी भरती हैं, समाज और देश में चल रहे अन्याय और असमानता के प्रति विद्रोह व्यक्त करने का मार्ग दिखाती हैं. आशा है आप सभी सुधी पाठक जन इन्हें पढ़कर अवश्य स्पंदित होंगे.