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मंगलवार, अप्रैल 1

अंतहीन सजगता

अंतहीन सजगता 


अपने में टिक रहना है योग  

योग में बने रहना समाधि 

सध जाये तो मुक्ति  

मुक्ति ही ख़ुद से मिलना है 

हृदय कमल का खिलना है 

क्योंकि ख़ुद से मिलकर  

उसे जान सकते हैं 

‘स्व’ से शुरू हुई यात्रा इस तरह 

‘पर’ में समाप्त होती  

पर थमती वहाँ भी नहीं 

जो अनंत है 

अज्ञेय है 

उसे जान 

कुछ भी तो नहीं जानते 

यही भान होता  

अध्यात्म की यात्रा में 

हर पल एक सोपान होता 

हर पल चढ़ना है 

सजग होके बढ़ना है 

कहीं कोई लक्ष्य नहीं 

कोई आश्रय भी नहीं 

अंतहीन सजगता ही

अध्यात्म है 

यही परम विश्राम है 

यहीं वह, तू और मैं का

 संगम है 

यहीं मिट जाता 

हर विभ्रम है ! 


शुक्रवार, जून 30

आधा-आधा


आधा-आधा

मेरा होना ही 

‘मेरे’ होने में सबसे बड़ी बाधा है 

कृष्ण हुए बिना 

जो कृष्ण से मिलन कराये 

वही राधा है 

जगत उसी का रूप है 

ऐसा नहीं कि 

  जगत एक व ईश्वर दूसरा है 

जो दिखता है 

वह ‘मैं’ नहीं हो सकता 

यही तो योग ने साधा है !



बुधवार, अगस्त 19

योग और प्रेम

योग और प्रेम 

 

जानने की इच्छा 

खुद को जानने की 

यदि जानने वाले की इच्छा बन जाये 

अर्थात ज्ञाता यदि स्वयं को जानने की इच्छा करे 

तो जो क्रिया करनी होगी उसे 

वही तो योग है !

 

जानने वाला यदि श्याम हो 

जानने की इच्छा राधा है 

जानने की क्रिया ही तो प्रेम है !

 

श्याम को इच्छा जगी स्वयं को देखे 

वह इच्छा ही राधा है 

वह देखना ही प्रेम है !

 

 शिव को इच्छा जगी सृष्टि करे 

वह इच्छा ही ‘शक्ति’ है 

राधा बने तो स्वयं को देखा 

शक्ति बने तो सृष्टि की 

सृष्टि की रचना भी प्रेम ही है !

 

रविवार, जून 21

योग तभी घटता जीवन में


योग तभी घटता जीवन में 



टुकड़ा-टुकड़ा मन बिखरा जो 
जुड़ जाता जब हुआ समर्पित 
योग तभी घटता जीवन में 
सुख-दुःख दोनों होते अर्पित ! 

योगारुढ़ हो युद्ध करो तुम 
कहा कृष्ण ने था अर्जुन को, 
जीवन भी जब युद्ध बना हो 
योगी हर मानव क्यों ना हो ? 

योगी का मन एक शिला सा 
दुई में जीता है संसार, 
मंजिल एक, एक ही रस्ता 
लेकर जाए योग भव पार !

देह की हर वेदना जाने 
मन के स्पंदन को भी पढ़ता,
योगी कुशल कर्म में होकर 
हुआ साक्षी निज में रहता !

नित्य-अनित्य का संज्ञान है 
सुख के पीछे दुःख को लख ले, 
मैत्री, करुणा, मुदिता आदि  
अंतर के कण-कण में भर ले !




शुक्रवार, मई 15

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें 


जितना दिया है अस्तित्त्व ने 
कहाँ करते हैं हम उतने का ही उपयोग 
‘और चाहिए’ की धुन में व्यस्त रहता मन 
देख ही नहीं पाता पूर्व का योग !

धारते आये हैं जिन्हें 
उन शक्तियों को पहचानते नहीं  
 जिनका अनंत स्रोत 
भर दिया अस्तित्त्व ने 
उन्हें खर्च करना जानते नहीं 
 वर्षों से कोई उपयोग नहीं 
किया, क्यों न उसे निकालें 
जिसे हो आवश्यकता 
अच्छा हो वही संभालें !

घर आंगन की हर इक शै से 
रोज का मिलना-जुलना हो 
मन की नदी  बहेगी नहीं 
तो कैसे उसमें कमल का खिलना हो 
नहीं तो कौन अदृश्य वहां बना लेगा डेरा 
हम जान ही नहीं पाएंगे 
फिर अपने ही घर में जाने से घबराएंगे !

मन बहती हुई नदी की तरह 
बांटता रहे अपनी शीतलता और ताजगी 
हाथ वह सब करें जिसकी जरूरत है 
न कि बाट जोहें, किसी के आने की 
कदम बढ़ते रहें जब तक चल रही है श्वास  
ताकि मिलन हो जब अस्तित्त्व से 
तो डाल सकें उसकी आँख में आँख !

रविवार, अप्रैल 12

अमर आत्मा का सुगीत फिर


अमर आत्मा का सुगीत फिर 


हम अनुशासन पर्व मनाएं 
भारत की अस्मिता बचाएं,
अमर आत्मा का सुगीत फिर 
मिलकर गोविन्द संग गायें !

मृत्यु से नहीं डरे भारती 
गीत प्रलय के नित्य सुनाएँ,
आज उसी गौरव गाथा को 
निज शक्ति से फिर दोहराएं !

युग परिवर्तन का चले यज्ञ  
दे आहुति कर्त्तव्य निभाएं, 
बार-बार इस भू पर लौटें 
मात प्रकृति को शीश झुकाएँ  !

आयु दीर्घ हो यही न माँगें 
भीतर गहरा बोध जगाएं, 
आत्मशक्ति का करें जागरण 
घर-घर दीपक योग जलाएं !

अनुशासन का पालन करके 
दुनिया को नव मार्ग सुझाएँ, 
भारत की संस्कृति अपूर्व है 
इस सच को जीकर दिखलाएँ !


शनिवार, जून 22

योग करो


योग करो


ख़ुशी से जीना यदि चाहते
शांति हृदय की सदा खोजते
तन निरोग बने, यदि मांगते
योग करो !

दूर अकेलापन करने को
उर का खालीपन भरने को
तन की हर पीड़ा हरने को
योग करो !

अति समृद्धिशाली होने को
दिल की हर कटुता धोने को
नये स्वप्न मन में बोने को
योग करो !

मैत्री का उपवन खिलाने
जग को अपना मीत बनाने
धार प्रीत की मधुर बहाने
योग करो !

अद्वैत का स्वाद हो लेना
उर सागर में गहरे जाना
ध्यान सहज यदि चाहो पाना
योग करो !


शुक्रवार, जनवरी 26

जैसे चन्द्र चमकता नभ में



गणतन्त्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित 

जैसे चन्द्र चमकता नभ में


भूमंडल पर देश सैकड़ों
भारत की है बात निराली,
जैसे चन्द्र चमकता नभ में
दिपदिप भारत की फुलवारी !

जिओ और जीने दो’ का यह   
मन्त्र सिखाता सारे जग को,
योग शक्ति से खुद को पायें
राह दिखाता हर मानव को !

प्रकृति का सम्मान करें सभी
शांति पाठ का गायन निशदिन,
मूषक, मोर, बैल वन्दित हैं
हर प्राणी का स्थान है उचित !

गौरवशाली परंपरा है
देवों से साहस पाता है,
सृष्टि के कई भेद जानता
युद्धों में गीता गाता है

मेधा, प्रज्ञा, समझ जगाता
सुप्त चेतना परम जगाकर,
दुनिया में परचम लहराता
वैदिक संस्कृति को पुनः लाकर !

भारत देश जवानों का है
श्रमिकों और किसानों का है,
जागरूक महिलाओं का भी
अलबेले दीवानों का है !

गुरुवार, अक्टूबर 1

बापू की पुण्य स्मृति में

बापू की पुण्य स्मृति में


रामनाम में श्रद्धा अटूट, सबका ध्यान सदा रखते थे
माँ की तरह पालना करते, बापू सबके साथ जुड़े थे !

सारा जग उनका परिवार, हँसमुख थे वे सदा हँसाते
योग साधना भी करते थे, यम, नियम दिल से अपनाते !

बच्चों के आदर्श थे बापू, एक खिलाड़ी जैसा भाव
हर भूल से शिक्षा लेते, सूक्ष्म निरीक्षण का स्वभाव !

निर्धन के हर हाल में साथी, हानि में भी लाभ देख लें
सोना, जगना एक कला थी, भोजन नाप-तोल कर खाते !

छोटी बातों से भी सीखें, हर वस्तु को देते मान
प्यार का जादू सिर चढ़ बोला, इस की शक्ति ली पहचान !

समय की कीमत को पहचानें, स्वच्छता से प्रेम बहुत था
मेजबानी में थे पारंगत, अनुशासन जीवन में था !

पशुओं से भी प्रेम अति था, कथा-कहानी कहते सुनते
मितव्ययता हर क्षेत्र में, उत्तरदायित्व सदा निभाते !

मैत्री भाव बड़ा गहरा था, पक्के वैरागी भी बापू
थी आस्था एक अडिग भी, बा को बहुत मानते बापू !

विश्राम की कला भी सीखी, अंतर वीक्षण करते स्वयं का
एक महान राजनेता थे, केवल एक भरोसा रब का !

अनासक्ति योग के पालक, परहित चिन्तन सदा ही करते
झुकने में भी देर न लगती, अड़े नहीं व्यर्थ ही रहते !

करुणा अंतर में गहरी थी, नव चेतना भरते सबमें
प्रेम करे दुश्मन भी जिससे, ऐसे प्यारे राष्ट्रपिता थे !


सोमवार, जनवरी 19

शहंशाहों की रीत निराली

शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !

व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !

श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !

किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !

तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !

जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?

कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !

वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !

इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !

शुक्रवार, जुलाई 25

अन्तरिक्ष का नहीं है छोर

अन्तरिक्ष का नहीं है छोर


तुझसे ही है जग में हलचल
तू है, तू ही खलबल मन की,
तू ही जीवन का कारण है
तू वजह हर एक उलझन की !

युद्ध जहाँ हो रहा वहाँ भी
तेरे नाम पर लड़ते लोग,
तप में लीन तपस्वी योगी
तुझसे ही लगाते योग !

शीतलतम हिमखड हैं कहीं
ज्वालामुखी कहीं फटते हैं,
कहीं लपकती तलवारे हैं
कहीं शंखनाद बजते हैं !

एक द्वंद्व से ग्रसित है सृष्टि
दिवस उजाले रात्रि भी घोर,
सागर की असीम गहराई
अन्तरिक्ष का नहीं है छोर !

भू के भीतर बहता लावा
शीश हिमानी सा शीतल,
मीलों रेगिस्तान बिछे हैं
कोसों तक फैला है जल !

दो ही दष्टि में आते हैं
दो पर ही यह माया टिकती,
एक तत्व है पीछे इसके
जिस पर सबकी नजर न जाती !

दोनों पल-पल साथ जी रहे
सन्त और असंत यहाँ पर,
पूजा और प्रार्थना घटती
संग ही होते युद्ध जहाँ पर !