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गुरुवार, जून 19

ऊर्जा

ऊर्जा 


ऊर्जा बहुत है, कर्म  कम 

ऊर्जा अहंकार बन जाएगी 

ऊर्जा कम है, कर्म अधिक 

ऊर्जा तनाव बन जाएगी 


ऊर्जा अति है कर्म भी अति 

ऊर्जा संतुष्टि बन जाएगी 

ऊर्जा अनंत है कर्म अति या अल्प

ऊर्जा आनंद बन जाएगी 


अधिक हो धन-दौलत तो 

अभिमानी हो जाता है आदमी 

कम हो धन तो तनाव से भर जाता है 

संपन्नता भी हो और श्रम भी जीवन में 

संतोष से भर जाता है 

किंतु धन बेहिसाब हो फिर भी 

 सदा खुश नहीं रह पाता 

इसलिए ऊर्जा क़ीमती है धन से 

ऊर्जा अर्थात आत्मा 

आत्मा अर्थात परमात्मा 

परमात्मा अर्थात सत्य, प्रेम और शांति ! 


बुधवार, जनवरी 15

राम में विश्राम या विश्राम में राम

राम में विश्राम या विश्राम में राम


भीग जाता है अंतर 

जब उस एक के साथ एक हो जाता है 

समाप्त हो जाती है 

कुछ होने, पाने, बनने की दौड़ 

जब हर साध उठने से पहले ही 

हो जाती है पूर्ण 

कुछ होने में अहंकार है 

कुछ न होने में आत्मा 

कुछ पाने में भय है खो जाने का 

छोड़ने में आनंद 

कुछ बनने में श्रम है 

 जो हैं उसमें विश्राम 

और विश्राम में है राम 

तब राम ही मार्ग दिखाते हैं 

पथ जीवन का सुझाते हैं 

ध्यान में मिलते 

जीवन में संग उन्हें पाते हैं 

संत जन इसी लिए एक-दूजे को 

‘राम राम जी’ कहकर बुलाते हैं ! 


बुधवार, दिसंबर 4

शून्यता

शून्यता 


‘कुछ होने’ की दौड़ छोड़कर 

जब जान लेता है कोई 

कि होना मात्र ही 

शुद्ध आनंद होना है 

तब भयमुक्त हो जाती है 

उसकी समृद्ध और तृप्त चेतना 

कुछ खोया नहीं और 

सब पा लिया जाता है 

अस्तित्त्व बरस उठता है 

आशीष बनकर

शीतल, नूतन मौन घेर लेता है  

जीवंत हो जाता है कण-कण 

पोषित होता सूर्य की किरणों से 

हवाओं और आकाश की असीमता से 

होती जाती है अधिक मानवीय 

और एक दिन 

शून्य बन जाता है मन 

कृतज्ञता भर जाती है पोर-पोर में 

उसके लिए  

 उसी के द्वार से आती है सदा

दिव्यता की झलक 

गंध अदृश्य की 

संगीत उस अमूर्त का 

फिर हर घड़ी उसी का दर्शन  

जैसे मीरा को श्याम का 

किसी झुरमुट या 

नीले-काले आकाश में 

घनश्याम को देखती  

वह मिट गई थी 

बस उसका होना मात्र था 

और होना मात्र ही 

शुद्ध आनंद होना है !


शुक्रवार, जून 21

वही चेतना वही बोध है


वही चेतना वही बोध है

चिन्मय बसा रहे मेधा में

योग्य वरण के एक ईश है,

जग यह मोहक रूप धर रहा

सुंदर उससे कौन शीश है !

 

उसे जानना पाना उसको

हो शुभ जीवन का लक्ष्य यही,

जिससे परम प्रपंच घटा है

महिमा सदा अनंत अगम की !

 

वही श्रेष्ठ विभु सुख का सागर

नीर, वायु, पावक का दायक, 

जड़ यह पाँच भूतों की सृष्टि

चेतन वही ज्ञान संवाहक !

 

उस चेतन का ध्यान धरें हम

उसके हित ही उसे भजें हम,

जग ही माँगा यदि उससे भी

व्यर्थ रहेगा यह सारा श्रम !

 

उसके सिवा न कोई दूजा

इन श्वासों का वही प्रदाता,

प्रज्ञामेधाधी उससे है

ज्ञान स्वरूप वही है ज्ञाता !

 

वही चेतना वही बोध है

उसका ही हो मन में चिंतन,

आनंद का स्रोत अजस्र है

स्फुरण सहज वही, वही स्पंदन !

 

अपनी महिमा वह ही जाने

मेधा में मणि जैसा दमके,

यही कामना है अंतर की

अपनी गरिमा में नित चमके !

 

सभी कारणों का वह कारण

खुद रहता है सदा अकारण,

सुंदर दुनिया एक रचायी

निज उजास का करने वितरण !

 

अहंकार कर जिस क्षण भूला

टूट गई वह डोर प्रीत की,

मन विवेक का थामे दामन

दुविधा छूटे हार-जीत की !

 

अविनाशी कण-कण में देखे

शाश्वत हर घटना के पीछे,

हर अंतर में छुपा पुरातन

मौन ध्यान में सहज निहारे ! 


मंगलवार, अप्रैल 4

मन - छाया


मन - छाया


छायाओं से लड़कर कोई 

जीत सका है भला आजतक 

सारी कश्मकश 

छायाएँ ही तो हैं 

उनके परिणामों से बंधे 

हम जन्म-जन्म गँवा देते हैं 

ज़रूरत है प्रकाश में खड़े होने की 

तब न कोई कारण है न परिणाम 

न कोई चाहत न अरमान 

मन को ख़ाली करना ही 

ज्योति की शरण में आना है 

सारा उहापोह जो न जाने 

कब से एकत्र किया है भीतर 

इसके-उसके,  

अपनों-बेगानों, 

दुनिया-जहान और 

खुद की कमज़ोरियों के प्रति 

सभी छायाएँ हैं मात्र 

जिन्हें सच मान बैठा है मन 

सच करुणा व प्रेम का वह स्रोत है 

जो प्रकाश से झरता है 

सहज आनंद का स्वामी 

जहाँ निर्द्वंद्व बसता है 

जो शिव का वास है 

वही तो देवी का कैलाश है !


रविवार, दिसंबर 4

लहरें और सागर



लहरें और सागर


लहर पोषित करती है स्वयं को 

सागर पूर्णकाम है 

लहार  चाह से भरी  है 

सागर  तृप्त  है

लहर दौड़ लगाती है 

शायद दिखाना चाहती है शौर्य तटों को 

सागर के सिवा कोई दूसरा नहीं 

दिखाए भी किसे 

लहर विशिष्ट है 

सागर निर्विशेष 

वह शुद्ध, बुद्ध 

मुक्त, तृप्त और आनंद स्वरूप है 

लहर की नज़र सदा अन्य पर रहती है 

सागर स्वयं में ठहरा है 

जब तक मिला नहीं सागर भीतर 

मन की लहर ही चलाती है 

सुख-दुःख झूले में झुलाती है 

सागर जुड़ा है अस्तित्व से 

लहर दूरियाँ बढ़ाती है 

सदा किसी तलाश में लगी 

कुछ न कुछ पाने की जुगत लगाती 

सागर में होना 

जगत नियंता के चरणों में बैठना है 

लहर से सागर की खोज एक यात्रा है 

 आनंद से भर  सकता है 

इस यात्रा का हर पल

यदि कोई लहर थम जाए 

और जान ले अपना सागर होना

 पल भर के लिए  !


रविवार, नवंबर 20

एक पुकार मिलन की जागे


एक पुकार मिलन की जागे

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कैसे सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल जायेंगे उद्यान  भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े  को गाले !

शनिवार, अक्टूबर 29

तंतु प्रेम का

तंतु प्रेम का 


कितना भी हो 

पीढ़ियों का अंतर 

उन्हें प्रेम का तंतु जोड़े रहता है 

क्या कहें, कितना कहें 

यह ज्ञान नहीं होता 

जब अहंकार के तल से बोलता है मन 

वहाँ आत्मा को मुखर होना पड़ता है 

कभी-कभी शस्त्र उठाने पड़ते हैं अर्जुन को  

और कृष्ण को सारथी बनाना पड़ता है ! 

सही को सही,  ग़लत को ग़लत 

कहने का साहस यदि भीतर नहीं है 

तो जीवन के मर्म तक नहीं पहुँच सकते 

यदि अपने भीतर झाँक कर 

खुद को नहीं बदल पाए कोई 

 नहीं मिल सकता उस आनंद से

जो सबका प्राप्य है 

और बन सकता सहज ही भाग्य है 

जीवन नाम है परिवर्तन का 

पल-पल संवरने और मन के जागरण का 

उस प्रकाश  में नज़र आता है 

प्रेम का तंतु 

जो वैसे छुपा रहता है ! 




सोमवार, मई 16

नहीं चाहिए

नहीं चाहिए 


किसी को नहीं चाहिए 

कोई भी दुःख, पीड़ा या उलझन 

मिला भी है उसे हज़ार बार प्रेम का वर्तन !

पर याद करता है केवल उदासी के लम्हे

सुख के सूरज की छवि बने भी तो कैसे  

सुस्वप्नों की स्मृति कहाँ आई  

 पर झट जमा लेता है दुःख की काई 

सुरति से स्वच्छ करना होगा  

फिर आशा और विश्वास का जल भरना होगा 

उर आनंद लहरियाँ स्वतः उठेंगी 

भीतर-बाहर सब शीतल करेंगी 

हमें वरदानों को सम्मुख करना है 

क्योंकि इस धरा पर पहले से ही 

काफ़ी है बोझ दुखों का 

निर्भार होकर हर कदम रखना है ! 




शुक्रवार, फ़रवरी 25

हम आनंद लोक के वासी

हम आनंद लोक के वासी 
मन ही सीमा है मानव की
मन के आगे विस्तीर्ण  गगन, 
ले जाये यदि यह खाई में 
इससे ऊपर है मुक्त पवन !  

जो कंटक भीतर चुभता है
जिसका हमें अभाव खल रहा, 
कोई पीड़ा हमें सताए 
कुछ यदि माँगे नहीं मिल रहा ! 

सब इसकी है कारगुजारी 
मन है एक सधा व्यापारी, 
इसके दांवपेंच जो समझे 
पार हो गया वही खिलाड़ी ! 

हम आनंद लोक के वासी 
यह हमको नीचे ले आता, 
कभी दिखाता दिवास्वप्न यह 
अपनी बातों में उलझाता !  

सुख की आस सदा बंधाता 
सुख आगे ही बढ़ता जाता, 
थिर पल भर रहना ना जाने  
कैसे उससे नर कुछ पाता ! 

घूम रहा हो चक्र सदा जो 
कैसे बन सकता है आश्रय, 
शाश्वत अचल एक सा प्रतिपल 
है स्रोत आनंद का सुखमय ! 

हम हैं एक ऊर्जा अविरत
स्वयं समर्थ, आप्तकामी हम, 
मन छोटा सा ख्वाब दिखाए
डूब-डूब जाते उसमें हम ! 

भुला स्वयं को पीड़ित होते 
खुद की महिमा नहीं जानते, 
सदा से हैं सदा रहेंगे 
भूल यही हम रहे भागते ! 

मुक्ति तभी संभव है अपनी 
मन के पार हुआ जब जाये 
इससे जग को देखें चाहे, 
यह ना जग हममें भर पाए ! 

मंगलवार, जनवरी 11

हो तुम जन्मों के चिर-परिचित



हो तुम जन्मों के चिर-परिचित



तुमसे मिलकर मिटी दूरियाँ

हो गए अपने सब पराये,

अनजाने जाने से लगते

परिचय तुमने दिये कराए !


हो तुम जन्मों के चिर-परिचित

जीवन में तुम ! तुम्हीं मरण में,

दूरस्थ निकट तुम ला देते

खुद प्रतिपल साथ रहे मेरे !


पंछी, बादल, पुष्प रंगीले

है रंग भरा यह जग भाता, 

रंग हमें आनन्दित करते 

जल में सूर्य रंग बरसाता !


शिशु-बालक हो मुग्ध खेलते  

निरख-निरख तुम हर्षित होते !

विमल लहर सुर स्वर बिखराती

सर-सर-सर वट गीत सुनाते,


पत्ते वन-वन डोला करते

जैसे लोरी शिशु हों सुनते 

हवा सिहरती क्या कुछ कहती 

नयन मुँदे से रहें ऊनींदे  !


( गीतांजलि से प्रेरित पंक्तियाँ )


सोमवार, फ़रवरी 22

दूजा निज आनंद में डूबा

दूजा  निज आनंद में डूबा

पंछी दो हैं एक बसेरा 

एक उड़े दूसरा चितेरा, 

निज प्रतिबिम्ब से चोंच लड़ाता

कभी जाल में भी फंस जाता !


कड़वे मीठे फल भी खाये 

बार-बार खाकर पछताए,

इस डाली से उस शाखा पर 

व्यर्थ ही खुद को रहा थकाए !


कुछ पाने की होड़ में रहता 

क्षण-क्षण जोड़-तोड़ में रहता, 

कभी तके दूजे साथी को 

जो बस देखे कुछ न कहता !


पलकों में जब नींद भरी हो 

फिर भी करता व्यर्थ जागरण,

दूजा  निज आनंद में डूबा  

देख रहा है उसका वर्तन !