युगों-युगों से बह रही है
मानवता की अनवरत धारा
उत्थान -पतन, युध्द और शांति के तटों पर
रुकती, बढ़ती
शक्तिशाली और भीरु
समर्थ और वंचित को ले
आह्लाद और भय का सृजन करती
विशालकाय और सूक्ष्मतम
दोनों को आश्रय देती सदा
कोई एक इस धार से छिटक
तट पर आ खड़ा होता है
विचार की शैवाल से पृथक कर खुद
मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के
भँवर से निकल
मोतियों का मोह त्यागे
नितांत एकाकी सूने तट पर
देखता है बड़ी मछलियों से भयभीत हैं छोटी
देखता है वही दोहराते हुए
जगत पुनःपुनः निर्मित होते औ' नष्ट होते
आवागमन के इस चक्र से वह बाहर है !