शुक्रवार, जून 30

आधा-आधा


आधा-आधा

मेरा होना ही 

‘मेरे’ होने में सबसे बड़ी बाधा है 

कृष्ण हुए बिना 

जो कृष्ण से मिलन कराये 

वही राधा है 

जगत उसी का रूप है 

ऐसा नहीं कि 

  जगत एक व ईश्वर दूसरा है 

जो दिखता है 

वह ‘मैं’ नहीं हो सकता 

यही तो योग ने साधा है !



गुरुवार, जून 29

विपरीत का गणित

विपरीत का गणित 

जागरण यदि स्वप्न सा प्रतीत हो 

तो स्वप्न में जागरण घटेगा 

 कुरुक्षेत्र बन जाये धर्मक्षेत्र, तो 

हर कर्म से मंगल सधेगा 

मन में विराट झलके 

तो लघु मन खो जाएगा 

जैसे बूँद में नज़र आये सिंधु 

तो सिंधु हथेली में समा जायेगा 

यहाँ विपरीत साथ-साथ चलते हैं 

धूप-छाँव एक वट के नीचे पलते हैं 

श्रमिक की नींद बड़ी गहरी है 

मौन में छिपी स्वरलहरी है !


बुधवार, जून 28

हर बार

हर बार 


हर संघर्ष जन्म देता है सृजन को 

अत: भागना नहीं है उससे 

चुनौती को अवसर में बदल लेना है 

कई बार बहा ले जाती है बाढ़ 

व्यर्थ  अपने साथ 

और छोड़ जाती है 

कोमल उपजाऊ माटी की परत खेतों में 

तूफ़ान उड़ा ले जाते हैं धूल के ग़ुबार 

और पुन: सृजित होता है नव निर्माण 

जीवन जैसा मिले 

वैसा ही गले लगाना है 

उस परमात्मा को 

हर बहाने से दिल में बसाना है 

जो पावन है वही शेष रहेगा 

मायावी हर बार चला ही जाएगा 

जैसे मृत्यु ले जाएगी देह 

पर आत्मा तब भी निहारती रहेगी ! 


मंगलवार, जून 27

जीवन एक पहेली जैसा !



जीवन एक पहेली जैसा !

जीवन यह संदेश सुनहरा !


छोटा  मन  विराट हो  फैले

ज्यों बूंद बने सागर अपार,

नव कलिका से  कुसुम पल्लवित 

क्षुद्र बीज बने वृक्ष विशाल !


जीवन कौतुक एक अनोखा  !


मन यदि अमन बना सुध भूले

खो जाएं बूँदें सागर  में,

रूप बदल जाए कलिका का

मिट कर बीज मिलें माटी में I


जीवन अवसर एक आखिरी  !


किंतु कोई न मिटना चाहे

मन सुगीत सदा दोहराए

मानव ‘मै’ होकर ही जग में

कैसे आसमान छू पाए I


जीवन एक पहेली जैसा !


हो जाएँ यदि रिक्त स्वयं से

बूंद बहेगी बन के सरिता

स्वप्न सुप्त कलिका खिलने का

पनपेगा फिर बीज अनछुआ


शुक्रवार, जून 23

हम किधर जा रहे हैं


हम किधर जा रहे हैं

कितना बौना हो गया है समाज 

‘आदि पुरुष’ इसकी बानगी है 

बन गये हैं शास्त्र 

मनोरंजन का साधन 

छा गये हैं महानायकों के चरित्र पर 

कॉमिक्स और विदेशी कार्टून  

प्रबल हो गया है अंधकार का साम्राज्य 

अतीत का गौरव भुला देना चाहते हैं हम 

ताकि कोई उसे पुन: जीवित न कर सके 

शायद इसीलिए उसे विद्रूप भी कर रहे हैं 

जहां विमान था ऐश्वर्य का प्रतीक 

अब पशु प्रबल हो गया है 

जीवन का यह आधुनिक रूप है 

यहाँ भाषा की गरिमा नहीं रही 

हर मर्यादा टूट गई 

संस्कृति की रक्षा का दम भरने वाले ही 

आज उसके हंता नज़र आ रहे हैं 

पता नहीं कैसा है यह काल 

और हम किधर जा रहे हैं ? 


बुधवार, जून 21

योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ


योग दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ


योग दिवस की धूम है, सभी मनाते आज 

जीवन कैसे धन्य हो, छुपा योग में  राज 


सुख और शांति के लिए, जत्न  करे दिन रात 

योग करे से साध ली, ख़ुशियों  की बरसात 


योग कराता है मिलन, बिखरा मन  हो  एक 

जीवन फूलों सा खिले, मार्ग मिले जब नेक 


योग दिवस पर हर कहीं, मिलजुल हो अभ्यास 

समता बढ़े समाज में, अंतर में विश्वास 


सुख की बाट न जोहिये, भीतर इसकी ख़ान 

योग कला  को जानकर, पुलकित होते प्राण 


एक तपस्या, एक व्रत, अनुशासन है योग 

जीवन में जब आ जाय,  मिट जाये हर रोग 


महिमा योग  अपार है, शब्दों में न समाय

नित्य करे जो साधना, अंत: ज्ञान जगाये 


युग-युग से यह ज्ञात है, भुला दिया कुछ काल 

कृपा है  महाकाल की, पाकर  हुए  निहाल 

 


 


सोमवार, जून 19

चम्पा सा खिल जाने दो मन



चम्पा सा खिल जाने दो मन

उठो, उठो अब बहुत सो लिये
सुख स्वप्नों में बहुत खो लिये
दुःख दारुण पर अति रो लिये
वसन अश्रु से  बहुत धो लिये

उठो करवटें लेना छोड़ो
दोष भाग्य को देना छोड़ो
नाव किनारे खेना छोड़ो
दिवा स्वप्न को सेना छोड़ो

जागो दिन चढ़ने को आया
श्रम सूरज बढ़ने को आया
नई राह गढ़ने को आया
देव तुम्हें पढ़ने को आया

होने आये जो हो जाओ
अब न स्वयं  से नजर चुराओ
बल भीतर है बहुत जगाओ
झूठ-मूठ मत  देर लगाओ

नदिया सा बह जाने दो मन
हो वाष्पित उड़ जाने दो मन
चम्पा सा खिल जाने दो मन
लहर लहर लहराने दो मन

रविवार, जून 18

गर्मियों की शाम सुंदर


गर्मियों की शाम सुंदर


छू रही धरा को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन

छा गए गगन पे देखो झूमते से श्याम घन !


दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही

सुरमई संध्या सुहानी कहीं कोकिल गा रही !


कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें

बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें !


छू रही बालों को आके करती अठखेलियाँ

जाने किसे छू के आयी लिये रंगरेलियाँ !


चैन देता है परस प्यास अंतर में जगाता

दूर बैठा चितेरा कूंची नभ पर चलाता !


झूमते पादप हँसें कलियाँ हवा के संग तन

नाचते पीपल के पात खिलखिला गुड़हल मगन !


गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी

घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी !


है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो

दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो !


शनिवार, जून 17

दुलियाजान में गुरूजी

दुलियाजान में गुरूजी

सूरज, गगन, धरा, वट, पंछी

पुलकित होकर हुए तृप्त हैं,

इक ही सुर में सब गाते हैं 

उसी की चाहत जो मुक्त है !


मुक्त सदा जो हर बंधन से

दुःख, पीड़ा,  क्षुद्र  अंतर  से,

सुख, शांति, आनंद स्वरूप वह 

चिन्मय हो आया कण-कण से !


वह जो करुणा रूप बुद्ध का

झलकाए नानक की मस्ती, 

मस्त हुआ है जो कबीर सा

गूंज रहा बन कृष्ण बांसुरी !


मीरा सी है भक्ति ह्रदय में 

महावीर सा ज्ञान अनूठा,

शंकर का अद्वैत पी गया

रामकृष्ण सी सहज सरलता !


फौलादी विश्वास का अधिप

फूल सा मृदुल  बालक जैसा,

प्रखर बुद्धि अद्भुत योगी है

स्नेह लुटाता पालक जैसा !


चकित हुए सब दीवाने भी

सबके दिल में घर कर लेता,

दुलियाजान बिछाये पलकें

राह उसी की देखा करता !



अनिता निहालानी
२१ फरवरी २०१०
दुलियाजान, असम

बुधवार, जून 14

करें सजदा हर कदम पर

करें सजदा हर कदम पर 


हर तरफ़  जलवा उसी का 

हर तरफ़ उसका ही नूर, 

कैसे कोई क़ैद भला 

रहे ख़ुद में ख़ुद से दूर !


बीज जैसे खोल में हो 

राज मन  ऐसे छुपाये,  

भीग जाये भावना में 

प्रेम का अंकुर उगाये !


एक दिन वह वृक्ष होगा 

आस्था के पुष्प धारे, 

दे सहारा  पंछियों को

रात-दिन जो गीत गायें !


करें सजदा हर कदम पर 

क्या हमारे पास अपना, 

चार दिन का यह सफ़र है 

बीतता ज्यों मधुर सपना !


तू चला है हाथ थामे 

सदा ही रहमत बरसती, 

तू सँवारे  ज़िंदगी को 

हर घड़ी जो है बदलती ! 


गुरुवार, जून 8

रेल दुर्घटना

रेल दुर्घटना 


हो सकता है कोई हादसा 

इतना भयावह 

मानो आने वाली हो प्रलय 

उलट-पुलट गयीं बोगियाँ  

उखड़ गयीं पटरियाँ 

और डिब्बों में बैठे लोग 

भौंचक तकते रह गये 

 है यह कोई जलजला 

या दिन क़यामत का 

किसने सुनी होगी वह चीखो-पुकार 

जो उलट गये डिब्बों में 

फँसे यात्रियों ने लगायी होगी 

कोई बैठ-बैठे ही 

कोई सोये-सोये ही 

चला गया चिरनिद्रा में 

दिल डूब रहा है देशवासियों का 

देख पीड़ा का यह मंजर 

जैसे उतार रहा हो निर्दयी काल 

सीनों में ख़ंजर 

जो बच गये हैं उनके 

तन-मन  पर लगे घाव शीघ्र भरें 

पुन: स्वस्थ हों खड़े अपने पैरों पर 

यही दुआ हम उनके लिए करें ! 


बुधवार, जून 7

हे कृष्ण !

हे  कृष्ण !


कितना दुर्लभ है इस जग में 

कोई निर्दोष हास्य 

निष्कपट अंतर 

हे  कृष्ण !  बहुत ऊँचे मापदंड 

नहीं बना दिये है तुमने !

यहाँ तो हर मुस्कान के पीछे

 छिपा है कोई अभिप्राय 

और तुम कहते हो 

हरेक भीतर ऐसा ही है 

कि अधम से अधम भी

 बन सकता है तुम्हारा प्रिय 

जिस क्षण वह मोड़ लेता है 

अपनी दिशा तुम्हारी ओर ! 


रविवार, जून 4

नयनों में नित नव साध रहे

नयनों में नित नव साध रहे


मृदु छंद बहा, मकरंद बहा 

जब वे अनजाने हाथ गहे,

जीवन में शुभ सन्तोष जगा 

नयनों में नित नव साध रहे !


लय, ताल, सुगम सध जाते सुर 

जब अनदेखे नाते जुड़ते, 

पंछी, पादप, चाँद,  सूर्य  से 

नेह भरे संदेशे मिलते !


जिसके तट पर मानस ठहरे 

सरिता अंतर में उग आती, 

जन्मों की तृप्ति कराये जो 

अजस्र धारा बहती जाती !


गंध धरा से, रंग गगन से 

सरसिज खिला पंक में कोमल, 

जल से जुड़ी मूल नभ से तन 

पवन झुलाता अम्बुज  श्यामल !


अंतर्कमल  चेतना का जब 

महासरोवर में खिलता है, 

प्रकृति माँ की भरे सुवास उर 

जग से पुलकित हो मिलता है !