बुधवार, मार्च 30

मन राधा उसे पुकारे

मन राधा उसे पुकारे

झलक रही नन्हें पादप में
एक चेतना एक ललक,
कहता किस अनाम प्रीतम हित
खिल जाऊँ उडाऊं महक !

पंख तौलते पवन में पाखी
यूँ ही तो नहीं गाते,
जाने किस छुपे साथी को
टी वी टुट् में पाते !

चमक रहा चिकना सा पत्थर
मंदिर में गया पूजा,
जाने कौन खींच कर लाया
भाव जगे न दूजा !

चला जा रहा एक बटोही
थम कर किसे निहारे,
गोविन्द राह तके है भीतर
मन राधा उसे पुकारे !

अनिता निहालानी
३० मार्च २०११



मंगलवार, मार्च 29

अमृत का एक द्वार छिपा


 
रात और दिन दो मित्रों से
मिलते रहते हैं अविराम,
जीवन के कोरे कागज पर
रंग बिखेरें सुबहोशाम !

पलक झपकते में मिल जाता
अमृत का एक द्वार छिपा,
लेकिन वह पल ठहर न पाता
यह सूरज कितनी बार उगा !

जब आयेगी, तब देखेंगे
बार-बार विस्मित हो भूले,
मृत्यु तो जीवन का द्वार
कह कर सुख झूले में झूले !

बढ़ती ही जा रही ऊर्जा
जब से सच का साथ रहा है,
कंकड़-पत्थर दूर हुए सब
हीरे सा मन याद रहा है !

गूंगी पीड़ा हूक उठी जो
मांग रही है कीमत अपनी,
रातों को जो जाग रही थी
नींद पूछती किस्मत अपनी !

क्या केवल दुःख के पल बोये
सुख की बेल सूखती जाती,
जैसे जैसे दिन बीते हैं
दुनिया और अकड़ती जाती !

२९ मार्च २०११


रविवार, मार्च 27

सुरमई शाम

सुरमई शाम

ढल रही है शाम ऐसे
इक मधुर सुस्व्प्न जैसे !
नील अम्बर मुग्ध तकता
बादलों के पार हँसता,
तैरते हैं कुछ विहग
लें आखिरी उड़ान खग !
वृक्ष भी हो मौन नत हैं,
फूल सो जाने में रत हैं !
दिन सिमट कर गमन करता
रात का रथ कहीं सजता !
पंछियों के गान छूटे
दादुरों के बोल फूटे,
झींगुरों ने साज बांधे
लता सोयी वृक्ष कांधे !
सुरमई यह शाम प्यारी
याद लाती है तुम्हारी !

अनिता निहालानी
२७ मार्च २०११  

गुरुवार, मार्च 24

सच के फूलों की फसल


सच के फूलों की फसल  

कागज पर उतरते हैं शब्द
साथ चली आती है
नामालूम सी उदासी की लहर
उपजी है जो भीतर
किसी गहरे अंतराय से !

सत्य के पक्ष में खड़े होना हो तो
इसे अपना साथी बना लो,
बार-बार सहनी होगी यह चुभन
काँटे जो बिछे हैं
सच की राह में मीलों तक !

माना कि ऊपर नीला गगन है
और पगडंडी के किनारे-किनारे
उगे फूलों की सुवास
सहला जाती है,
और समन्दर है भीतर
जो बहा ले जायेगा पथ के कंटक !

लेकिन कोई एक कांटा
फिर उभर आयेगा
होना है हमें शुक्रगुजार जिसका,
जो पता देता है भीतर
किसी अंतराय का
कांटा तो एक बहाना है
निजात तो उससे पाना है
छिपा है जो सागर के तल से
गुजरती सुरंग में !

कांटा निकाल लाएगा
उस दानव को बाहर
दानव जो छिपा है भीतर
जब-जब उठाता है सर  
बिंध जाता है मन
उसके नुकीले नखों से!

हर बाहर प्रतिबिम्ब है भीतर का !
पथ के काँटे ही बन जाते
प्रकाश स्त्रोत, दिखाते गड्ढे
पाटना है जिन्हें सुनहले सागर से
तब उतरेंगे शब्द कागज पे
और साथ चली आयेगी लहर तृप्ति की !

जब तक न घटे यह घटना
शुक्रगुजार होते रहना है
पथ के काँटों का, सबब हैं जो
सच के फूलों की फसल के !

अनिता निहालानी
२४ मार्च २०११  






बुधवार, मार्च 23

आधुनिक शिक्षा प्रणाली

आधुनिक शिक्षा प्रणाली

स्कूल में पधारे अतिथि ने,
आँखों में ऑंखें डाल
एक बच्चे से पूछा सवाल
बेटा, बड़े होकर क्या बनना चाहते हो ?

बच्चा कुछ ज्यादा ही समझदार था
बिरवान होनहार था,
बोला, यदि और कुछ न बन पाया
तो भी रोजी-रोटी चला लूँगा,
पीठ पर लादता हूँ रोज बस्ता  
बड़ा होकर बोझ उठा लूँगा !
अतिथि चकराया, तो बच्चे ने उसे
अपना भारी बैग दिखाया !

अतिथि कुछ आगे बढा
एक नन्हीं बालिका से पूछा उसका हाल
बोली, जानकर आपको होगा मलाल
रटने पड़ते हैं ढेर सारे उत्तर
उगल आते हैं जिन्हें कापी पर
बड़ी होकर क्या बनूंगी नहीं जानती
पर क्या होता है बचपन अनजान हूँ इससे भी !

सुना है बचपन मुक्त होता है सारे बन्धनों से
यहाँ तो हर सुबह शुरू होती है लैसनों से,
अतिथि ने भाषण की, की थी बड़ी तैयारी
धरी रह गयी सारी की सारी
बोला, आधुनिक शिक्षा पाठ्यक्रम है बड़ा भारी
डाली है इसने नाजुक कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी !

अनिता निहालानी
२३ मार्च २०११    
  

सोमवार, मार्च 21

महाप्रलय

महाप्रलय

कैसी होती है महाप्रलय
झांका जब मैंने ग्रंथों में,
जहाँ पुकार-पुकार कह रहे
कवि-ऋषि अति स्पष्ट शब्दों में !

सृष्टि बनती और बिगड़ती
जाने कितनी बार उजड़ती,
पुनः-पुनः सजती और संवरती
नई-नई तकदीरें गढ़ती !

जब पूरी होती युग आयु
अनाचार प्रबल हो जाता,
जब सत्य, धर्म को तज मानव
निज सुख-साधन में खो जाता !

तब बादल जल ना धारेंगे
त्राहि-त्राहि मच जायेगी,
सूर्य प्रचंड तपन देगा
सागर, नदियाँ कुम्हलायेंगी !

संवर्तक दावाग्नि से
जल जंगल तृण से राख बनें,
अग्नि भूगर्भ की भी जागे
फट ज्वालामुखी लावा उगलें !

वायु धू-धू कर जला करे  
फिर छा जाये घनघोर घटा
गर्जन-तर्जन करते मेघा
वर्षा की बहे अविरल छटा !

बारह बरसों तक पानी की
धाराओं से धरती भीगे
 डूब-डूब जाएंगे प्राणी  
विश्राम करें ब्रह्मा जल में !

एकार्णव में रहें डोलते
बरगद पत्ते पर गोविन्द
दर्शन देते मार्कंडेय को
प्रलय काल का होगा अंत !

अनिता निहालानी
२१ मार्च २०११



शनिवार, मार्च 19

देखो आयी होली

देखो आयी होली


बौराया आम्र, मंजरी झूल रही गर्वीली
हवा फागुनी मस्त हुई बिखरी सुवास नशीली !

मोहक, मदमाता मौसम खिली पलाश की डाली
धूम मचाती, रंग उड़ाती देखो आयी होली !

बही बयार बड़ी बातूनी बासंती रसीली
बजे ढोल, मंजीरे खड़के, नाच उठी शर्मीली !

उपवन-उपवन पुष्पों की बारात सजी अलबेली  
गुन-गुन करते भंवरे डोलें तितली नई नवेली !

ऊपरवाला खेल रहा यूँ सँग कुदरत के होली
लाल पलाश, गुलाबी कंचन, झूमी सरसों पीली !

छंट गए सारे भेद, सुनो कोकिला वन वन बोली
मिटा द्वैत एक हुए मुखड़ों पर सजी रंगोली !

डगर-डगर हर गाँव खेत निकली मस्तों की टोली
पलकों में अनुराग भरा बोलों में मिसरी घोली !  


अनिता निहालानी
१८ मार्च २०११

शुक्रवार, मार्च 18

आयी होली

आयी होली

फिर लगी अगन
ईंधन
भीतर बाहर का
हुआ दहन
मुक्त हुए मन
कर पूजा, किये नमन
फिर जली होलिका लाल
बच गया प्रिय प्रहलाद
छाया आह्लाद
आयी होली !

फिर चढ़ी कढ़ाही
छन्न हुई आवाज
तली गुझियाँ
और भुजियाँ
मुख में भर आया जल
स्वाद मिस्री बन फैला
नेह भरा उर माँ का
लो आयी होली !

फिर रंग उड़े
बजे ढोल, मंजीरे खड़के
जगी उमंग
ऋतु सँग सँग
मन में भरा उछाह
पुलक उत्सव बन बिखरी
लो पुनः आ गयी होली !

अनिता निहालानी
१८ मार्च २०११  

गुरुवार, मार्च 17

मादक अमृत सी ऋतु होली

होली
जीवन का प्रतीक वसंत है
यौवन का प्रतीक वसंत है,
होली मिश्रण है दोनों का
हँसता जिसमें दिग-दिगंत है !

रस, माधुर्य और सरसता
आशा, स्फूर्ति व मादकता
होली अंतर की उमंग है
अमर प्रेम की है गहनता !

जिंदादिल उत्साह दिखाते
शक्ति भीतर भर-भर पाते,
होली के स्वागत में आनंद 
पाते उर में और लुटाते !

सुंदर, शुभ कल्पना सजती
रंगों की आपस में ठनती,
लाल भाल, कपोल गुलाबी
मोर पंख सी चुनरी बनती !

फूलों से मन खिल-खिल जाते
अणु-अणु सृष्टि के मुस्काते,
लुटा रहा मौसम जो सुरभि
चकित हुए नासापुट पाते !

हरा-भरा प्रफुल्लित अंतर
कण-कण में झलके वह सुंदर,
मधुरिम, मृदुलिम निर्झर सा मन  
कल-कल करे निनाद निरंतर !

मादक अमृत सी ऋतु होली
अमराई में कोकिल बोली,
जोश भरा उन्मुक्त हृदय ले
निकली मत्त मुकुल की टोली !

अनिता निहालानी
१७ मार्च २०११











बुधवार, मार्च 16

नन्हा सा यह दिल बेचारा

नन्हा सा यह दिल बेचारा

एकाकी पर नहीं अकेला
अंतर में सबके इक मेला,
इक आवाज सदा गूंजती
जो करती है ठेलमठेला !

रुकते-रुकते फिर चल पड़ता
गिरते-गिरते फिर उठ जाता,
नन्हा सा यह दिल बेचारा
डगमग करता फिर थम जाता !

कभी-कभी ही खुद से मिलता
ज्यादातर दौरे पर रहता,
अपने घर आने से डरता
यहाँ वहाँ ही डोला करता !

कुछ भी नहीं है जो खो जाये
व्यर्थ ही घेराबंदी करता,
इधर-उधर का ज्ञान अधूरा
 मोहर लगा चकबंदी करता !

इक दिन तो थक कर बैठेगा
निज के ताने बाने खोले,
खुलवायेगा अपने घर के
डरते-डरते भेद अबोले !

फिर खाली हो मुस्काएगा
विश्रांति की फसल उगाने,
भर-भर कर झोली उमंग से
गायेगा फिर गीत, तराने !

अनिता निहालानी
१६ मार्च २०११