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रविवार, मार्च 22

हम साथ हैं

हम साथ हैं


हमें मिली है मोहलत 
चन्द दिनों की, चन्द हफ्तों की या चन्द महीनों की 
हम नहीं जानते 
पर हम साथ हैं उनके
जो लड़ रहे हैं जंग 
कोरोना के खिलाफ !

जिन्हें नहीं मिली पूर्व चेतावनी 
जो धकेल दिए गए अनजाने ही 
मृत्यु के मुख में 
या जो सह रहे हैं पीड़ा आज भी 
हम दुआ करते हैं उनके लिए !

वुहान के किसी पशु बाजार से 
किसी निरीह की देह से आया यह वायरस 
एक सूक्ष्म हथियार की तरह 
छुप गया एक मानव देह में 
उसने खबर भी दी अपने होने की 
किया सचेत भी
पर नहीं समझा कोई भी 
उस चेतावनी को 
और... एक से दूसरे  तक 
फैलता गया इसका प्रकोप 
पहले एक शहर से दूसरे शहर 
फिर एक देश से दूर देश 
एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप 
और अब सारा विश्व इसकी चपेट में है
हजारों ने देह त्याग दी 
लाखों सह रहे हैं पीड़ा 
सैकड़ों लगे हैं उन्हें बचाने में और 
करोड़ों भयभीत हैं 
लेकिन साथ हैं !

घरों में बंद वे नहीं बनेंगे 
वाहक वायरस के 
और जब थककर 
एक दिन दम तोड़ देगा 
आखिरी वायरस भी 
उस दिन के इंतजार में 
भारत के लोग कह रहे हैं 
सारे विश्व से 
हम साथ हैं !


सोमवार, फ़रवरी 17

सोये हैं हम

सोये हैं हम... 


बस जरा सी बात इतनी 
सुख की चादर ओढ़ मन पर 
खोये हैं हम 
सोये हैं हम !
एक सागर रौशनी का 
पास ही कुछ दूर बहता 
पर तमस का आवरण है 
कह इसे कई बार 
यूँ ही रोये हैं हम…!
नींद में भी जागता मन 
फसल स्वप्नों की उगाता 
जाने कितने बीज ऐसे 
बोये हैं हम !
नींद उसकी जागरण भी 
चंचला मति आवरण भी 
जाग देखें कैसी 
भावना सँजोये हैं हम !

सोमवार, अक्टूबर 29

मन की नदी



मन की नदी

श्वास और मौन के दो तटों के मध्य
बहती है मन की नदी...
जिसे लील जाता है कभी अगाध मरुथल
निगल जाता है कभी आसमान
जाने कितनी नदियाँ गुम हो गयीं
कुछ पल हँस कर फिर चुप हो गयीं
सुना है इस तट पर या उस तट पर
उतर जाता है कभी कोई राही
तो हजार राहें बिछ जाती हैं
उसके लिए फूलों भरी
कतारें लग जाती हैं.... रोशनियों की
झालरें झूमती हैं...
पर यह होता है कभी..कभी...

बुधवार, जून 1

मन का क्यों द्वार उढ़का है



मन का क्यों द्वार उढ़का है


खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !

बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !

बाहर ही से दस्तक देता
कैसे वह प्रियतम घर आये,
फिर कोई क्यों करे शिकायत
क्यों न बंधन उसे सताए !

जब चाहे वह आ सकता हो
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !

नृत्य उपजता ऐसे मन में
लहर-लहर में तरंगें उठतीं,
कोई जिसको नहीं दूसरा
सारी सृष्टि वहीं उतरती !

मन-मयूर कर ताताथैया
अनजाने से सुख में डोले,
पंखों में भर नेह ऊर्जा
गोपी उर की भाषा बोले !

वेदनायें शर्मा जाएँगी
मन का वह उछाह देख के,
ज्यों अशोक वन में हो सीता
हर्षित राम मुद्रिका लख के !
अनिता निहालानी
१ जून २०११