गुरुवार, अप्रैल 30

मौसम

मौसम

आते हैं जाते हैं
वृक्ष पुनः पुनः बदला करते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली हो चुभती है
कभी तपाती आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती है  
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता है मन
कैसा पावन हो जाता प्रौढ़ का मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..

मंगलवार, अप्रैल 28

पुनर्जीवन

पुनर्जीवन


खून से लथपथ तन
भय से सिकुड़े मन
भूकम्प की इस विनाश लीला ने
लील डाले कितने ही जीवन
टूटे घर ढही इमारतें
धंसी सड़कें खो गये रस्ते
चारों ओर छाया है मातम
कैसा मनहूस है यह आलम
प्रकृति जो माँ बन कर पालती थी
आज रूप धर काली का डराती है
लोरी गा, थपकियाँ दे सुलाती थी
आज अजनबी नजर आती है !
किन्तु पुनः होगा सृजन पुनः घर बसेंगे
संवर जाएगी भूमि कर्मठ हाथों से
गूँजेगी हंसी, नव जीवन पनपेंगे
सृष्टि और प्रलय का यह खेल चलता है संग-संग
रात और दिन की तरह  बदलता है विश्व रंग !


गुरुवार, अप्रैल 23

नन्हा सा यह दिल बेचारा

नन्हा सा यह दिल बेचारा


झेलता आया है न जाने कितने तूफान
कभी उबला क्रोध की अग्नि पर
कभी सहा ठंडापन उपेक्षा का
कैसे-कैसे भावों का हुआ शिकार
सहे नादान इन्सान के अत्याचार  
क्या नहीं उठाया था कांपते हाथों में खंजर
भूल गये, जब फेरी थीं आँखें
देख पीड़ितों का मंजर
लालसा के ज्वर से ग्रस्त डोलता रहा
कभी उलाहनों से भरा, कभी डरता रहा
दिल ने देखे हैं सचमुच अनगिनत पड़ाव
और पायी है कभी-कभार ही कोई शीतल छांव
प्रेम पाने में भी सदा सिकुड़ा रहा
देने में पीछे हटता रहा
न जाने किस सुख की तलाश में
दुःख के बीज ही भीतर भरता रहा
आँसूं भर आये पलकों में जितनी बार
दिल भी रोया होगा जार-जार
ईर्ष्या की चुभी थी इसे ही कटार
सुख को चाहा पर थमकर न बैठा
बेवजह ही रहा ऐंठा-ऐंठा
दिल ही तो है आखिर कब तक सहेगा
कभी तो फरियाद रोकर खुद की कहेगा..


मंगलवार, अप्रैल 21

सुख और दुःख

सुख और दुःख


सुख की चाह एक भ्रम ही तो है
दुःख की पकड़ ही असली चीज
अपने होने का सबूत देता है दुःख
सुख है खुद को मिटाने की तरकीब
छूटना है दुःख से तो देनी होगी सुख को राह
मित्र बनाने की उसे भीतर भरनी होगी चाह
बंट रहा है मुफ्त सुख
पर उसका कोई खरीदार नहीं
बहुत ज्यादा है दुःख की कीमत
अमीर कहलाने की किसको दरकार नहीं
सुख मुक्त करता है दुनिया के जंजाल से
यह भाव है खोने का
व्यस्त रखता है दुःख
देता है भरोसा कुछ होने का !

बुधवार, अप्रैल 8

एक अनंत गगन है भीतर


एक अनंत गगन है भीतर

नाच उठे जो कैद है भीतर
खेल चल रहा कोई सुंदर,
एक ऊर्जा गाती प्रतिपल
एक ऊर्जा सुनती हर स्वर !

जीवन एक सुहृद मित्र सा
प्रतिक्षण ऊंचा ही ले जाता,
एक अनंत गगन है भीतर
फिर क्यों घर का आंगन भाता !

तोड़ के सारे झूठे बंधन
अभय प्राप्त यदि कर लेगा मन,
नई नई राहें खोजेगा
सहज उड़ान भरेगा चेतन !