समाधि
मन के पीछे.. पीछे.. पीछे..
चलो वहाँ पर ऑंखें मींचे,
जहाँ विचार न कोई उठता
भाव भी कोई नहीं उमड़ता !
जहाँ प्रकाश का फूल खिला है
सुर का भीना स्रोत मिला है,
उस गह्वर में पल भर रुकना
वहीं अगोचर का हो लखना !
उठती वहीं से 'मैं' की तान
गति पाते हैं पांचों प्राण,
वहीं से डलता जाल जगत में
न चाहो तो समेटो पल में !
उस ही का विस्तार हुआ है
भाव और विचार हुआ है,
वही चाह न चाह कर फंसता
वही मुक्त हृदय से हँसता !
लीला रचता निज शक्ति से
खो जाता विमुख भक्ति से,
कोई आकर याद दिलाता
खुद को फिर खुद में पा जाता !
पुलक वही आँखों में अश्रु
धनक वही पावों में घुंघरू,
गीत वही कंठों में सरगम
प्रिय वही अंतर में प्रियतम !
अनिता निहालानी
२३ जून १०१०