बुधवार, मार्च 30

जीवन मधुरिम काव्य परम का

जीवन मधुरिम काव्य परम का

फिरे सहज श्वासों की माला

हम भाव सुगंध बनें,

जीवन मधुरिम काव्य परम का

इक सरस प्रबंध बनें !

 

जगती के इस महायज्ञ में

आहुतियाँ अपनी हों,

निशदिन बंटता परम उजास

मेधा शक्ति ज्योति हो !

 

शब्द गूँजते कण-कण में नित

बाँचें ज्ञान ऋचाएं,

चेतन हो हर मन सुन जिसको

गीत वही गुंजायें !

 

शुभता का ही वरण सदा हो

सतत जागरण ऐसा,

अधरों पर मुस्कान खिला दें

हटें आवरण मिथ्या !

 

उसकी क्षमता है अपार फिर

क्यों संदेह जगाएं,

त्याग अहंता उन हाथों की

कठपुतली बन जाएँ !


सोमवार, मार्च 28

स्वप्न और जागरण

स्वप्न और जागरण 

मन केवल नींद में  ही नहीं देखता स्वप्न

दिवा स्वप्न भी होते हैं 

जागती आँखों से देखे गए स्वप्न 

बात यह है कि 

खुद से मिले  बिना नींद खुलती ही नहीं 

या कहें कि खुद से बिछुड़ना 

है एक स्वप्न  

जो हर कोई देख रहा है 

अंतर में जगना जब तक नहीं हुआ 

 सोया ही हुआ है

अर्थात् इस या उस स्वप्न में खोया ही हुआ  है 

हर कोई  निर्माता है

निज सृष्टि का 

 दृष्टिकोण, विचार, मान्यताओं 

और धारणाओं की दीवारों से 

अपना महल सजाता है 

देखकर भी असलियत को 

नज़रें चुराता है 

जो करणीय है वह कल पर टाले जाता है 

हर कोई  क़ैद है 

अपने ही बनाए मायाजाल में

खुद से बिछुड़े हुए हम इक दिन तो जागेंगे 

उस क्षण से पूर्व नहीं हमारे दुःख भागेंगे 

स्वयं की अनंतता का अनुभव ही काम आएगा 

भीतर का प्रकाश ही ज्योति दिखाएगा ! 


बुधवार, मार्च 23

तेरी निष्ठुर करुणा भी

तेरी निष्ठुर करुणा भी 


कामना की अगन भीषण
जल रहा दिन-रात अंतर,
हृदय अकुलाया भटकता 
शोक से व्याकुल हुआ उर  !

तू दृढ़ अंकुश बन आया 
 ताप से मुझको बचाने, 
तेरी निष्ठुर करुणा भी 
बसी जीवन औ' मरण में !

दिए तन-मन प्राण,वसुधा   
 नील अम्बर बिना माँगे, 
तृप्त उर कुछ भी न चाहे 
मिटे लालसा शुभ जागे  !

कभी थक अलसाए नैन 
कभी अधजगा सा  चलता, 
एक खोज में लगा हुआ  
तेरे पथ  बढ़ता जाता !

लिए ओट तू छिप जाता 
राज यह मैंने जाना , 
पूर्व मिलन से योग्य बनूँ 
मक़सद तेरा पहचाना !


(गीतांजलि से प्रेरित पंक्तियाँ)

सोमवार, मार्च 21

एक हँसी भीतर जागी थी

एक हँसी भीतर जागी थी 

 

नयन टिके हैं सूने पथ पर 

किसकी राह तके जाता मन,

खोल द्वार दरवाजे बैठा

किसकी आस किये जाता मन !

 

एक पाहुना आया था कल

एक हँसी भीतर जागी थी,

हुई लुप्त फिर घट सूना है

फिर से इक मन्नत माँगी थी !

 

हर आहट पर चिहुँक ताकता 

किसकी बाट जोहता हर पल,

किसकी याद सँजोये बैठा

किसकी चाह किये जाता मन !

 

मिला बहुत पर नहीं वह मिला

बन बसंत जो साथ सदा हो,

स्वप्न नहीं बहलाते, ढूढें  

शीतल सुरमय  मधुर राग हो  !

 

किसको यह आवाज लगाये

किसकी नजरों को तरसे मन, 

फीका जग का हर रस लगता 

किसकी प्यास भरे जाता मन !


बुधवार, मार्च 16

कश्मीर गाथा


कश्मीर गाथा 


कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है 

पर इसने नरक से भी बदतर हालात देखे हैं 

जहाँ ऋषियों की वाणी गूंजती थी 

जहाँ के संस्कार, आचार, विहार 

गवाही देते थे एक विकसित सभ्यता की 

साहित्य, संगीत, कला और अध्यात्म की 

ऊँचाइयों को छुआ था जिसने 

शिव की वह पावन भूमि 

जहाँ ज्ञान की अविरल सरिता बहती आ रही थी युगों से 

हिमालय के उत्तंग शिखरों के सान्निध्य में 

जहाँ अनेक ग्रंथों की रचना हुई 

पर जिसे नरक बना दिया चंद लुटेरों ने 

तलवार के बल पर धर्मांतरण कराया 

कट्टरपंथी शैतानों ने 

बेइंतहा दहशत फैलायी 

दरिंदगी और हैवानियत का सुबूत दिया 

धर्म के नाम को रुसवा किया

कश्मीर  का इतिहास 

निर्दोष शांति प्रिय पंडितों के खून से रंगा है 

जिसके धब्बे आज भी वहाँ की वादियों से  मिटे नहीं हैं 

मुखर हुई इस सच्चाई को देखकर 

किसका दिल नहीं दहल जाएगा 

किसकी रूह नहीं काँपेगी भीतर तक 

कौन खून के आँसू नहीं रोएगा 

सम्पूर्ण मानवता का दर्द समाया है इसमें 

आज शामिल हुआ है 

हर भारतीय का दिल भी उनके दर्द में 

जिनकी आवाज़ को दबा दिया गया 

जो अपने ही घरों से भागने  पर मजबूर किए गये 

जिन्हें अपने ही वतन में जलावतन होना पड़ा 

यह पीड़ा दिनों, हफ़्तों, महीनों शायद जीवन बाहर रुलाती रहे 

जगाए ज़मीर उनका जो ज़िम्मेदार हैं इसके लिए 

या उनका जो कुछ कर सकते थे, पर नहीं किया 

कहाँ थी भारतीय सरकार उस काली रात को 

कहाँ थे कानून के रखवाले 

कितना बेबस नज़र आता था हर कोई 

शायद तब कमजोर था देश 

हर तरह से कमजोर 

जो आज तक छिपाए रहा अपने दर्द को 

पर आज दिखा सकता है हर कटु सत्य को 

 हर विरोध का सामना करने की ताक़त है आज

आज पूरा देश खड़ा है 

अन्याय के ख़िलाफ़ इस युद्ध में 

कम पड़ते हैं शब्द कहने को वह पीड़ा 

जो भीतर टीस जगाती है 

जिन पर गुजरी उनकी याद करके 

कैसा  हौल उठता है  

एक चुप सी भर जाती है कभी 

और कभी रह-रह कर 

दिल काँप उठता है 

लेकिन यह दर्द मरहम बनेगा 

यकीनन कश्मीर का हाल बदलेगा 

फिर से गूँजेगीं वहाँ वेद की ऋचाएँ 

और घरों से सुर संगीत की धारा बहेगी 

हम देखंगे 

हाँ ऐसा होगा, हम देखेंगे !


मंगलवार, मार्च 15

कुदरत की होली

कुदरत की होली 


झांको कभी निज नयनों में 

और थोड़ा सा मुस्कुराओ,

रंग भरने हैं अंतर में मोहक यदि  

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !

नीले नभ पर पीला चाँद 

रूपहले सितारों में जगमगाये  

कभी स्याह बादलों में 

इंद्र धनुष भी कौंध अपनी दिखाए !

हरे रंग से रंगी वसुंधरा

जिस पर अनगिन फूल टंके हैं 

ज़रा संभल कर जाना पथ पर

तितलियों के झुंड उड़े हैं !

होली खेलती दिनरात यह कुदरत 

जगाना उल्लास ही इसकी फ़ितरत 

केवल आदमी लड़ाई के बहाने खोजता  

जहाँ रंगों के अंबार लगते

तुच्छ बातों को एक मसला बना लेता  !

रंग सजते बन उमंग जीवन में 

भर जाते तरंग तन और मन में 

अगर रंग भरने हैं सदा के लिए अंतर में 

सहज हर भोर में

संग सूरज के खिलखिलाओ 

हाथ कुदरत से अपना मिलाओ !


सोमवार, मार्च 14

एक होली ऐसी भी



एक होली ऐसी भी


तन पर हैं  गुलाबी वसन 

हाथ पीले हुए हैं 

पैरों पर लाल आलता 

नयन गीले हुए हैं 

प्रीत से भीगी है चूनरिया सारी 

पी की आँखें जैसे बनी हैं पिचकारी 

चिबुक छूने को हाथ बढ़ाया भर था 

कि हो गये हैं दोनों गाल लाल 

जैसे उतर आया हो भीतर से कोई गुलाल 

हरी चूड़ियों की खनक भी उठी उसी क्षण 

होली खेलती है ऐसे नयी दुल्हन ! 


शुक्रवार, मार्च 11

सत्यमेव जयते

सत्यमेव जयते 


सत्य की विजय होती है सदा 

क्योंकि सत्य ही विजय है !

सत्य अग्नि है 

जो हर झूठ को निगल जाती है अंतत: !

सत्य का दामन काँटों भरा लगता है 

पर उल्लास के पुष्प भी वहीं खिलते हैं !

कहते हैं सत्य की राह दुधारी तलवार की तरह होती है 

पर संतुलन की कला  वहीं सीखी जाती है !

सत्य हरेक शै का आधार है 

हरेक के अंतर्मन में  छिपा निर्दोष प्यार है !

असत्य भी सत्य का सहारा लेता है 

नादान रस्सी को ही साँप समझ लेता है 

और सीपी को चाँदी !

सत्य कभी मरता नहीं 

क्योंकि वह कभी जन्मता नहीं 

असत्य बनावट है, जो जन्माया जाता है  

सो एक दिन निश्चित है उसकी मृत्यु ! 


मंगलवार, मार्च 8

गीत जागरण का जो गाए

गीत जागरण का जो गाए 


सच की नाव गुरू खेवटिया 

मीरा ने यह गीत सुनाया, 

जो समर्थ वह पार उतारे 

मन यह भेद समझ कब पाया !


डूबा जाए भवसागर में 

लहरों के आँदोलन में घिर, 

उहापोह, उलझन इस उस की 

राज न सीखा हो कैसे थिर !


सुख-दुःख बादल आ ढक लेते 

ज्ञान सूर्य जो भीतर चमके, 

अंधकार ही जाना उसने 

तम की रात घिरी है कब से !


गीत जागरण का जो गाया  

वही प्रीत का सामवेद है, 

सत्य मशाल जले जब भीतर 

शेष नहीं तिलमात्र खेद है !


झर जाता विषाद जीवन से 

अविरत स्नेह बरसता जाए, 

जागे शक्ति सुप्त अंतर की 

करुणा औ'  उल्लास जगाए !


सोमवार, मार्च 7

युद्ध की विभीषिका

युद्ध की विभीषिका 


जो खेल सकते थे 

रंगों की होली   

वे खून की होली खेल रहे हैं 

हथियारों और सत्ता मद में चूर कुछ लोग 

उन्हीं को रौंदते जा रहे 

जिन पर अपना दावा करते हैं 

विनाश की यह दुर्दांत लीला 

दोहरायी गयी है जाने कितनी बार 

नफरत की आग में झुलसता रहा है हर बार प्यार 

जब छिड़ा नहीं था युद्ध 

उकसाया जाता रहा 

परिणाम की परवाह किए बिना 

जोशीले नारों को उछाला जाता रहा 

रक्तरंजित हुई है धरा फिर एक बार 

शांति की हर पहल हुई है नाकाबिल 

एक सैनिक की मौत भी 

धब्बा है मानवता के नाम  

भुगतता पड़ेगा आने वाली पीढ़ियों को 

जिसका अंजाम 

अहिंसा, प्रेम और करुणा ने 

जैसे आज हार मान ली है 

तभी तो एक देश के हर आदमी ने 

बंदूक़ थाम ली है !


गुरुवार, मार्च 3

हम अनंत तक को छू आते

हम अनंत तक को छू आते 

तन पिंजर में मन का पंछी  
पांच सीखचों में से ताके,
देह दीपक में ज्योति जिसकी 
दो नयनों से झिलमिल झाँके  ! 

पिंजर में सोना मढ़वाया 
पर पंछी प्यासा का प्यासा, 
 दीपक हीरे मोती वाला 
ज्योति पर छाया है धुआँ सा ! 

नीर प्रीत का सुख के दाने 
पाकर मन का पंछी चहके, 
पावन बाती, स्नेह ऊर्जा
ज्योति प्रज्ज्वलित होकर दहके !  

जग के सारे खेल-खिलौने 
पल दो पल का साथ निभाते, 
नेह ऊष्मा जब हो उर में 
हम अनंत तक को छू आते ! 

बाहर छोड़ें, भीतर मोड़ें
टुकड़ों में मन कभी न तोडें 
एक बार पा परम संपदा 
सारे जग से नाता जोड़ें !