शुक्रवार, सितंबर 30

पल दो पल की है यह माया

पल दो पल की है यह माया 


यह जो घट रहा मन से जुड़ा  

 हो  घनी धूप चाहे छाया,

व्यर्थ मिटाने का श्रम करता  

केवल पल दो पल की माया !


सत्य मानकर यदि चलेगा  

दुःख के सिवा न कुछ भी मिलता, 

जो बदल रहा पल-पल जग में 

सुख कैसे उससे खिल सकता !


राग-विराग के बिम्ब गढ़ लिए 

उनके प्रतिबिम्बों में खोया, 

उर यह जिस पल हँस सकता था

उन घड़ियों में भी वह रोया !


जो भी मिला वही है काफी 

जब तक न यह तोष जगेगा,

जग का माया जाल सदा ही 

अन्तर की समता हर लेगा !


मंगलवार, सितंबर 27

माया

 माया 

निर्विकल्प होकर ही 

मिला जा सकता है उससे 

जिसे अज्ञानी मिल सकते हैं 

पर जानने का अभिमान रखने वाले नहीं 

जो  बचाए रखता है खुद को

बार-बार दुःख पाता है 

मिलन के उस छोटे से पल में 

मौन का निर्णय भी हमारा नहीं होता 

अस्तित्त्व ही कराता है 

वह तब बरसता है 

जब उसको बरसना है 

हमें बस तैयार रहना है 

उसकी शरण में आना है 

और जहाँ अहंता ही शेष न हो 

तो ममता कैसे टिकेगी 

कैसे बचेगा मोह और आसक्ति 

वह इतना सूक्ष्म है कि वहाँ कुछ ठहर नहीं सकता 

माया में लोटपोट होना हमने ही तय किया 

तो यह हमारा निर्णय हो सकता है 

पर मायापति स्वयं वरण करता है 

जब जानने और होने के मध्य कोई अंतराल नहीं होता 

जो खोया है अब भी विचारों  के जंगल में 

उसने चुना है माया को ! 


सोमवार, सितंबर 26

सर्वमंगला मंगल लाए

सर्वमंगला मंगल लाए


जगज्जननी ! महा  मूल प्रकृति !

ज्योतिस्वरूपा वामदेवी,

जगदम्बा, ईशा,  सरस्वती

लक्ष्मी, गंगा, उमा, पार्वती !


अपरा दुर्गा देवी सहाय

जीवन में बाधा जब आए,

भद्र काली करती  कल्याण

माँ अम्बिका दुलार लुटाए !


अन्नपूर्णा भरे भंडार

सर्वमंगला मंगल लाए,  

परम शक्ति चण्डिका अपर्णा 

माँ भैरवी भय हर ले जाय ! 


 शुभ ललिता आनंददायिनी

जीवन दात्री माँ भवानी,

मुकाम्बिका माँ त्रिपुर सुन्दरी

कुमुदा, कुंडलिनी, रुद्राणी !


शनिवार, सितंबर 24

लहर उठी सागर से कोई

लहर उठी सागर से कोई


​​तू मुझमें ही वास कर रहा

या मैं तेरे घर हूँ आया ?

रहना-आना दोनों मिथ्या  

एक तत्व है कौन पराया !


लहर उठी सागर से कोई 

अगले पल उसमें जा खोयी, 

पल भर का इक नर्तन करके 

निज स्वरूप में जाकर सोयी !


मेरा होना तुझसे ही है 

तू ही मैं बनकर खेले है, 

एक तत्व अखंड  शाश्वत नित 

दिखते जीवन के मेले हैं !


दर्शक बनकर देख रहा तू 

कैसे माया लीला रचती, 

मन खुद  को सर्वस्व समझता   

अंतर को फिर व्याकुल करती !



गुरुवार, सितंबर 22

अंतहीन उसका है आंगन


अंतहीन उसका है आंगन 

मौन से इक उत्सव उपजता 
नई धुनों का सृजन हो रहा,
मन में प्रीत पुष्प जन्मा है  
सन्नाटे से गीत उठ रहा !

उस असीम से नेह लगा तो
सहज प्रेम जग हेतु जगा है,
अंतहीन उसका है आंगन  
भीतर का आकाश सजा है !

बिन ताल एक कमल खिला है  
हंसा लहर-लहर जा खेले,
बिन सूरज उजियाला होता  
अंतर का जब दीप जला ले !

शून्य गगन में हृदय डोलता
मधुमय अनहद नित राग सुने,
अमिय बरसता भरता जाता   
अंतर घट को जो रिक्त करे !

घर में ही जब ढूँढा उसको
वहीं कहीं छुप कर बैठा था
नजर उठा के देखा भर था
हुआ मस्त जो मन रूठा था !

आदि, अंत से रहित हो रहा
आठ पहर है सुधा सरसती,
दूर हुई जब दौड़ जगत की  
निकट लगी नित कृपा बरसती !

मंगलवार, सितंबर 20

दंत कथा

दंत कथा 


दांतों तले उँगली दबाते, देख एआई  के कमाल 

आज मरने के बाद भी पूछा जाता है मृतक का, उसी से हाल

दांत काटे की रोटी खाते हैं जो, कभी अकेले नहीं रहते 

कोई जन  बात-बात पर दांत पीसने लगते   

कर दिए थे दांत खट्टे दुश्मनों के कारगिल में 

बजने लगे थे बेसाख़्ता दांत बर्फीले मौसम में 

कड़ी ठंड में भी आ गया था दुश्मन को दांतों  पसीना 

वरना कोई बत्तीसी निकाल हाथों  में धर देने की धमकी देता 

तो कोई बत्तीसी दिखाने पर झिड़कता 

दांत झलकाने पर ही कोई भलामानस बुरा मान जाता  

आनन-फ़ानन में दांत तोड़ने की धमकी दे देता   

दांत निपोर कोई दया की अर्ज़ी लगाता है 

दांत गिरते हैं, दांत झरते हैं गोया कि फूल हैं 

उनके दांतों की मिसाल दी जाती है 

दाड़िम के दानों से  

उपमा होती है कभी मोतियों से 

किसी के दांत गिनने में नहीं आते 

पता नहीं कौन सी चक्की का आटा हैं खाते 

मार्केट लुढ़क जाए तो  जम जाते हैं कितने दांत तालू में 

कोई दांतों से चबवाता है लोहे के चने 

कोई झेंपकर तो कोई बिना किसी लिहाज़ के दांत निपोरता 

कोई सेठ दांतों से कौड़ियाँ  पकड़ता  

कोई रह रह कर दांत किटकिटाता है

दांत गड़ाए है कोई परायी दौलत पर 

डटा हुआ है कोई दांतों को  जमाकर 

दांतों में जिव्हा की तरह रहता था विभीषण 

दूध के दांत टूटे भी नहीं कि आजकल 

बच्चे बड़ों को तकनीक सिखाते हैं 

आरसीटी कर  दांतों को चिकित्सक बचाते हैं 

बाहर निकले हुए दांत भीतर समाते हैं 

 बदल देते मुस्कान नए दांत भी लग जाते हैं 

इस तरह हिंदी में दांतों के मुहावरे नज़र आते हैं ! 

 


रविवार, सितंबर 18

जैसे कोई घर लौटा हो

जैसे कोई घर लौटा हो


जगत पराया सा लगता था 

जब थी तुझसे पहचान नहीं, 

तेरी आँखों को पहचाना 

 सबमें  झांक रहा था तू ही !


अब कहाँ कोई है दूसरा 

जैसे कोई घर लौटा हो, 

कतरे-कतरे से वाक़िफ़ है 

जिसने अपना मन देखा हो !


जीवन का प्रसाद पाएगा 

आज यहीं इस पल में जी ले, 

दिल की धड़कन में जो गूँजे 

गीत बनाकर उसको पी ले ! 


शावक के नयनों से झाँके 

फूलों के नीरव झुरमुट में, 

तारों की टिमटिम जिससे है 

भ्रम के उस अनुपम संपुट से !


एक वही तो सदा पुकारे 

प्रेम लुटाकर पोषित करता, 

रग-रग से वाक़िफ़ है सबकी 

अनजाना सा बन कर रहता !


शुक्रवार, सितंबर 16

शुभ दीपक एक जलाना है

शुभ दीपक एक जलाना है


छँट जाएगा घोर अँधेरा 

उहापोह, उलझन का डेरा, 

थोड़ा सा स्नेह जगाना है 

शुभ दीपक एक जलाना है !


एक से फिर अनेक जल सकते

ज्योति की आकर बन सकते,

अनथक पथ चलते जाना है 

मग दीपक एक जलाना है !


फूल खिलाये हैं जिसने नित 

नीरवता गूँजे जिसके मित,

उसका इक गीत सुनाना है 

यश दीपक एक जलाना है !


करुणा, प्रेम, तपस, प्रार्थना 

दिलों में सोयी मधुर भावना, 

हौले से  पुनः जगाना है 

जय दीपक एक जलाना है !


दीप जल रहे जो नयनों में 

सुहास झरे मृदुल बयनों में, 

ऐसा इक राग सुनाना है 

हित दीपक एक जलाना है !


वचन कभी जो शर से चुभते 

निज अंतर  का भी बल हरते,

ना ऐसा रुख अपनाना है 

 मधु दीपक एक जलाना है !



बुधवार, सितंबर 14

हिंदी या हिंग्लिश


हिंदी या हिंग्लिश


हिंदी दिवस पर अंग्रेजी में ट्वीट करते लोग

 हिंदी प्रेम होने का दम भरते हैं 

हिंदी के एक वाक्य में 

बस दो-चार अंग्रेजी के शब्द मिलाते 

मॉर्निंग में वाक और इवनिंग को योगा करते हैं 

आँख, नाक, कान से पहले 

जान जाता है शिशु आइज, नोजी और इयर

नौनिहालों को अंग्रेजी में झगड़ते देख 

भीतर तक निहाल होते हैं 

दीवाली और होली तो हैप्पी थी ही 

अब कहीं हिंदी दिवस भी 

हैप्पी बोल देने तक ही सीमित न हो जाये 

अंग्रेजी का जो जादू सर पर चढ़ा है 

नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से दूर न ले जाये 

हिंदी फल-फूल रही है अपने बूते पर 

सर्व को ग्रहण करती है 

शुद्ध रहे, हमें रखना है ध्यान 

दिल बहुत विशाल है उसका 

कैसा भी रूप धरे वह हिंदी 

ही कही जाती है !

मंगलवार, सितंबर 13

पाहन सा दिल बना लिया जो

पाहन सा दिल बना लिया जो 


​​

पल-पल कोई साथ हमारे 

सदा नज़र के आगे रखता, 

आँखें मूँदे हम रहते पर 

निशदिन वह जागा ही रहता !


पाहन सा दिल बना लिया जो 

जब नवनीत बना पिघलेगा,

नयनों से विरह अश्रु बहें 

तत्क्षण आ वह ग्रहण करेगा !


वह दीवाना जग का मालिक 

फिर भी इक-इक के सँग रहता,

केवल भाव प्रेम का बाँधे 

गुण-अवगुण वह कहाँ देखता !


बार-बार भेजे संदेशे 

सुना-अनसुना हम करते हैं, 

युग-युग से जो राह देखता 

चूक-चूक उससे जाते हैं !


वही-वही है जीवन का रस 

प्याले पर प्याला छलकाये, 

जीवन के हर रूप-रंग में 

अपनी ही छवियाँ झलकाए !

 

रविवार, सितंबर 11

रविवार की सुबह सुहानी


आजकल महानगरों में अक्सर ऐसा होता है कि एक ही शहर में रहने वाले पुत्र-पुत्रियाँ केवल छुट्टी के दिन माता-पिता से मिलने आ पाते हैं। काम का इतना बोझ होता है उन पर कि सुबह से शाम तक कम्प्यूटर की स्क्रीन के आगे बैठना पड़ता है।


रविवार  की सुबह सुहानी 

 

लघु फ़्लैट के वातावरण से 

खुली हवा में साथ प्रकृति के 

दिल खोल विश्राम करो फिर 

मुक्त हृदय से दौड़ लगाओ, 

 

रविवार  की सुबह सुहानी 

बुला रही है घर को आओ !

 

 कर्मयोगी आधुनिक युग के 

कह सकते हैं जिन्हें तपस्वी, 

 न खाने की सुध न निद्रा का

 निश्चित रहा समय है कोई !

 

व्यायामों की बात दूर है 

कठिन है सुबह-शाम टहलना, 

 सब सुख छोड़ नौकरी ख़ातिर

ऑन  लाइन  नाते निभाना  !

 

आज करो कुछ दिल की बातें 

गहराई से ध्यान लगाओ, 

लंबी तानो सिट  आउट में   

या फिर कोई खेल जमाओ !

 

इतवार की सुबह सुहानी 

बुला रही है घर आ जाओ !

 

एक शर्त है उसे मानना 

रख  के सारी चिंता आना, 

लैप टॉप के साथ ही सारी

डेड लाइन वहीं रख आना !

 

कुछ घंटे तो अपनी ख़ातिर 

जीने के हित आज बचाओ,

घर का बना हुआ भोजन है 

लेकर स्वाद मज़े से खाओ ! 

 

भानुवार की सुबह सुहानी 

बुला रही है घर आ जाओ !