शनिवार, दिसंबर 31

नये वर्ष में गीत नया हो


नये वर्ष में गीत नया हो 


राग नया हो ताल नयी हो 
कदमों में झंकार नयी हो, 
रुनझुन रिमझिम भी पायल की 
उर में  करुण पुकार नयी हो !

अभी जहाँ पाया विश्राम 
 बसते उससे आगे राम, 
क्षितिजों तक उड़ान भर ले जो 
पंख लगें उर को अभिराम !

अतल मौन से जो उपजा हो 
सृजें वही मधुर संवाद,
उथले-उथले घाट नहीं अब 
गहराई में पहुंचे याद !

नया ढंग अंदाज नया हो 
खुल जाएँ सिमसिम से द्वार 
नये वर्ष में गीत नया हो
बहता वह बनकर उपहार !

अंजुरी भर-भर बहुत पी लिया  
अमृत घट वैसा का वैसा,
अब अंतर में भरना होगा 
दर्पण में सूरज के जैसा !




गुरुवार, दिसंबर 29

नया वर्ष भर झोली आया


नया वर्ष भर झोली आया 

मन  निर्भार हुआ जाता है 

अंतहीन है यह विस्तार,
हंसा चला उड़ान भर रहा 
खुला हुआ अनंत का द्वार !

मन श्रृंगार हुआ जाता है 

नया-नया ज्यों फूल खिला हो,
पंख लगे सुरभि गा आयी 
हर तितली को संदेश मिला हो !

मन उपहार हुआ जाता है 

बीत गया जो भी जाने दें,
नया वर्ष भर झोली आया 
  खुलने दें पट नव क्षितिजों के !  

मन मनुहार हुआ जाता है 

रूठ गये जो उन्हें मना लें,
सांझी है यह धरा सभी की 
झाँक नयन संग नगमे गा लें ! 

मन बलिहार हुआ जाता है 

पंछी के सुर, नदिया का जल,
पलकों की कोरें लख छलकें 
हरा-भरा सा भू का आंचल  !




बुधवार, दिसंबर 28

शब्द तरंग


शब्द तरंग 

तरंग मात्र ही हैं शब्द 
आते हैं और चले जाते हैं 
हम ही हैं जो पकड़ लेते हैं उन्हें बीज की तरह 
और जमा देते हैं मन की धरती पर...
दर्द के फूल उगाने को
यदि बह जाये हर शब्द तरंग की तरह 
तो मन निशब्द में पा ही लेगा 
अव्यक्त को 
लहरियों में नृत्य को 
और हर भंवर में उस अनोखे लोक को 
जहाँ से चले आते हैं शब्द...

सोमवार, दिसंबर 26

सबके उर में प्रेम बसा है



सबके उर में प्रेम बसा है 

कौन चाहता है बंधन को
फिर भी जग बंधते देखा है,
मुक्त गगन में उड़ सकता था
पिंजरे में बसते देखा है !

फूलों से जो भर सकता था
काँटों से बिंधते देखा है,
रिश्तों की है धूप सुनहली,
उसमें भी जलते देखा है !

सबके उर में प्रेम बसा है
चाहत में मरते देखा है,
खत्म न हो भर हाथ उलीचे
रिक्त नयन तकते देखा है !


मंगलवार, दिसंबर 20

स्वप्नों सी वे झर जाती हैं

स्वप्नों सी वे झर जाती  हैं 

खुशियों को पा लेने का भ्रम 
नहीं मिटाता जीवन से गम, 
स्वप्नों सी वे झर जाती  हैं 
या जैसे फूलों से शबनम !

एक दौड़ में शामिल है जो 
श्रम ही जिसने जाना जीवन,
क्लान्त कभी तो डरता होगा 
थक कर  सो जाता जो मन !

बाहर शिखरों पर पहुँचा है 
नहीं ठिकाना भीतर पाया,
बंधा रहा सीमाओं में ही  
आजादी का जश्न मनाया !











सोमवार, दिसंबर 19

घर जाना है


घर जाना है 

दृष्टि का ही फेर है सब
रात में दिन और
दिन में रात नजर आती है
जहाँ धूप है खिली वहाँ छाँव
जहाँ हो सकते हैं  फूल
वहीँ अजीब सी गन्ध भर जाती है
नहीं मुमकिन नजारे बदलें
जगत को जैसा है वह
  वैसा ही देखना होगा
सपनों में दौड़ रहे अश्व से उतर कर
पल भर ही सही थम कर बैठना होगा
ढलती शाम में जो सूर्योदय
की कल्पना कर हुलसता है
उस मन को घर की राह
पर कदम रखना होगा !

शुक्रवार, दिसंबर 16

दृष्टि धूमिल मोहित है मन

दृष्टि धूमिल मोहित है मन 

 किसी-किसी दिन झूठ बोलता लगता दर्पण
नयन दिखाते वही देखना चाहे जो भी मन !

दृष्टि धूमिल मोहित है मन 
धुंधला-धुंधला सा संसार,
प्रिय को महिमामंडित करता 
छलक रहा जब अंतर प्यार !

सत्य छिपा ही रहता इक तरफ़ा जब अर्पण 
श्रवण सुनाते वही सुनना चाहे जो भी मन !

पक्षविहीन खड़ा  हो जग में 
शक्तिहीन के लिए असम्भव,
झुक जाता है निज पक्ष में 
झेल आत्मा का पराभव !

थोड़े में सन्तुष्ट हुआ जो काट सके न बंधन 
बुद्धि सुझाती वही जानना चाहे जो भी मन !


गुरुवार, दिसंबर 15

निज पैरों का लेकर सम्बल


निज पैरों का लेकर सम्बल


कितनी बार झुकें आखिर हम 
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता 
रहे साधते वीणा के स्वर !

श्वास काँपती मन डोलता 
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे 
रह-रह वे यादें धड़कातीं !

निज पैरों का लेकर सम्बल
इक न इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जग के मोहक 
सूने पथ पर बढ़ना होगा !

कितने जन्म सोचते बीते 
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ 
कब तक राह तकें सांवरे ! 

बुधवार, दिसंबर 14

कितना सा था चाहत का घट

कितना सा था चाहत का घट 


श्वासें  भर जाएँ भावों से 
हो कृतज्ञ झुक जाये अंतर 
जीवन का उपहार मिला है 
बहता जैसे महा समंदर !

धूप नेह की खिली सघन जब 
प्रीत ऊष्मा मेघ बन गयी,
हुई  शुष्क जो नदिया उर की  
 बरस-बरस हो मगन  बह गयी !

कितना सा था चाहत का घट 
भर-भर कर ढुलका जाता है,
 दिशा-दिशा में वही समोया 
कितने दामन भर जाता है !

एक अतल सोता हो जैसे 
अंतहीन या कोई गह्वर,
जाने कहाँ से दे संदेशे 
सुनते ही आ जाते हैं स्वर !

खोलें तो हर द्वार है उसका 
उढ़काया तो वह ही बाहर,
हर आवाज उसी तक जाती 
लिए अनसुने उसके ही स्वर !



मंगलवार, दिसंबर 13

राग प्रीत का जो साधा था

राग प्रीत का जो साधा था  

है विशाल, अनन्त, अनूठा 
कैसे लघु मन उसको जाने 
शिखर चाहता भय खाई से 
सीमा स्वयं की, यह न माने !

खुल जायेगा हर वह बंधन 
सुख की आस में जो बाँधा  था,
छलक-छलक वह बह जाएगा 
राग प्रीत का जो साधा था !

युगों-युगों से गूँज रहा स्वर 
अंतरिक्ष न बाँच  सका  है,
गा - गा कर खग वृन्द थके न 
क्यों उर में संदेह  जगा है !

अश्रु बने हैं पाती जिसके 
कतरा- कतरा बहे सभी दुःख,
एक अलस मद मस्त खुमारी 
बून्द-बून्द कर रिसता है सुख !

सदा निहारे नयन मौन हो 
श्वासों में गंध बन बसता,
साया कोई संग चल रहा 
 परस पवन का  दे-दे  हँसता !






सोमवार, दिसंबर 12

जिसकी प्यास अधूरी रब की

जिसकी प्यास अधूरी रब की
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दुःख को भी न जाना जिसने 
सुख का स्वाद चखे वह कैसे 
दुःख को ही जो सुख मानता 
सुख हीरे को परखे कैसे ?

हार-जीत तो लगी रहेगी 
हँसना-रोना ही जीवन है,
जिसने सूत्र यही अपनाया 
कहाँ उसे मुक्ति का क्षण है !

पीड़ा सहते सहते बढ़ता 
श्वास फुलाकर सीढ़ी चढ़ता,
चन्द पलों की राहत को ही 
जीवन की हर निधि जानता !

नहीं उसे प्राप्य जीवन का 
जिसकी प्यास अधूरी रब की,
तिल भर दुःख भी नहीं बनाता 
वही प्रेरणा बनता सबकी !

जो भी हम भीतर रचते हैं 
वही बाहर से वापस मिलता,
अंतर में यदि स्वर्ग सृजा है 
बाहर कुसुमों का पथ सजता !

रविवार, दिसंबर 11

नींद उड़ी रातों की उनकी


नींद उड़ी रातों की उनकी 

काले धन को गोरा कर लें 
इसी जुगत में हैं कुछ लोग,
नींद उड़ी रातों की उनकी 
भरे तिजोरी में जो नोट !

नोटों के बंडल के बंडल 
कर चोरों के दिल में हलचल,
दूजों के खातों  में डालें 
तरह-तरह के करते छल बल !

सोना, चाँदी तोल रहे हैं 
कहीं जमीनों के भी चक्कर,
किसी तरह भी टैक्स बचा लें 
बने हुए कैसे घनचक्कर !

जाने किस मिट्टी के बने हैं 
चैन से ऊपर धन को रखते,
इज्जत चाहे लगी दांव पर 
काले धन से बाज न आते !

आँखें फ़टी हुई रह जातीं 
अख़बारों मे वही छप रहे,
बात करोड़ों और किलों की
 बिरला, टाटा रोज बन रहे !

किन्तु न अब यह और चलेगा 
कानून अब नहीं बिकेगा,
कालाबाजारी न होगी
देश नहीं यह जुर्म सहेगा !





शनिवार, दिसंबर 10

पा प्रकाश का परस सुकोमल


पा प्रकाश का परस सुकोमल


दानव और दैत्य दोनों ही 
मानव के अंतर में रहते,
कभी खिलाते  उपवन सुंदर 
मरुथल में वे ही भटकाते !

गहरी खाई ऊँचे पर्वत
धूल भरे कंटक पथ मिलते,
समतल सीधी राह कभी बन 
फूलों से पथ पर बिछ जाते !

एक बिना न दूजा रहता 
द्वंद्व यही सुख-दुःख जीवन का,
पलक झपकते ही सपनों में 
दैत्य कभी देव बन जाता !

अंधियारी रातों में पलकर 
अंकुर फूटे, खुशबू बनती,
पा प्रकाश का परस सुकोमल 
कली कोई कुसुम बन खिलती !

पीड़ा मन की ही दे जाती 
खुशियों का इक महा समुन्दर,
कृष्ण बांसुरी की धुन बनते 
जब विषाद में घिरे धुरन्धर !





शुक्रवार, दिसंबर 9

नए इरादे फिर करने हैं



नए इरादे फिर करने हैं 

कुछ हफ्तों की उम्र शेष है
 नए वर्ष के दिन चढ़ने हैं,
अभी समय है पूरे कर लें
नए इरादे फिर करने हैं  !

फिर से होगा धूम-धड़ाका
नृत्य, पार्टी, आधी रात,
लेन-देन शुभेच्छा का
कट जाएगी अंतिम रात !

जीवन फिर से करवट लेगा
नई मंजिलें राह देखतीं,
उससे पहले जरा निहारें
रह गयी है जो बात अधूरी !







गुरुवार, दिसंबर 8

जीवन जैसे एक पहेली




जीवन जैसे एक पहेली 


सुख के पीछे रहे भागते 
मुट्ठी खोली दुःख ही था,
स्वप्न स्वर्ग के रहे पालते 
कदमों तले नर्क ही था !

जीवन जैसे एक पहेली 
उलझ गया कोई हो जाल,
हल न जिसका मिला किसी को  
ऐसा मुश्किल एक सवाल !

नजरें जब तक लगीं गगन पर
घर का दीप अदेखा रहता,
सपनों के पीछे जो भागा
मन पँछी वह कैद हुआ !

कर्म सफल हो चाहा इतना
किंतु सफलता रही अधूरी,
आशा का बिरवा बोया था
किसकी आस हुई है पूरी !














बुधवार, दिसंबर 7

राह देखता कोई भीतर


राह देखता कोई भीतर 

बाहर धूप घनी हो कितनी 
घर में शीतल छाँव घनेरी,
ऊबड़-खाबड़ पथरीला मग
दे आमन्त्रण सदा वही  !

लहरें तट से टकरा घायल 
घर जा पुनः ऊर्जित होतीं,
मन लहरों सा सदा डोलता 
घर जाने की सुध न आती !

राह देखता कोई भीतर 
मीलों विस्तृत नीलगगन सा,
क्लांत बटोही पा जाये ज्यों 
चिर आश्रय सुखद बसेरा !

किंतु स्वप्न में खोया अंतर 
घर से दूर निकल आया है,
भूल-भुलैया में जगती की 
स्वयं ही स्वयं को भटकाया है !










मंगलवार, दिसंबर 6

बस वही खिल मुस्कराया

बस वही खिल मुस्कराया


एक रिश्ता दोस्ती का
 फलसफा यह जिंदगी का,
खूबसूरत सा जहाँ  यह
एक नाता हो ख़ुशी का !

अजनबी बनकर रहा जो
भेंट आँसूं , दर्द पाया,
घर बनाया जग को जिसने
बस वही खिल मुस्कराया !

चाँद-तारे गा  रहे यह
फूल, पंछी भी सुनाते,
झोलियाँ भर गीत उर में
हर घड़ी वे गुनगुनाते !

बह  रहा अंतर गुहा से
एक निर्झर  प्रीत का है,
द्वार खुलते ही मिलेगा
पाहनों से जो ढका है  !

सुन रही सारी  दिशाएँ
खोल दें अरमान दिल के,
बाँह  फैलाये खड़ा वह
निकट आ जाएगा चल के !








सोमवार, दिसंबर 5

एक कोमल गीत जैसे



एक कोमल गीत जैसे 


जिंदगी हर पल नयी है 
नींव खुद हमने गढ़ी थी, 
जिन पलों की कल किसी दिन 
आज वह सम्मुख खड़ी है !

सुप्त था मन होश न था 
स्वप्न देखा बेखुदी में, 
जब मिला साकार होकर 
नींद रातों की उड़ी है !

सुखद पल जो भी  मिले हैं 
खुशनुमा से सिलसिले हैं,
ख्वाब बन कर  जो सजे थे 
उन्हीं लम्हों की लड़ी है !

एक कोमल गीत जैसे 
था छुपा अंतर कवि के 
ले रहा आकार सुंदर 
उसी रचना की कड़ी है !



रविवार, दिसंबर 4

अकेलापन और एकांत

अकेलापन



उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक
धरा के इस छोर से उस छोर तक
कोई दस्तक सुनाई नहीं देती

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा
अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन रुदन
और चन्द्रमा का अकेलापन

क्यों हैं ?.....यह दूरियाँ
यह अलगाव यह अकेलापन
जो चुभता है दंश सा !

एकांत 

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक 
धरा के इस छोर से उस छोर तक 
एक ही का पसारा है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा
अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन सृजन 
और चन्द्रमा का एकांत 

अद्भुत हैं यह दूरियाँ
यह विस्तार यह एकांत 
जो मिलता है मीत सा !

शनिवार, दिसंबर 3

लघु जो भी है झर जायेगा

लघु जो भी है झर जायेगा


शाम हुई पुष्प झर जाता  
पात पुराना मुरझा जाता,
निज झोली में बाँधें गाँठें 
मन अतीत के नगमे गाता   !

परम सदा ही खिला-खिला है
वर्तमान में मिला-मिला है,
अच्युत है वह अटल अभी
मन काहे फिर हिला हिला है !

दृष्टि जब ऊपर उठती हो
 लघु जो भी है झर जायेगा,
आहिस्ता से कदम बढ़ा तो  
 लक्ष्य स्वयं सम्मुख आएगा !


शुक्रवार, दिसंबर 2

चलो चलें उस तट हो आएं


चलो चलें उस तट हो आएं 

एक शमा जलती रहती है 
एक नदी बहती रहती है,
एक ध्वनि मद्धिम-मद्धिम सी 
कानों में धुन सी बजती है !

चलो चलें उस तट हो आएं 
स्वयं भी एक ज्योति बन जाएँ,
भँवरा बन गुंजाएं आलम 
मन की तितली यह कहती है !

कुसुमों ने ज्यों गन्ध छुपायी 
सागर में मोती रहता है,
स्वर्णिम आभा भावों में भर 
पलकों से धारा बहती है !

गगन समेटे अनगिन तारे 
मीन बसे लहरों में रंगीं,
जीवन कितने राज छुपाये 
पल-पल यह सृष्टि गहती है !

बुधवार, नवंबर 30

जागरण


 जागरण 

सोयी हुई देशभक्ति भी 
जाग  रही है दिल में सबके,
खोयी हुई आस्था जागी 
मूल्यों के प्रति हर अंतर में !

तप कर सोना कुंदन बनता 
जनता तप हेतु तैयार,
घण्टों पंक्ति में लगकर भी 
कम न होता दिल में प्यार !

भारत नए दौर में पहुँचा 
नई ऊर्जा नई  लहर है,
पारदर्शिता लेन-देन में 
नई चेतना डगर-डगर है !

 नहीं  रुकेगी यह यात्रा 
अब स्वर्णिम युग की आहट  है 
जो न इसके संग चल रहे 
उन कदमों में घबराहट है !

दुनिया देखे परिवर्तन को  
देश नई करवट लेता है,
नव गति, नव उल्लास समेटे 
'सत्यमेवजयते' गाता  है !






मंगलवार, नवंबर 29

मौन


मौन 

सिमट गयी है कविता 
या छोड़ दिया है खजाना शब्दों का 
उस तट पर 
मंझदार ही मंझदार है अब 
दूसरा तट कहीं नजर नहीं आता 
एक अंतहीन फैलाव है और सन्नाटा 
किन्तु डूबना होगा सागर की अतल गहराई में 
शैवालों  के पार....
जहाँ ढलना है ऊर्जा को सौंदर्य और भावना में 
जीवन की सौगात को यूँ ही नहीं लुटाना है 
कवि के हाथों में जब तक कलम है 
और दिल में शुभकामना है उसे 
वक्त के हर अभिशाप को वरदान में ढालना है !

रविवार, नवंबर 27

घुटने का दर्द

घुटने का दर्द 

उम्र की सीढ़ी चढ़ते चढ़ते 
दर्द की इक सौगात मिली,
जितना जितना किया इलाज 
मर्ज को उतनी हवा मिली 

बचपन का वह कोमल सा तन 
युवा काल का गठा बदन,
प्रौढ़ावस्था भी जाने को 
वृद्ध हुआ न माने मन !

चाल में तेजी वही पुरानी 
नहीं आत्मा कभी बदलती,
शौके-फितरत कायम रहता 
सदा जवां यह भरम पालती !

उसी जुनूँ  ने दर्द दिया यह 
गहरी चोट लगी घुटने में,
चलने-फिरने पर बन्दिश है 
जीवन सिमटा है बस  घर में !

दफ्तर आना-जाना छूटा 
हर दिन ही मानता है संडे,
समय बिताने के सार्थक 
सीख लिए हैं कितने फंडे  !

देह भले न मोबाइल हो 
किन्तु हाथ में मोटोजी  है,
फेसबुक पर हाल बताया 
लाइक  की लंबी  लिस्ट है !

फुर्सत ही फुर्सत है अब तो 
जब भी चाहें तानें लंबी,
घण्टों लैपटॉप पर बैठें 
 मूव न हों पर देखें मूवी !







बुधवार, नवंबर 16

बदल रहा है देश

बदल रहा है देश

लोग निकल रहे हैं घरों से
छोटे-बड़े सब समान होकर खड़े हैं लम्बी-लम्बी कतारों में
जिन्हें एक नहीं कर पाये सद उपदेश और भगवान
उन्हें एक ही कतार में ले आया है इस देश का संविधान
आखिर प्रधानमन्त्री को चुना है जनता ने
उसका संवैधानिक हक है
जनता को जागरूक बनाना
देश से भ्रष्टाचार मिटाना
अब किसी को हिम्मत नहीं होगी
नोटों से भरे तिजोरी
या फिर बेहिसाब कमाई में से करे कर चोरी
अब इस देश का कोई माईबाप है
जिसको देना हर किसी को जवाब है
देश बदल रहा है
हमको भी बदलना है
न कि ‘सब चलता है’ का मन्त्र जपना है
अब यहाँ बेईमानी नहीं चलेगी
अभी तो गंदगी फ़ैलाने वालों की नकेल भी कसेगी
स्वच्छ भारत का सपना अब हकीकत बन रहा है
वाकई देश बदल रहा है !

गुरुवार, नवंबर 3

कविता झुलस रही है

 कविता झुलस रही है 

कविता झुलस रही है उस आग में
लगा रहा है जो कोई सिरफिरा
अनगिनत स्वप्न और निशान नन्हे कदमों के
 दफन हो गये जिसकी राख में
उन कक्षाओं की चहकती आवाजें
खो गयीं जैसे बियाबान में
स्कूल की घंटी से बढ़
क्या हो सकता है कोई गीत किसी बच्चे के लिए
जिसमें गाता है उसका भविष्य
सारी समझ आदमी ने
गिरवी रख दी है जैसे
जो जमीन के एक टुकड़े की खातिर
मार रहा है इंसानियत की जागीर
कितना कठिन है वक्त का दौर
जब मर रहे हैं लोग
और दिखाई जाती है उनकी तस्वीर !


बुधवार, अक्तूबर 19

जिंदगी का गीत यूँ ही

जिंदगी का गीत यूँ ही

सोचते ही आज बीता
कल कभी आता कहाँ,
जिंदगी का गीत यूँ ही
छिटक ही जाता रहा !

डर छुपाये जी रहा जग
धुधं, कोहरा या धुआं सा,
मांगता रब से दुआएं
कंप रहा मन पात सा !

नींद में जो स्वप्न देखे
जागते ही खो गये वे,
जग उठे भीतर उजाला
स्वप्नवत होगा जगत ये !

मुस्कुराती जिन्दगी तब 
बाँह फैलाये मिलेगी,
हर कदम पर खिलखिलाती 
गंग धारा सी बहेगी !

मंगलवार, अक्तूबर 18

मन

मन

भर जाता भीतर उत्साह
गायत्री मन्त्र का उच्चार
स्यात् सवितादेव की तरह बंटना चाहता है 
करता आह्लादित युगों-युगों से
गंगा की लहरों का स्पर्श अंतर को
आत्मसागर की ओर बहना चाहता है 
थम जाते कदम देख फूलों का झुरमुट
बियाबान जंगल में भी
बन सुगंध दिग-दिगंत में उड़ना चाहता है 
लुभाती हर दीप की लौ 
 बनकर ज्योति की सुवास मिटना चाहता है
बिखरना सीखा पारिजात से जिसने
सदा ताजा ही रहेगा बन
तोड़ दी सीमाएं, पंछी सा 
 गगन में उड़ेगा ही वह मन !

शुक्रवार, अक्तूबर 14

जो भी राह दिखाने आया

जो भी राह दिखाने आया

एक मुखौटा ओढ़ा सुंदर
चेहरे पर मुस्कान पहन ली,
दिल में चाहे आग सुलगती  
शीतल सी पहचान ओढ़ ली !

हालचाल सब ठीकठाक है
जग को जब विश्वास दिलाया,
 मदमाती जीवन की राह है
दिल ने खुद को भी समझाया !  

जो भी राह दिखाने आया
उसको अपना दुश्मन माने,
छलता जो मन पहले जग को
खुद को ही बंधन में डाले !

मूल छिपा ही रहता भीतर
माया के पर्दे पर पर्दे,
स्वप्नों की इक आड़ खड़ी है
उम्मीदों के जाल बड़े ! 

मंगलवार, अक्तूबर 4

माँ

माँ


शिव रूप में जो निर्निमेष तकता रहता है
माँ बनकर वही अस्तित्त्व समेट लेता है निज आश्रय में
अभय कर देती है माँ शिशु को
स्वीकारती है उसकी माटी से सनी काया 
बन जाती है प्रेम स्वरूपा आनन्दमयी छाया
शक्ति स्वरूपा भर देती है अदम्य साहस और बल
अष्टभुजा धारिणी, महिषासुरमर्दिनी माँ !
समृद्धि और सम्पन्नता की दात्री बन
फिर खोल देती है निज अकूत भंडार
ज्ञान बन कर कभी राह दिखाती है
अंधकार में घिरे मन को
आत्मा के उजाले में ला बिठाती है
हर रूप उसका मनोहारी है
जो परमेश्वरी है.. वही आत्मनिवासिनी है !