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मंगलवार, अप्रैल 22

वेद ऋषि

वेद ऋषि 

वे जो भावों की नदियाँ बहाते हैं 

वे जो शब्दों की फसलें उगाते हैं 

बाड़ लगाते हैं विचारों की 

उन्हें कुछ मिला है 

शायद किसी बीज मंत्र सा 

जिसे बोकर वे बाँटना चाहते हैं 

कुछ पाया है जिसे लुटाना है 

माना कि वे बीजों के जानकार नहीं 

पर आनन्दग्राही हैं 

प्रेम को चखा है 

और रस से भरा है 

लबालब उनका अंतर 

वे अनायास ही आ गये  हैं 

उस घेरे में 

जहाँ मौन प्रखर हो जाता है 

और वहीं कोई कान्हा 

बंसी बजाता है !


मंगलवार, अप्रैल 8

प्रेम

प्रेम 


प्रेम कहा नहीं जा सकता 

वैसे ही जैसे कोई 

महसूस नहीं कर सकता 

दूसरे की बाँह में होता दर्द 

हर अनुभव बन जाता है 

कुछ और ही 

जब कहा जाता है शब्दों में 

मौन की भाषा में ही 

व्यक्त होते हैं 

जीवन के गहरे रहस्य 

शांत होती चेतना 

अपने आप में पूर्ण है 

जैसे ही मुड़ती है बाहर 

अपूर्णता का दंश 

सहना होता है 

सब छोड़ कर ही 

जाया जा सकता है 

भीतर उस नीरव सन्नाटे में 

जहाँ दूसरा कोई नहीं 

किसी ने कहा है सच ही 

प्रेम गली अति सांकरी !


रविवार, अप्रैल 6

मौन की गूँज

मौन की गूँज 


सन्नाटा बहता जाता है 

नीरवता छायी है भीतर, 

खामोशी सी पसर रही है 

गूंज मौन गूँजे रह-रह कर !


तृप्ति सहज  धारा उतरी ज्यों 

सारा आलम भीग रहा है, 

ज्योति स्तंभ का परस सुकोमल 

हर अभाव को पूर रहा है !


चाहत की फसलें जो बढ़तीं 

काटीं किसने कौन बो रहा, 

जगत का यह प्रपंच सुहाना 

युग-युग से अनवरत चल रहा !


रविवार, नवंबर 3

शांतता

शांतता 


आज हम थे और सन्नाटा था 

सन्नाटा ! जो चारों और फैला था 

बहा आ रहा था न जाने कहाँ से 

अंतरिक्ष भी छोटा पड़ गया था जैसे 

शायद अनंत की बाहों से झरता था !


आज मौन था और थी चुप्पी घनी 

सब सुन लिया जबकि 

कोई कुछ कहता न था 

कैसी शांति और निस्तब्धता थी उस घड़ी 

जैसे श्वास भी आने से कंपता था!


 कोई बसता है उस नीरवता में भी

उससे मिलना हो तो चुप को ओढ़ना होगा 

छोड़कर सारी चहल-पहल रस्तों की 

मन को खामोशी में इंतज़ार करना होगा 

यह जो आदत है पुरानी उसकी 

बेवजह शोर मचाने की 

छोड़ कर बैठ रहे पल दो पल 

 उस एकांत से मिल पायेगा तभी !


मंगलवार, मई 28

अंबर पर है सूरज का घर

अंबर पर है सूरज का घर 


उर अंतर लघु पात्र बना है 

सम्मुख विशाल अतीव सागर, 

रह जाता प्यासा का प्यासा 

ख़ाली रहती उर की गागर !


आशाएँ पलती हैं अनगिन 

लेकिन त्याग बहुत छोटा सा,  

अंबर पर है सूरज का घर 

आख़िर कैसे मिलन घटेगा !


 मौन छिपा इक भीतर सबके

बुद्ध विहरते जहाँ रात-दिन,  

हर सीमा मन की टूटेगी 

उगेंगे तुष्टि के नंदन वन !


ख़ुद ही ज्योति पुष्प बनना है

खिलेगा जो शांति सरवर में,

हर दुख बाधा मिट जाएगी 

बढ़ना होगा नयी डगर में !



सोमवार, अप्रैल 22

एकांत

एकांत  

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक

धरा के इस छोर से उस छोर तक

कोई दस्तक सुनाई नहीं देती

जब तक सुनने की कला न आये 

वह कर्ण न मिलें  

 सुन लेते हैं जो मौन की भाषा 

 जहां छायी है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा

वहीं गूंजता है 

अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन हास्य 

और चन्द्रमा का स्पंदन  

मिट जाती हैं दूरियाँ

हर अलगाव हर अकेलापन

जब मिलता है उसका संदेशा 

एक अनमोल उपहार  सा

और भरा जाता है एकांत 

मृदुल प्यार सा  !


गुरुवार, अक्टूबर 19

अनजाने पथ पर वह सहचर

अनजाने पथ पर वह सहचर

नव सृजन घटे नव द्वार खुलें

 कदम पड़ेगा जब अनंत का,

नूतन राग जगेंगे,  जैसे 

 शीश उठाये कोमल दूर्वा !


नव भाषा, नव छंद, शब्द नव 

है अपार उसका भंडारा,  

मिलकर जिससे जीवन जी ले 

मिले सदा के लिए सहारा !


पुष्प खिलेंगे जब श्रद्धा के 

 इक अभिनव मुस्कान उठेगी, 

हर लेगी हर तमस भाव वह 

शुभ्र ज्योत्सना छा जाएगी !


चहुँ दिशाओं में गुंजित सदा 

  तान नशीली प्रेम की अमर, 

हाथ पकड़ कर ले जाता है 

अनजाने पथ पर वह सहचर !


अंतर्यामी मन का वासी 

जो आह्लादित पल-पल रहता, 

अति निकटता के क्षण में कभी  

मौन मुखर उसका हो जाता !


 अपना वही नहीं जो सपना 

हाथ बढ़ाकर छूलें जिसको, 

जिसके होने से ही जग है 

कैसे भला बिसारें उसको !


सोमवार, फ़रवरी 13

मौन

मौन 


मौन को गुनो 

मौन से जो झरती है आभा 

उसे ही चुनो 

जैसे गिरते हैं चुपचाप हरसिंगार 

सुवास फैलाते 

मौन के उन क्षणों से भी 

किस अन्य लोक की सुगंध आती है 

जैसे कोई कहे कृष्ण 

तो राधा अपने आप चली आती है 

और इतना ही नहीं 

गौएँ और गवाले भी ! 

भीतर वृंदावन उभर आते हैं 

और महारास घटता है 

कृष्ण का नाम छुपाए है

 सारा ब्रह्मांड 

मौन में भी 

एक साम्राज्य से मिलन होता है 

जो नितांत अपना है 

नि:शब्द जहाँ कोई रस बहता है !


शनिवार, जुलाई 23

कहीं धूप खिली कहीं छाया

कहीं धूप खिली कहीं छाया  

 

यहाँ कुछ भी तजने योग्य नहीं 

यह जगत उसी की है माया,  

वह सूरज सा नभ में दमके 

कहीं धूप खिली कहीं छाया !


दोनों का कारण एक वही 

उसका कुछ कारण नहीं मिला, 

वह एक स्वयंभू शिव सम है 

उससे ही उर आनंद खिला !


नाता उससे क्षण भर न मिटे 

इक धारा उसकी ओर बहे, 

उससे ही पूरित हो अंतर 

वाणी नयनों से उसे गहे !


उसी मौन से प्रकटी हर ध्वनि

खग, कोकिल कूक पुकार बनी,

सागर में उठी लहर जैसे 

जल धारे ही पल-पल उठती !


जग नाटक है वह देख रहा 

मन भी उसका ही मीत बने, 

कुछ भी न इसे छू पायेगा 

निर्द्वन्द्व ध्यान से भरा  रहे !


बुधवार, जून 22

नदिया ज्यों नदिया से मिलती

नदिया ज्यों नदिया से मिलती  

हर भाव तुझे अर्पित मेरा 

हर सुख-दुःख भी तुझसे संभव, 


यह ज्ञान और अज्ञान सभी 


तुझसे ही प्रकटा सुंदर भव !



तू बुला रहा हर आहट में 


हर चिंता औ' घबराहट में, 


तूने थामा है हाथ सदा 


आतुरता नहीं बुलाहट में !



हो स्वीकार निमंत्रण तेरा


तेरे आश्रय में सदा रहूँ, 


अब लौट मुझे घर आना है 


तुझ बिन किससे यह व्यथा कहूँ !



‘​​मैं’ तुझसे मिलने जब जाता 


मौन मौन में घुलता जाये, 


शब्द हैं सीमित मौन असीम 


वही मौन ‘तू’ को झलकाए !



‘मैं’ खुद को कभी लख न पाता 


जगत दिखा जब मिलने जाए, 


खुद से अनजाना ही रहता 


वक्त का पहिया चलता जाए !



नदिया ज्यों नदिया से मिलती 


सागर में जा खो जाती है, 


‘मैं’ ‘तू’ में सहज विलीन हुआ  


कोई खबर नहीं आती है !





सोमवार, मई 2

शब्दों के जंगल उग आते

शब्दों के जंगल उग आते


मात्र मौन है जिसकी भाषा

शब्दों से क्या उसे है काम,

अनहद नाद बहे जो निशदिन 

सहज दिलाए परम विश्राम !


कुदरत जड़ अनंत चेतन है 

मेल कहाँ से हो सकता है,

तीजे हम हैं बने साक्षी

कौन हमें फिर ठग सकता है ?


शब्दों के जंगल उग आते

प्रीत, ज्ञान जिसमें खो जाते,

  सुर निजता का भुला ही दिया

माया का इक महल बनाते !


मन शशि सम घटता बढ़ता है 

निज प्रकाश कहाँ उसके पास,

जिसके बिना न सत्ता उसकी

उस चेतन पर नहीं विश्वास !


थम जाये तन ठहरा हो मन

अहंकार को मिले विश्राम,

मेधा विस्मित थमी ठगी सी

झलक दिखायेगा तभी राम !


वही झलक पा मीरा नाची

चैतन्य को वो ही लुभाए,

वही हमारा असली घर है

कबिरा उस की बात सुनाये !




बुधवार, फ़रवरी 9

सच

सच  

यहाँ अपना कुछ भी नहीं है 

काया यह कुदरत से मिली   

मन माया भी जिसमें खिली 

भाषा ज्ञान मिला जगत से 

जग से ही पाया जब सब कुछ

यहाँ खोना कुछ भी नहीं है 

बस एक अहसास है, होने का 

वह कौन है ? कोई क्या माने 

कभी रस धार मन में फूटती सी 

कहाँ हैं स्रोत ? कोई क्या जाने 

कभी इक दर्द भी दिल में समाता  

जहाँ में दुःख बहुत देखा न जाता 

 हुआ है मौन मन  ! अब क्या कहे यह 

अजाना है सफर !  जाना किधर ! 

न कोई यह बताता 

इशारों में ही, सूनी राह पर, लिए है जाता 

मगर हर बार गिरने से भी वह ही बचाता 

फ़िकर किसको ? जब पाना कुछ भी नहीं है 

यहाँ अपना कुछ भी नहीं है !