बुधवार, जुलाई 29

साक्षी

साक्षी 

बनें साक्षी ? 
नहीं, बनना नहीं है 
सत्य को देखना भर है 
क्या साक्षी नहीं हैं हम अपनी देहों के 
शिशु से बालक 
किशोर से प्रौढ़ होते ! 
क्या नहीं देखा हमने 
क्षण भर पूर्व जो मित्र था उसे शत्रु होते  
अथवा इसके विपरीत 
वह  चाहे जो भी हो 
वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति 
क्या देख नहीं रहे हैं हम 
एक वायरस को दुनिया चलाते हुए 
थाली में रखे भोजन को 
‘मैं’ बन जाते हुए 
नित्य देखते हैं कली को खिलते 
नदियों को बाढ़ में बदलते 
भूमि को कंपते हुए
सिवा साक्षी होने के हमारा क्या योगदान है इनमें 
चीजें हो रही हैं 
हमें बस उनके साथ तालमेल भर बैठाना है 
जैसे बरसता हो बादल तो सिर पर एक छाता लगाना है  ! 


मंगलवार, जुलाई 28

घर-बाहर

घर-बाहर 

तुम्हारे भीतर जो भी शुभ है 
वह तुम हो 
और जो भी अनचाहा है 
मार्ग की धूल है 
सफर लंबा है 
चलते-चलते लग गए हैं 
कंटक  भी कुछ वस्त्रों पर 
 मटमैले से हो गए हैं 
पर वे सब बाहर-बाहर हैं 
धुल जायेंगे 
एक बार जब पहुंचे जाओगे घर !

मार्ग में दलदल भी थे लोभ के 
थोड़ा सा कीचड़ लगा है पैरों पर 
गुजरना पड़ा होगा कभी जंगल की आग से भी 
धुआँ और कालिख चिपक गयी होगी 
कभी राग के फल चखे होंगे 
मधुर जिनका रस-रंग भी टपक गया है 
कभी द्वेष की आंच में तपा होगा उर 
सब कुछ बाहर ही उतार देना 
घर में प्रवेश करने से पूर्व !

घर में शीतल जल है 
प्रक्षालन के लिए
तुम्हारा जो भी शुभ है स्वच्छ है 
नजर आएगा तभी 
मिट जाएगी सफर की थकान 
और पाओगे सहज विश्राम 
घर बुलाता है सभी को 
पर जो छोड़ नहीं पाते मोह रस्तों का 
भटकते रहते हैं 
अपने ही शुभ से अपरिचित 
 वे कुछ खोजते रहते हैं !

रविवार, जुलाई 26

जब जीवन का मन मर्म न जाने

जब जीवन का मन मर्म न जाने 


 करणीय को  त्याग क्या 
मन अक्सर व्यर्थ के स्वप्न नहीं देखता 
कभी इस.. कभी उस.. सुख के पीछे भागता
जो बन सकती थी नौका को 
लक्ष्य की ओर ले जाने वाली पवन 
बदल तूफान में ऊर्जा वह गंवाता
आहार जो था 
ऊर्जा वृद्धि के लिए 
उसे मिटाने में ही लगा देता 
देह जो बन सकती थी साधन 
क्षतिग्रस्त साध्य उसे बना लेता 
स्वस्थ रहे उपाय खोजता हजार  
और चलते रहते  
अस्वस्थ करने के सारे विहार  
थम कर देखता भी नहीं 
जो कृत्य किये थे सुख के लिए 
दुःख के सामान एकत्र किये जाते वे 
तैरना चाहता है संसार सागर में 
निज हाथों से पैरों में पत्थर बाँध मोह के !

गुरुवार, जुलाई 23

मन


मन

भरता जाता है भीतर जगत का साजोसामान सुंदर स्थान...रिश्तों का सम्मान पर खाली का खाली ही रहता है फिर लगाता है उसमें अवरोध कभी ख़ुशी कभी गम के जब डोलने लगती है उसकी नैया संसार सागर पर...अचानक मिलता हुआ प्रतीत होता है कहीं दूर आकाश धरती से वह जाना चाहता है वहाँ पर वह बिंदु कभी नहीं पाता ! उसकी तलाश जारी है कम से कम अब हल्की है उसकी नाव जो तिरती रहती है सागर की लहरों पर अनायास !

बुधवार, जुलाई 22

भोर

भोर 

बजती हैं चाइम की मधुर घण्टियाँ
प्रातःसमीरण में झूमकर 
पारिजात के फूलों को 
छूकर बहती चली आती है जब वह ! 
लिए आती है संदेश उदित होते नव प्रभात का 
पंछियों के स्वर गान का 
जो अब बस खोलने ही वाले अपने नेत्र 
भोर में प्रकृति कितनी पावन लगती है 
गगन पर बदलियों के पीछे झाँक रहा है 
अभी भी पूनो का चाँद 
पर नजर नहीं आते तारागण 
वह पूनम का चाँद ही तो है खिला-खिला   
वही अपना है जंगल में जैसे 
कोई बिछड़ा मीत मिला 
जानना नहीं है उसे 
अज्ञेय है वह 
पाना भी नहीं है 
कभी खोया ही नहीं वह 
जागना है 
, भूल गया है जो मन उसे याद भर दिलाना है 
अस्तव्यस्तता छायी है जो जीवन में 
उसे सँवारना है 
मिलता है वह भोर और संध्या काल में  

मंगलवार, जुलाई 21

चाहे जो भी रूप धरा हो


चाहे जो भी रूप धरा हो 


जल ही लहर लहर से सागर 
जल ही बूंद भरा जल गागर, 
फेन बना कभी हिम् चट्टान 
वाष्प बना फिर उड़ा गगन पर !

चाहे जो भी रूप धरा हो 
जल तो आखिर जल ही रहता,
मानव मन भी इक नदिया सा 
अविरल अविरत  बहता रहता !

करुणामय बोल कभी बोले 
कभी क्रोध के भाव जगाये, 
कभी मधुर गीतों में डूबा 
लोभ की फिर छलाँग लगाए !

स्वयं नए संकल्प जगाता
खुद ही उनको काट गिराता,
खुद ही निज को कमतर आँकें 
तुलना कर निज को फँसवाता !

अपने ही सिद्धांत बनाये 
टूटें तो रह रह पछताए, 
सहता है उन पीड़ाओं को 
जिनके बिरवे स्वयं लगाए !

सोमवार, जुलाई 20

जीवन मिला था फूल सा


जीवन मिला था फूल सा 


सुख कामना के पाश में  
जकड़ा रहा दिन-रात मन, 
जो  था सदा जो है  सदा 
होता नहीं उससे मिलन !

जीवन मिला था फूल सा 
फिर शूल बन कर क्यों चुभे, 
प्रज्ञा का दीप जल रहा 
पर रात काली क्यों डसे !

जो जानता है राज यह 
है रिक्त उसका मन हुआ, 
वह शून्यवत आकाश है 
विलीन हर अनुबंध हुआ !

पशु है वही जो पाश में 
जकड़ा हुआ है काम में, 
मानव वही जो झाँक ले 
नयनों में उस अनाम के !

रविवार, जुलाई 19

कैसे कोई समझे उसको


कैसे कोई समझे उसको 
 

वह अजर अमर, है अटल शिखर 
अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप रहा, 
कुसुमों से भी कोमल उर है 
बन मानव हर संताप सहा !
 
लघु पीड़ा से व्याकुल होता 
प्रियजन पर प्रेम लुटाता है, 
जब कोई राह भटक जाता 
करूणाकर पुनः दिखाता है !
 
वह वाणी का मर्मज्ञ बड़ा 
रसिक दिलदार रसज्ञ भी है, 
प्रकृति ने अनेकों रूप धरे 
भरे प्राण उन्हें डुलाता है !
 
जड़ चट्टानों से झर निर्झर
उससे ही बह चैतन्य हुए,
अग्नि की लपटों में प्रज्ज्वलित 
वायु के प्रचंड झकोरों में !
 
असीम अंबर सा व्याप्त रहा 
सब लीला उसमें घटती है, 
कैसे कोई समझे उसको 
मेधा भी उससे झरती है !
 
वह शिव भी है शक्ति भी वही 
वह एक बहुत अलबेला है,
उसको भजता मन जिस क्षण जो  
रहता ना कभी अकेला है !
 

शनिवार, जुलाई 18

माँ

माँ 


दी शिक्षा, अक्षर ज्ञान दिया 
ममता का पाठ पढ़ाया भी, 
दुनियादारी के सूत्र दिए 
हाथों का हुनर सिखाया भी !

तारीफों का इक ताज दिया 
ना दोष कभी देखा कोई, 
सुख की बरसात सदा ही की 
माँ बच्चे के दुःख पर रोई !

हों अवगुण कई, मानवी है 
माँ की ममता निर्दोष सदा, 
जीवन में साथ निभाती है 
सँग जीवन के भी बाद सदा !

शुक्रवार, जुलाई 17

मिथ्या-अमिथ्या

मिथ्या-अमिथ्या 


बादल ज्यों नभ में आकार लेते हैं 
और पल में बदल जाते हैं 
सागर में लहरें, बूंदें, फेन बनती, बिगड़ती हैं 
गगन पर नक्षत्र  उगते, अस्त होते हैं 
कहीं  कोई स्थिर नहीं... 
देह में कोशिकाएं जन्मती-मरती रहती हैं प्रतिक्षण 
मन एक सरिता की भांति 
बहता जाता है अनंत काल से 
क्रोध, प्रेम, उदारता की लहरें जिसमें 
उमगती मिटती रही हैं हजारों बार 
जो अभी था, अभी नहीं है 
 मिथ्या है
जैसे पर्दे पर कोई तस्वीर हो चलती फिरती 
छुपा है वह प्रोजेक्टर जो पीछे से 
भेज रहा है प्रकाश  
जिससे बनती हैं ये सारी आकृतियां 
उसे खोजें और पल भर के लिए ही कभी 
रिक्त हो जाये पट 
शायद उस क्षण मिलन होगा उससे 
जो मिथ्या नहीं है !


गुरुवार, जुलाई 16

माया

माया 


कभी दर्द दिया 
कभी मुस्कानें
कभी रोये औरों के दुःख पर 
फिर दिए उन्हीं को ही ताने
कभी राह दिखाई मंजिल की 
कभी मन में  संशय भर डाला
कभी रोका जिस पथ चलने से 
फिर उसका पता बता डाला ! 
रिश्तों की ऐसी माया है 
कोई पार निकल कर ही जाने 
यह निज कर्मों की खेती है 
सुख-दुःख के बोये थे दाने !


बुधवार, जुलाई 15

जरा पार की हद आंगन की

जरा पार की हद आंगन की 


काल समेटे दुनिया अपनी 
उससे पहले ही जगना है,
ताग बटोरे बांध एक में 
जान ही लें जगत सपना है ! 

जब तक बचा रहा पंजे से 
तब तक मूषक रहा कुतरता, 
पड़ जाता ज्यों उसके फंदे 
मार्जार बन काल झपटता !

ऐसा ही कुछ कोरोना है 
दबे पाँव राहें तकता है,
जरा पार की हद आंगन की 
नहीं रहम पल भर करता है !

धनवानों का धन रह जाता 
रुतबा, पद कुछ काम न आता, 
चपरासी से राष्ट्रपति यहा
एक तराजू तौला जाता ! 

मंगलवार, जुलाई 14

एक -अनेक

एक -अनेक 


ऊपर चढ़ने का मार्ग एक ही है 
नीचे उतरने के मार्ग हजारों 
पांडव पांच हैं,  कौरव सौ 
ब्रह्म एक है, जीव अनंत 
विद्युत एक  
उसके कार्य अनेक 
समाधान वहीं है जहाँ एक है
 दो होते ही 
प्रपंच का हो जाता श्रीगणेश है 
जो भी आया है जहां में 
जाल फैलाया है उसी ने 
समेटना होगा एक-एक-कर सारे तंतुओं को 
बटोर कर करना होगा एक ही पुल का निर्माण 
जिसके पार वह एक है
सौंप देना होगा सब 
देह धरा को 
मन जल को 
मेधा अग्नि को
और जुड़ जाना होगा 
एक से ही.... !

सोमवार, जुलाई 13

अभय

अभय 

भयाक्रांत मन विचार नहीं करता 
वह केवल डरता है 
अस्तित्त्व के साथ एक नहीं होता 
संशय ही भीतर भरता है 
स्वप्नों के में भी डरा जाते हैं उसे पशु और दानव 
भूल ही जाता है वह कि देवों की संतान है मानव 
भय खबर देता है कि अभी आस्था अधूरी है 
अभय के लिए जागना जरूरी है 
कि अनंत से जुड़े हैं हम 
जो इस ब्रह्मांड का संचालक है 
वही हमारा भी पालक है 
भय की आँखों में झांकना होगा 
उसके पार ही वह अभय बसता है 
जो हर हाल में हँसता है 
जीवन का मोह जिसे नहीं बांधता 
उहापोह की अग्नि में मन को नहीं रांधता
अपनी ऊर्जा को नकार में नहीं खोता  वह 
सदा एक रस ही बहता है 
भय का क्या काम वहाँ 
जिस दिल में अभय रहता है ! 

रविवार, जुलाई 12

भय

भय 


भयभीत मन
 कंपता है पीपल के पत्ते की तरह 
हर आशंका के हल्के से झोंके पर 
डोल जाती है उसकी आस्था भी 
भय हर लेता है 
सारी स्थिरता और सौंदर्य अंतर का 
एक सूक्ष्म विषाणु से डरी हुई है आज मानवता
जो प्राणघातक न भी होता 
पर भयाक्रांत मन 
रोक देता है ऊर्जा का प्रवाह अपने ही भीतर
उसकी मति जकड़ जाती है ज्यों 
सद्विचार का प्रवाह रुक जाता है 
बस एक ही विचार 
खोल बना लेता है चारों ओर
भय ही नाश करता है कुछ लोगों का 
विषाणु नहीं 
सम्भवतः वे खो जाते है बेहोशी या तन्द्रा में 
भय से बचने के लिए 
जैसे शुतुरमुर्ग गड़ा लेता है 
अपनी गर्दन रेत में 
महामारी कुछ को लेने आती है 
पर उसका भय अनेकों को ले जाता है ! 

गुरुवार, जुलाई 9

इक अनंत आकाश छुपा है

इक अनंत आकाश छुपा है 

इक अनंत आकाश छुपा है 
ऋतु बासन्ती बाट जोहती, 
अंतर की गहराई में ही 
छिपा सिंधु का अनुपम मोती !

दिल तक जाना है दिमाग से 
भाव जगे, छूटें उलझन से, 
कुशल-क्षेम का राग मिटे अब 
मुक्ति पा लें सभी अभाव से !

मिटे नहीं जब खुद से दूरी
दिखे आवरण, उलझा आशय,
उस अनाम में अटल प्रीत हो 
कदम-कदम पर मिले आश्रय ! 



मंगलवार, जुलाई 7

जिंदगी खुद राज अपने

जिंदगी खुद राज अपने 

व्यर्थ जो भी छूट जाये 
सार्थक हृदय को लुभाये, 
जिंदगी खुद राज अपने 
खोल मंजिल पर बिठाये !

बस यही इक प्रार्थना हो
मौन गीतों में गुजाएँ, 
चाह का हर बीज जलकर 
रिक्त हो मन गुनगुनाये !

जो तुम्हारी कामना हो 
हाथ से वह कर्म हो अब, 
जो नचाता था अभी तक 
हुक्म मन तेरा बजाए !

विमल गंगा बन बहा है 
ज्ञान गीता का कहा है, 
धर्म तुझसे पल रहा है 
सत्य का यह ध्वज बताये !

सोमवार, जुलाई 6

बेखुदी में आँख मूँदे हम सदा ही

बेखुदी में आँख मूँदे हम सदा ही 

हर कदम पर कौन हमसे पूछता है 
श्रेय का या प्रेय का तुम मार्ग लोगे, 
बेखुदी में आँख मूँदे हम सदा ही 
प्रेय के पथ पर कदम रखते रहे हैं !

चन्द कदमों तक हैं राहें अति कोमल 
फूल खिलते और निर्झर भी बिखरते, 
किन्तु आगे राह टेढ़ी है कँटीली 
दिल हुए आहत जहाँ रोते रहे हैं !

फिर कहीं से इक जरा आवाज आती 
प्रेय का तज श्रेय का हम मार्ग लेते, 
झेलते दुश्वारियां थोड़ी शुरू  में 
चैन की फिर नींद हम सोते रहे हैं !

सत्य का पथ, प्रेम का पथ श्रेय का है 
आज दिल पर हाथ रखकर यह शपथ लें, 
प्रेय जो लगता नयन को छल निकलता 
पथ वही शुभ श्रेय ही जिसमें छुपा है !

रविवार, जुलाई 5

गुरू प्राकट्य सूर्य समान

गुरू  प्राकट्य सूर्य समान

गुरु की गाथा कही न जाये
शब्दों में सामर्थ्य कहाँ है,
पावन ज्योति, विमल चांदनी 
बिखरी उसके चरण जहाँ हैं !

गुरू  प्राकट्य सूर्य समान
अंधकार अंतर का मिटाए,
मनहर चाँद पूर्णिमा का है 
सौम्य भाव हृदय में जगाए !

सिर पर हाथ धरे जिसके वह
जन्मों का फल पल में पाता,
एक वचन भी अपना ले जो
जीने का सम्बल पा जाता  !

महिमा उसकी अति अपार है
बिन पूछे ही उत्तर देता,
सारे प्रश्न कहीं खो जाते
अन्तर्यामी सद्गुरु होता !

दूर रहें या निकट गुरू के
काल-देश से है अतीत वह,
क्षण भर में ही मिलन घट गया
गूंज रहा जो पुण्य गीत वह !

पावन हिम शिखरों सा लगता
शक्ति अटल आनंद स्रोत है,
नाद गूंजता या कण-कण में
सदा प्रदीप्त अखंड ज्योत है !

वही शब्द है अर्थ भी वही
भाव जगाए दूसरा कौन,
अपनी महिमा खुद ही जाने
वाणी हो जाती स्वयं मौन !

निर्झर कल-कल बहता है ज्यों
गुरू से सहज झरे है प्रीत,
डाली से सुवास ज्यों फैले
उससे उगता मधुर संगीत !

धरती सम वह धारे भीतर
ज्ञान मोती प्रेम भंडारे,
बहे अनिल सा कोने-कोने
सारे जग को पल में तारे  !

शनिवार, जुलाई 4

खेल कोई चल रहा ज्यों

खेल कोई चल रहा ज्यों 

विवश होकर आज मानव 
कैद घर में पूछता यह, 
कब कटेगी रात काली 
कब उजाला पायेगा वह ? 

उच्च शिखरों पर चढ़ी थी 
धूल धुसरित आज आशा, 
खेल कोई चल रहा ज्यों 
साँप-सीढ़ी की सी भाषा !

रज्जु को यदि सर्प माना
भय की दीवारें चुन ली, 
किन्तु ऐसा भी चलन है 
सर्प से ही आड़ बुन ली !

आज ऐसा ही समय है 
व्यर्थ सारा श्रम हुआ है, 
जहाँ पनपी आस्था थी 
भान होता भ्रम हुआ है !

सत्य को यदि ढूँढ पाए 
भूल से वह नहीं छिटके, 
राह अपनी जो चुनें फिर  
कदम ना उस डगर ठिठके !

शुक्रवार, जुलाई 3

द्रष्टा

द्रष्टा 

कवि द्रष्टा है 
उसने सत्य देखे हैं 
भुला देने दो सारे शास्त्र 
वह स्वयं शास्त्र है 
भुला देने तो सारा अतीत 
वह नया इतिहास रचेगा 
उससे झरते हैं शब्दों के झरने 
जहां से बनती है सृष्टि 
उसने चुना है वह 
जो कोई अन्य नहीं चुनता !
राही है वह अनजान राहों का 
अनसुलझे रहस्यों का 
बिना चढ़े ही नापी हैं उसने हिमालय की चोटियां 
रोया है उसका मन 
उस कृषक के साथ 
सुख गए हैं जिसके खेत 
वह मुस्काया है वर्षा की पहली बून्द पर 
उस तरह जैसे मुस्काये न कोई 
कोहिनूर मिलने पर !


गुरुवार, जुलाई 2

अस्तित्त्व और हम

अस्तित्त्व और हम 

सुकून झरता है 
उसी तरह...  जैसे जल 
हम उपेक्षा का छाता लगाए 
बच निकलते हैं 
काश ! अस्तित्व के साथ यूँ होता मिलन
जैसे टकराते हैं दो पात्र निकट आकर सहजता से 
और फ़ैल जाती है संगीत की स्वर लहरी !

मिलन तो निरन्तर घटेगा 
उसी से उपजे हैं 
उसी में रहेंगे.... 
इस मिलन से बह सकता है 
मधुर गीत 
या फूट सकती हैं ज्वालायें !

उसके साथ यदि टकराई  लहर 
जो सागर अनंत है 
तो खो जाएगी...
 चाहे तो लहराए उसके विशाल प्रांगण में 
संगीत गुंजाए.... नाचे 
सूर्य की किरणों में 
सतरँगी आभा बिखराये !

कभी निकल पड़े आकाश की यात्रा पर 
फिर बदली संग बरस जाए
मानसरोवर  या हिमालय शिखर पर
प्रकृति के साथ संघर्ष हुआ 
तो रोना ही होगा 
न जाना यह भेद तो 
हर युग में मानव को को-रोना ही होगा !

बुधवार, जुलाई 1

सूरज और चाँद

सूरज और चाँद 

‘वह’ सूरज है... 
भरी दोपहरी का 
 तपता  सूरज !
हमें चाँद की शीतल उजास ही सुहाती है  
 मुख फेर लेते हैं हम
उजाले से 
या हमारी आँखें मुंद जाती हैं !

तज प्रखर ज्योति  
 तज विस्तीर्ण गगन  
घूमता रहता मन अपनी ही गलियों में
मद्धिम ज्योत्स्ना 
ही मन को लुभाती है !

वहाँ कोई दूसरा नहीं 
यहाँ पूरा जगत है, 
वहाँ निस्तब्धता है 
यहाँ कोलाहल है !

कोई-कोई ही ‘उसका’
चाहने वाला 
मन का तो हर कोई रखवाला 
‘उसकी’ ही रौशनी प्रतिबिंबित करता  
फिर भी ‘उसके’ निकट जाने से डरता  
सूरज के उगते ही छिप जाता चाँद 
खो जाते  तारिकाओं के समूह 
वह एकक्षत्र स्वामी है नभ का 
नींद में छिप जाता है लेकिन 
 मन स्वप्न तो बुनता ही रहता  
‘उसका’ बल वहाँ नहीं चलता !