खुल गए जो बंधन कब के
इक यादों की गठरी है
इक सपनों का झोला है,
जो इन्हें उतार सकेगा
उसमें ही सुख डोला है !
जो कृत्य हुए अनजाने
या जिनकी छाप पुरानी,
कई बार गुजरता अंतर
उन गलियों से अक्सर ही !
खुल गए जो बन्धन कब के
तज-तज कर पुनः पकड़ता,
ढंग यही आता उसको
उनमें खुद व्यर्थ जकड़ता !
सुख बन चिड़िया उड़ जाता
मन में ही जो उलझा है,
जब तक यह नहीं मिटेगा
यह जाल कहाँ सुलझा है !