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रविवार, नवंबर 17

प्रेम

प्रेम 


प्रेम के क्षण में 

स्वर्ग बन जाती है दुनिया 

देव बन जाता है मन 

जो देना चाहता है 

सारे वरदान 

इस जगत को 

प्रेम की नन्ही सी किरण

मिटा देती है सारा तम

खिल जाता है मन उपवन 

प्रेम की तरंग 

भिगो देती है 

आसपास के तटों को 

जब उठती है हास्य के सागर में 

प्रेम दिव्य है 

मानव का मूल है 

पर जो ढक जाता है 

द्वेष और नासमझी के पहाड़ों से

धारा में मीलों नीचे दबे 

हीरे की तरह 

अनदेखा ही रह जाता है 

मन की खुदाई कर उसे पाना है 

प्रियतम के मुकुट में सजाना है 

बार-बार सुननी हैं प्रेम गाथायें 

और गीत प्रेम का गाना है ! 


गुरुवार, अक्टूबर 13

अभय



अभय 


सूरज की एक किरण 

सागर की एक बून्द 

सारी पृथ्वी की धूल का एक कण 

अनंत ध्वनियों में एक स्वर 

हम वही हैं 

पर जब जुड़े हैं स्रोत से 

तो कोई भय नहीं !


सोमवार, नवंबर 29

चाहे तो

चाहे तो 


कभी कुछ भी नहीं बिगड़ता इतना

कि सुधारा ही न जा सके 

एक किरण आने की 

गुंजाइश तो सदा ही रहती है !

माना  कि अंधेरों में कभी 

विष के बीज बो डाले थे किसी ने 

फसल नष्ट कर दे

कुदरत इतनी दयावान तो 

हो सकती है !

यहाँ अंगुलिमाल भी 

घाटे में नहीं रहता सदा के लिए 

किसी रत्नाकर की क़िस्मत 

पलट सकती है !

न भय न अफ़सोस जता 

कि बात बिगड़ी हुई 

इसी पल में बन सकती है 

संकल्प में शक्ति जगे तो 

पर्वत भी मार्ग दे देते हैं 

हर मात शह में टल सकती है 

जब ‘वही’ है सूत्रधार इस नाटक का 

चाहे तो पर्दा गिरने से पहले 

भूमिका बदल सकती है !




गुरुवार, जून 18

तू और मैं

तू और मैं 


जैसे कड़ी से कड़ी जुड़ी है इस तरह 
कि कोई जोड़ नजर नहीं आता 
‘तू’ जुड़ा है’मैं’ से उसे भेद जरा नहीं भाता 
‘मैं’ को यह ज्ञात नहीं 
 निज संसार बसाता है
सृष्टि के अहर्निश गूँजते संगीत में 
अपनी ढपली अपना राग सुनाता है 
कभी सुर मिल जाते हैं संयोग से तो 
फूला नहीं समाता
जब बेसुरा लगता है संगीत तो 
अश्रु बहाता है 
  भुला जड़ें गगन में फूल खिलाता है 
 तज भाव तर्क में प्रवीण हुआ जाता है 
 हो सकती है पृथक सुरभि पुष्प से ?
तपन अगन से या किरण सूर्य से ?
पर ‘मैं’ असंभव को संभव कर दिखाना चाहता है !

गुरुवार, नवंबर 13

ग्रीष्म की एक संध्या

ग्रीष्म की एक संध्या



छू रही गालों को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए अम्बर पे देखो झूमते से श्याम घन 

दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कोई कोकिल गा रही

कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें 

छू रही बालों को आके कर रही अठखेलियाँ
जाने किसको छू के आयी लिये नव रंगरेलियाँ 

चैन देता है परस और प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठ एक चितेरा कूंची नभ पर है चलाता 

झूमते पादप हंसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पत्ते खिलखिला गुड़हल मगन 

गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी 

है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो 

सोमवार, नवंबर 19

पारिजात क्यों झर जाते हैं






फूलों, रंगों, झरनों वाले, क्यों भाते हैं गीत
तू बसता है इनमें स्वयं ही, तू जो सबका मीत !


कुहू कुहू कूजन वूजन
सब तुझसे ही घटती है,
एक लोक है इससे सुंदर
सदा वहीं से आती है !

यह हल्की सी छुवन है तेरी
पत्तों की सरसर भी तुझसे,
शरद काल का नीला अम्बर
कहता तेरी गाथा मुझसे !

हरी कोंपलों पर किरणों की
 चमक रूप नए धरती है,
स्वर्णिम तेरा रूप अनोखा
छवि कैसी पुलक भरती है !

केसरिया, श्वेत तन वाले
पारिजात क्यों झर जाते हैं,
तेरे सुरभि कोष से लेकर
कतरे चंद बिखर जाते हैं !

धूप-छाँव का खेल अनोखा
दिवस-रात्रि का मेला अद्भुत,
तूने सहज रचा है प्रियतम
तू ही बदली तू ही विद्युत !  

रविवार, जनवरी 22

वह और हम


वह और हम

जब परमात्मा हमारे द्वार पर खड़ा होता है
हम नजरें झुकाए भीतर उसे पत्र लिख रहे होते हैं
भोर की पहली किरण के साथ हर सुबह जब
वह हमें जगाने आता है
करवट बदल कर हम मुँह ढक के सो जाते हैं
जब किसी के अधरों से कोई सूत्र बन कर
वह कानों तक आता है हमारे,
हम कंधे उचका कर कह देते हैं, अभी जल्दी क्या है
सोचेंगे आपकी बात पर फिर कभी
वह दस्तक देता है अनेकों बार
कभी सुख कभी दुःख की थपकी लगाकर
हमने उसकी ओर न देखने की कसम खाली हो जैसे
नजरें चुराते निकल जाते हैं....
प्रीति भोज में पेट भर जाने पर वह टोकता है भीतर से
अनसुना कर उसे नई प्लेट में
बस एक मिठाई और परोस लेते हैं हम
परमात्मा भी थकता नहीं
वह बुलाए ही जायेगा...
हम भी कुछ कम नहीं...
पर जीत तो उसकी ही होगी
आखिर वह हमारा बाप है...

गुरुवार, जून 9

बीतेगा यह दौर भ्रमों का


बीतेगा यह दौर भ्रमों का


घोर तिमिर छाया है नभ में
तारा एक न चन्द्र चमकता,
काले असुरों से घन बादल  
मार्ग न कोई कहीं सूझता !

अंधकार में घूमा करती
दुर्दमन की दानवी छाया,  
मोह ग्रस्त है सोया जग यह
आवेशित कर हंसती माया !

एक किरण नन्ही सी कोई  
अदृश्य पर जले रात-दिन,
एक आँख कभी साथ न छोड़े
नजर टिकाये रहती पल-छिन !

वही किरण पथ दिखलाएगी
राह नजर फिर आ जायेगी,
भ्रम में डूबे जन मानस को
वही मार्ग पर ले आयेगी !

बीतेगा यह दौर भ्रमों का
विश्वासों की फिर जय होगी,  
आरोपों, प्रत्यारोपों की
दुखद श्रंखला खंडित होगी !  

सब मिल कर सहयोग करेंगे  
सत्यमेवजयते  बोलेंगे,
तज स्वार्थ संकीर्णताओं को
बनके प्रेम प्रपात बहेंगे !

ऋषियों, मुनियों का यह भारत
भ्रष्ट राष्ट्र न कहलायेगा,
भीतर से ही  तृप्त हुआ जो
लोभ उसे क्या छल पायेगा !

अनिता निहालानी
९ जून २०११