स्त्री विमर्श
स्त्री, स्त्री है उसके पूर्व मानवी है
मानव होना भूल गए हैं आज हम
देह मात्र नहीं है मानव
मनन ही बनाता है मानव को मानव....पर
मनन करने की फुरसत किसे है आज..
दौड़ते हैं सुबह से शाम तक
मायावी स्वप्नों के पीछे
न समय है प्रकृति के सान्निध्य में वक्त गुजारने का
न अपने भीतर झाँकने का..
उपभोक्ता बनकर गिर गया है मानव अपनी गरिमा से
चाहे पुरुष हो या स्त्री...
और...समय काटने को ही नहीं क्या
उछाल देते हैं कोई न कोई नारा...
छेड़ देते हैं कोई विवाद
और घिर जाते हैं स्वयं भी उसी के घेरे में..
मुक्ति चाहती है स्त्री
उठा था यह नारा पश्चिम में
उठा था किन्तु हजारों वर्ष पूर्व भारत में भी
मुक्ति चाहता है मानव
मुक्ति किससे ?
अपनी भीरुता से, अज्ञान से, अशिक्षा से,
मुक्ति प्रमाद से, जड़ता से, रूढियों से..
भला कौन नहीं चाहता ऐसी मुक्ति
पर नहीं...नारों में खो जाते हैं मूल प्रश्न
कोई नहीं सोचता इस मूल मुक्ति की बाबत...
तथाकथित मुक्ति मिली भी तो नारीत्व से...
जो उसका गौरव था
प्रेम, सहिष्णुता, और समर्पण
उसकी कमजोरी नहीं थी
यही थी उसकी गरिमा..
लेकिन प्रेम को तिलांजलि दे
पुरुष विहीन जीवन को अपनाने वाली स्त्री
क्या एकांगी नहीं होती गयी..
हाँ...देखा है मैंने भी दादा को चिल्लाते हुए
दादी पर, जो चुपचाप सुन लेती थी सिर झुकाए ..
बाद में हंसकर बताते
वे काबू नहीं रख सकते गुस्से पर, जैसे मैं रख सकती हूँ
और यह भी कि कठिन परिस्तिथियों में
बनीं थीं सम्बल साथ निभाया दादा का हर हाल में...
देखा है पुत्र का फोन न आने पर करवटें बदलते पिता को
श्रम से कमाई धन राशि को
थमा देते पति को पत्नी के हाथों...
लाकर देते अच्छी पुस्तकें एक दूसरे को
ताकि ज्ञान का प्रकाश पा सकें
कर सकें अपनी ऊर्जा, समय का सदुपयोग
ऐसे जोड़े जो सहभागिता का जीवन जीते हैं..
अस्तित्त्व में दो नहीं हैं स्त्री और पुरुष
जीवन रथ के दो पहिये
आश्रित हैं एक दूसरे पर
साहस, बल व उदारता जहाँ आभूषण हैं मानवीयता के
वहाँ कैसे कोई भेद करेगा कि ये मिलते हैं
स्त्री हृदय में या पुरुष हृदय में..
स्त्री होने का सुख चाहती हैं जो
वे साथ आयी जिम्मेदारियों से
मोड़ सकती हैं कैसे मुँह..
क्यों कोई माँ या दादी नवजात पुत्री को नहीं
स्वीकारती उसी चाव से ...
क्यों ईर्ष्या की आग में जलने लगती हैं
एक ही पुरुष के लिये चाहे वह उनका प्रिय क्यों न हो..
क्यों नहीं कचोटती उनकी आत्मा
निरीह बालिका से घर का काम कराते
बिना माथे पर शिकन डाले भर लेती हैं झोली
पिता की मेहनत की कमाई दहेज के नाम पर
क्यों नहीं पूछतीं सवाल पति के बेहिसाब लाए पैसों का
दहेज के नाम पर जलाई जाती हैं स्त्रियां
क्या घर की स्त्रियों का नहीं होता उसमें हाथ
प्रदर्शन करना देहयष्टि का..
महंगे जेवरों व साड़ियों का
लगता है क्यों जरूरी...
क्यों नहीं करतीं विरोध
अपने आसपास होती नोच-खसोट का
चाहे वह पर्यावरण के प्रति हो या मानव के प्रति..
आजादी का अर्थ खुलेआम सिगरेट या शराब पीना तो नहीं
आधी रात तक डिस्को में नाचना भी नहीं
बिताना बहुमूल्य समय को
उबाऊ धारावाहिकों को देख आंसू बहाने में
या किटी पार्टियों में एक दूसरे को नीचा दिखाने में..
सही है कि नहीं आँख मूंद सकते हम
स्त्रियों पर होता है अत्याचार
घरेलू हिंसा का होती हैं शिकार
सहती जाती हैं मूक हुई निराधार
नहीं..शक्ति उन्हें भीतर जगानी होगी
अपनी इज्जत, अपने सम्मान की डोर
अपने हाथों में थमानी होगी
पुरुष जैसी होकर नहीं स्वयं होकर
ही यह कीमत चुकानी होगी
स्त्री, स्त्री होकर कर सकती है जो
आधा अधूरा पुरुष होकर नहीं ...
वह उसके विपरीत जायेगा
वह लड़ेगी अपने आप से और हारेगी
उसकी जीत नहीं है पुरुष होने में...
और न ही अपनी पहचान खोने में
उसकी असली जीत तो पूर्ण स्त्री होने में है
स्त्री विमर्श का अर्थ है
जागरूक होना स्त्री का अपने प्रति..
परिवार के प्रति..समाज के प्रति
इसके नाम पर भ्रमित ही होती आ रही है स्त्री..
एक होना चाहता है हर मानव
अपने भीतर के आधे सच से
हरेक के भीतर सोया है एक विपरीत लिंग...
वही पूर्णता है
उसी की तलाश है...
अर्ध नारीश्वर की अमूल्य खोज
जगत को देने वाले इस देश में
हास्यास्पद जान पड़ती है स्त्री विमर्श की बात
यदि पानी है स्त्री को अपनी गरिमा
तो जगाने होंगे मानवीय मूल्य भीतर
रचनी होंगी नई परम्पराएँ भय को मिटाकर
जहाँ दोनों मित्र हों, प्रतिद्वंद्वी नहीं
पूरक हों एक दूजे के विरोधी नहीं
लड़ाई लंबी है पर लड़ाई अज्ञान के विरुद्ध है
जिससे पिसते पुरुष भी हैं सताए वे भी जाते हैं
अशिक्षा का दानव उन्हें भी खा रहा है
पर जागना होगा अपने अधिकारों के प्रति
तभी लायेंगी सुखद आशा, नव निर्माण की
भविष्य की संतानें.....