गुरुवार, दिसंबर 30
देखो उसने पुनः पुकारा
मंगलवार, दिसंबर 28
ऐसा तो नहीं है
सोमवार, दिसंबर 27
एक और नया साल
शुक्रवार, दिसंबर 24
ईसा ने था यही कहा
राज्य स्वर्ग का दिल के भीतर
लिये हुए, मानव ! तुम फिरते
पर जाने क्यों, हो बेखबर
अहर्निश नरकों को गढ़ते !
धन्य हैं वे जो नम्र, दीन हैं
दुख को दुःख रूप में जानें,
इक दिन होंगे सुख स्वर्ग में
बालक वत् जो होना जानें !
जाल फेंक मछली ही पकडें
थे ईसा न ऐसे मछुआरे,
ऐसा प्रेमिल जाल डालते
खिंच आये मानव, दिल वारे !
तन, मन और आत्मा के भी
घेर रहे जो रोग युगों से,
सबको मुक्त कराया उनसे
गाँव- गाँव घूमें बंजारे !
तुम धरती के नमक अमूल्य
तुम ज्योति इस जगत की सुंदर,
ऐसे विचरो झलके तुमसे
महिमा शाली वह परमेश्वर !
पूजा पाठ बाद में करना
रखना मन को जल सा निर्मल,
शत्रु से भी द्वेष न करना
अंतर्मन भी फूल सा कोमल !
प्रेम के बदले प्रेम दिया तो
ना कोई सौदा बड़ा किया,
सूली पर चढ़ते चढ़ते भी
ईसा ने तो यही कहा था !
अनिता निहालानी
२४ दिसंबर २०१०
बुधवार, दिसंबर 22
इक दिन रब बंदे से बोला
क्यों शंकित है ? क्यों पीड़ित है
हृदय तुम्हारा क्यों कम्पित है ?
साथी हैं हम जनम जनम के
सुख के, दुःख के, हर एक पल के !
किसे ढूंढते नयन तुम्हारे
कैसा दर्द छिपाए दिल में ?
कदम कदम सँग चलना हमको
हर मोड़ पर मिलना हमको !
चलो भुला दो बीती बातें
चलो मिटा दो दुख फरियादें !
हाथ लिये हाथों में अपने
पूर्ण करेंगे सारे सपने !
साथ निभाने का है वादा
तुमने न कुछ माँगा ज्यादा !
जो चाहो वह सदा तुम्हारा
साँझा है यह जीवन प्यारा !
दर्द लिये अनजाने में जो
उन्हें भुला दो, अब तो हँस दो !
बंदा बोला फिर यह रब से
तुमसे ही अपना जीवन है
तुमसे ही यह तन, मन, धन है !
तुम ही हो सर्वस्व हमारे
तुमसे न कोई भी प्यारे!
तुमने ही जीना सिखलाया
तुमसे कितना सम्बल पाया !
हर उलझन को तुम सुलझाते
अपना कर्तव्य निभाते !
तुमसे ही यह जग चलता है
तुम से ही जीवन सजता है !
इस सृष्टि को तुमने चाहा
सुंदर सा इक ग्रह बनाया !
कितने तेजस्वी, मेधावी
कितने प्रखर, कितने बलशाली !
तुमने कितने उपहारों से
सोने चांदी के तारों से !
भर दी है यह दुनिया सारी
जीवन की सुंदर फुलवारी !
साथी ! तुम सँग जीवन प्यारा
तुम न हो सूना जग सारा !
कैसे तुमको भूल गए हम
खुद से ही हो दूर गए हम !
तुम आओगे तकती ऑंखें
सपनों से भर दोगे पाँखें!
अनिता निहालानी
२२ दिसम्बर २०१०
मंगलवार, दिसंबर 21
नए वर्ष की कविता
सोमवार, दिसंबर 20
सृष्टि नई नवेली दिखती
कौन छिपा पर्दे के पीछे
जाने किसको खोज रहे हैं ?
आते जाते लोग युगों से
जाने क्या कुछ खोज रहे हैं ?
किस रहस्य ने बींधा इनको
क्या तलाशती हैं संस्कृतियाँ,
नृत्य, वाद्य, शिल्प के पीछे
छिपी कौन सी आकृतियां !
दूरबीन ले तकते नभ को
नक्षत्रों की कुंडली बांचें,
सागर तल की गहराई में
जीव-जगत के चित्र भी आंकें !
कितने प्रश्न अबूझे अब भी
ज्ञानी-ध्यानी कितने आये,
सृष्टि नई नवेली दिखती
युग पर युग बीतता जाये !
जग के हाथ न कुछ भी आया
जिसने खोजा उसने गाया,
गाकर वह फिर मौन रह गया
सब दे भी कुछ दे ना पाया !
अनिता निहालानी
२० दिसंबर २०१०
शनिवार, दिसंबर 18
झलक दिखायेगा तब राम
मात्र मौन है जिसकी भाषा
शब्दों से क्या उसको काम,
फुसफुसाहट सुन ले उसकी
पा जायेगा मन विश्राम !
इक जड़ प्रकृति दूजा चेतन
मेल कहाँ हो सकता है,
तीजे हम हैं बने साक्षी
कौन हमें फिर ठगता है ?
शब्दों के जंगल उग आते
मन, बुद्धि जिसमें खो जाते,
भूल ही जाते निज होने को
माया का एक महल बनाते !
सूर्य चेतना, मन चन्द्रमा
निज प्रकाश न मन के पास,
जिसके बिना न सत्ता उसकी
मन उस पर न करे विश्वास !
तन स्थिर हो, ठहरा हो मन
अहं पा रहा जब विश्राम,
बुद्धि विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तब राम !
वही झलक पा मीरा नाची
चैतन्य को वही लुभाए,
वही हमारा असली घर है
कबिरा उसी की बात सुनाये !
अनिता निहालानी
१८ दिसंबर २०१०
शुक्रवार, दिसंबर 17
जीवन जैसे खेल क्रिकेट का
द्वंद्वों सम दो टीमें जिसमें
प्रतिद्वंदिता हर पल इसमें,
चारों ओर घिरे फील्डर
शुभचिंतक हैं पैवेलियन में !
सँग जो साथी दूर खड़ा है,
विकेट कीपर का डर बड़ा है.
परिस्थितियों की गेंदें आतीं
कितनी खुद को नहीं सुहातीं,
फिर भी चौके, छक्के मारें
जीवन कला यही सिखाती !
अनिता निहालानी
१७ दिसंबर २०१०
गुरुवार, दिसंबर 16
आईना इक यह जगत है
बुधवार, दिसंबर 15
नव गीत जब रचने को है
कैद पाखी क्यों रहे जब आसमां उड़ने को है,
सर्द आहें क्यों भरे नव गीत जब रचने को है !
सामने बहती नदी ताल बन कर क्यों पलें,
छांव शीतल जब मिली धूप बन कर क्यों जलें !
क्षुद्र की क्यों मांग जब उच्च सम्मुख हो खड़ा,
क्यों न बन दरिया बहे जब प्रेम भीतर है बड़ा !
तौलने को पर मिले भार दिल में क्यों भरें,
आस्था की डोर थामे मंजिलें नई तय करें !
गान उसके गूंजते हैं शोर से क्यों जग भरें,
छू रहा हर पल हमें पीड़ा विरह की क्यों सहें !
जाग कर देखें जरा हर ओर उसकी ही छटा,
प्राण बन कर साथ जो छा गया बन कर घटा !
हर रूप के पीछे छिपा जो प्राप्य अपना हो वही,
हर नाम में बसता है वह नाम जिसका है नहीं !
अनिता निहालानी
१५ दिसम्बर २०१०
मंगलवार, दिसंबर 14
कोई मेघ प्रीत बन बरसा
दिल के आँगन की मुंडेर पे, यादों की गौरैया चहकी
फूलों वाले इस मौसम में, मदमाती पुरवैया महकी I
स्मृतियों की चूनर ओढ़े, मन राधा ने गठरी खोली
बौर लदे आमों के वन में, इठलाती कोयलिया बोली I
सिंदूरी वह शाम सुहानी, था बचपन जब हो गया विदा
कोई मेघ प्रीत बन बरसा, यह मन उस पर हो गया फ़िदा I
बाबा की वह हंसतीं आँखें, माँ का भीगा-भीगा प्यार
याद आ रहा बरसों पहले, छलका था भैया का दुलार I
जीवन कितना बदल गया है, मन अलबम ने दी याद दिला
फेरे वाली साड़ी का पर, है नहीं अभी तक फाल खुला I
अनिता निहालानी
१४ दिसंबर २०१०
सोमवार, दिसंबर 13
ज्योति बरसती पावन घन की
क्यों पीड़ा के बीज बो रहे,
मन की इस उर्वर माटी में,
खुद सीमा में कैद हो रहे
जीवन की गहरी घाटी में !
अंकुर फूटा जिस पल दुख का,
क्यों विनष्ट किया न, हो सचेत ?
झूठे अहंकार के कारण
क्यों जला दिया न, रहे अचेत ?
पनप रहा अब वृक्ष विषैला,
सुख-दुःख फलों से भरा हुआ,
क्यों छलना से ग्रसित रहा मन
कैसे न कटा जब समय रहा I
केवल एक अटूट जागरण
दूर करेगा पीड़ा मन की,
दरिया से गहरे अंतर में
ज्योति बरसती पावन घन की !
ख़ुद के भीतर गहन गुफाएँ
छिपा हुआ जल स्रोत है जहाँ,
प्यास बुझाता जो अनंत की
ऐसा पावन मधु स्रोत वहाँ !
शुक्रवार, दिसंबर 10
जीवन द्वन्दों की है क्रीड़ा
जीवन मन मोहक अति सुंदर
किन्तु बाँध दे मोह पाश में,
सुख का मात्र आश्वासन है
दुःख झेलते इसी आश में !
जीवन द्वन्दों की है क्रीड़ा
जन्म-मृत्यु झूलना झुलाता,
कभी हिलोरें लेता है मन
फिर खाई में इसे गिराता !
जीवन सदा भुलावा देता
कर्मों में उलझाया करता,
दौड़-भाग कर कुछ तो पा लो
आगे सुख है यह भरमाता !
जीवन के ये दंश मधुर हैं
किन्तु क्षणिक बस हैं पल भर के ,
मृगतृष्णा या मृगमरीचिका
ओस की बूंदों से कण भर !
किन्तु एक ऐसा भी जीवन
नित जहाँ हो प्रेम का वर्धन,
पल-पल कुसुमित,अविरल गुंजन
सहज रहे यदि आत्म निरंजन !
गुरुवार, दिसंबर 9
रिश्ता इन दोनों में क्या है
बुधवार, दिसंबर 8
मृत्यु ! तुम्हारा स्वागत है
तुम्हीं सत्य हो इस जीवन का
मिलना तुमसे सबको होगा,
तुमसे ही जीवन, जीवन है
यह सच इक दिन जाहिर होगा !
लेकिन तब, जब श्वासें उखड़ीं
बोल अटक जायेंगे मुख के,
भाव सिमट के आँखों में भी
रह जायेंगे भीतर घुट के !
मृण्मय देह साथ छोड़ेगी
जिसका लिया सहारा हमने,
चिन्मय भीतर छिपा रहेगा
जाना कभी न जिसको हमने !
मिट्टी-मिट्टी में मिल जाये
परिचय मृत्यु से क्यों न कर लें,
जीते जी उसको पहचानें
दिव्य ऊर्जा भीतर भर लें !
चला गया जो पार मृत्यु के
जीवन महा मिलेगा उसको,
खुद मर के जो पुनः जन्मता
कब कोई मार सके उसको !
मंगलवार, दिसंबर 7
बन बहेंगे प्रेम दरिया
प्रेम क्या है ? पूछता दिल
प्रश्न ही यह तो अधूरा
पूछना ही है अगर तो
हाथ अपने दिल पे रखें, और पूछें
कौन है यह प्रश्नकर्ता ?
कौन है जो प्रेम करता ?
कौन है जो जानकर भी
है सदा अनजान बनता ?
प्रश्न चाहे हों हजारों
सब अबूझे ही रहेंगे,
मूल को हम खोजते न
फूल की हैं चाह करते !
बीज रोपें मूल पकड़ें
कौन है जो प्रेम चाहे ?
कौन जो अकुला रहा है ?
कौन छल करता है खुद से ?
कौन जो पछता रहा है ?
और जैसे इक कुदाली
खोदती जाती धरा को
स्रोत मिलता !
फूटती जल धार जैसे
प्रेम भीतर से उगेगा!
प्रेम से अंतर भरेगा !
फिर न पूछेंगे किसी से
प्रेम क्या है ?
बन बहेंगे प्रेम दरिया !
अनिता निहालानी
७ दिसंबर २०१०
सोमवार, दिसंबर 6
पौष का एक दिन
रविवार, दिसंबर 5
सदा प्रेम की यही कहानी
शनिवार, दिसंबर 4
कैसा है वह
शशि, दिनकर नक्षत्र गगन के, धरा, वृक्ष, झोंके पवन के
बादल, बरखा, बूंद, फुहारें, पंछी, पुष्प, भ्रमर गुंजारें
लाखों सीप अनखिले रहते, किसी एक में उगता मोती
लाखों जीवन आते जाते, किसी एक में रब की ज्योति
उस ज्योति को आज निहारें, परम सखा सा जो अनंत है
जीने की जो कला सिखाता, यश बिखराता दिग दिगन्त है
जैसे कोई गीत सुरीला, मस्ती का है जाम नशीला
तेज सूर्य का भरे ह्रदय में, शिव का ज्यों निवास बर्फीला
कोमल जैसे माँ का दिल, दृढ जैसे पत्थर की सिल
सागर सा विस्तीर्ण है जो, नौका वही, वही साहिल
नृत्य समाया अंग-अंग में, चिन्मयता झलके उमंग में
दृष्टि बेध जाती अंतर मन, जाने रहता किस तरंग में
लगे सदा वह मीत पुराना, जन्मों का जाना-पहचाना
खो जाता मन सम्मुख आके, चाहे कौन किसे फिर पाना
खो जाते हैं प्रश्न जहाँ पर, चलो चलें उस गुरुद्वार पर
चलती फिरती चिंगारी बन, मिट जाएँ उसकी पुकार पर
जैसे शीतल सी अमराई, भीतर जिसने प्यास जगाई
एक तलाश यात्रा भी वह, मंजिल जिसकी है सुखदाई
नन्हे बालक सा वह खेले, पल में सारी पीड़ा लेले
अमृत छलके मृदु बोलों से, हर पल उर से प्रीत उड़ेंले
वह है इंद्रधनुष सा मोहक, वंशी की तान सम्मोहक
है सुंदर ज्यों ओस सुबह की, अग्नि सा उर उसका पावक
मुस्काए ज्यों खिला कमल हो, लहराए ज्यों बहा अनिल हो
चले नहीं ज्यों उड़े गगन में, हल्का-हल्का शुभ्र अनल हो
मधुमय जीवन की सुवास है, अनछुई अंतर की प्यास है
पोर-पोर में भरी पुलक वह, नयनों का मोहक उजास है
प्रिय जैसे मोहन हो अपना, मधुर-मधुर प्रातः का सपना
स्मृति मात्र से उर भीगे है, साधे कौन नाम का जपना
धन्य हुई वसुंधरा तुमसे, धन्य-धन्य है भारत भूमि
हे पुरुषोत्तम! हे अविनाशी! प्रज्वलित तुमसे ज्ञान की उर्मि
अनिता निहालानी
४ दिसंबर २०१०
गुरुवार, दिसंबर 2
विश्व विकलांग दिवस
आज मैं आपका परिचय ‘मृणाल ज्योति’ से कराना चाहती हूँ, जो विकलांगों के पुनर्वास के लिये बनी एक गैर सरकारी संस्था है. जिसका मुख्य उद्देश्य है उन बच्चों की जल्दी से जल्दी पहचान करना जो किसी न किसी विकलांगता का शिकार हैं तथा उन्हें समुचित इलाज व शिक्षा की सुविधा देकर समाज में सम्मान पूर्वक जीने के योग्य बनने में मदद करना. आज यहाँ सभी लोग उत्साह से भरे हैं, पर सदा ऐसा नहीं होता, यहाँ आने वाले कुछ बच्चों का जीवन बेहद कठिन है, कुछ दिन पूर्व यहाँ ‘बढ़ते कदम’ नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ, [एक जागरूकता अभियान जो पूरे देश में चलाया जा रहा है]
मृणाल ज्योति
ज्योति स्नेह की
आत्मीयता की, अपनेपन की
सहानुभूति की , सेवा की
झर-झर झरती स्वतः हृदय से
मृणाल ज्योति के !
एक प्रकाश स्तम्भ सम चमके
हरता तिमिर जहां से,
कुछ सूने अंतर भर उठते
कुछ परिवार स्नेह पा खिलते,
कुछ नन्हें मुस्काने पाते
कुछ यौवन कौशल पा जाते
आश्रय मिलता विकलांगों को
मुरझाने से बचपन बच जाते !
विद्या स्थल भी, कर्म स्थल भी
जीवन की कठोर सहता,
दर्द छुपाये अपने भीतर
कितनी पीड़ाएँ है सहता,
किन्तु न विचलित, सदा समर्पित
और बिखेरे ज्योति प्यार की
करुणा की, औदार्य की
मरहम रखता रिसते मन पर
झर झर झरता स्नेह हृदय से
मृणाल ज्योति के !
अनिता निहालानी
३ दिसंबर २०१०
बुधवार, दिसंबर 1
अंतर घट जो रिक्त करे
मौन से इक पर्व उपजा है
नई धुनों का सृजन हो रहा,
मन में प्रीत पुष्प जन्मा है
सन्नाटे से गीत उठ रहा !
उस असीम से नेह लगा तो
सहज प्रेम जग हेतु जगा है,
अंतहीन उसका है आँगन
भीतर का आकाश सजा है !
बिना ताल इक कमल खिल रहा
हंसा भी लहर-लहर खेले,
बिन सूरज उजियाला होता
अंतरमन का जब दीप जले !
शून्य गगन में नित्य डोलता
मधुमय अनहद राग सुन रहा,
अमिय बरसता भरता जाता
अंतर घट जो रिक्त कर रहा !
घर में ही जो ढूँढा उसको
वहीं कहीं छुप कर बैठा था
नजर उठा के देखा भर था
हुआ मस्त जो मन रूठा था !
आदि, अंत से रहित हो रहा
आठ पहर है सुधा सरसती,
दूर रहे जब दौड़ जगत की
निकट तभी वह धार बरसती !