बुधवार, जुलाई 31

जुड़ें रहें जो मूल से

जुड़ें रहें जो मूल से



उस दिन एक
वृक्ष को बतियाते देखा
वही गीता वाला  
पीपल का वह विशाल वृक्ष !
जिसका मूल है ऊपर, शाखाएँ नीचें
 तना वृद्ध था, मुखिया जो
 ठहरा घर का !

कुछ शाखाएँ पहली पीढ़ी
उम्र हो चली, सो संयत हैं
नई-नई अभी कोमल हैं
 नाचा करतीं हर झोंके संग
धीरे-धीरे ही सीखोगी, कहा वृद्ध ने
 जब मौसम की मार सहोगी
कभी धूप, बौछारें जल की
सूनी शामें जब पतझड़ की
तब जानोगी, क्या है जीवन ?
पत्ता-पत्ता छिन जायेगा
गहन शीत में तन काँपेगा,

खिलखिल हँस दी कोमल टहनी
 जब तक साथ तुम्हारा बाबा
हम जीवित है
तुमसे पोषण मिलता
हमको, सब सह लेंगे
किन्तु हुईं जो पृथक जानना
मिटना ही उनकी नियति है
जुड़ा रहा जो मूल से उसको
कैसे कोई हिला सकेगा
अपना योगदान देकर वह जग को  
 हँसते-हँसते विदा कहेगा....!



सोमवार, जुलाई 29

स्मृति का देवदूत


स्मृति का देवदूत

याद के घट में प्रीत की नमी
भरके जब दिल के करीब लाई ही थी वह
क्षण भर भी नही लगा 
बादल छा गये अंतर आकाश पर
ऐसा खामोश अंधड़ उठा भीतर
चुप्पी की गर्जना हुई
दामिनी दमकी टीस सी
और तभी कूकने लगी कोयल सी धारा
नृत्य जगा शांत कदमों में
हँसी जो बाहर नहीं सुनी किसी ने
पर गूंज उठा अंतर उपवन
कोलाहल बहुत था
उमड़ती भाव रश्मियों का
स्पंदनो और कम्पनों का
अनसुना नहीं रहा होगा किसी के तो कानों से
दूत बन कर जो आया था स्मृति का
ठगा सा तकता रहा निर्निमेष !


शुक्रवार, जुलाई 26

वह क्षण

वह क्षण

दूधिया प्रकाश सी.. झक सफेद
अधरों से छलकी
नयनों से बरसी
तुम्हारी हँसी जिस क्षण
थम गया है वह क्षण वहीं !

तुम्हें याद है
कुनमुनी आँखों से
खिड़की से झांकते
बाल सूर्य को तक
नूतन प्रकाश में
डूबे उतराए संग-संग क्षण भर
वहीं खड़ा है वह क्षण अब भी !

हजारों बल्बों का प्रकाश
 सिमट आया था
तुम्हारी आँखों में
खिल गये थे हजारों
गुलाब अधरों पर
मुझे याद है
क्योकि जिए थे हजारों जीवन
 उस एक क्षण में

वह कहीं नहीं गया है !

बुधवार, जुलाई 24

एक दिन अचानक

एक दिन अचानक


सुना तो था उसने
सबसे प्रेम करो
पर दिल का दरवाजा था कि
खुलता ही नहीं था सबके लिए....
जंग लग गयी सिटकनी में या
जम गयी थी धूल-मिट्टी दरारों में
पर सुनना जारी रहा तो एक दिन अचानक...
टूट गयी दीवारें दरवाजे सहित !
और एक लहर सी दौड़ती आई
जो अवरुद्ध थी भीतर
हरियाली छा गयी मन उपवन में
उठने लगे सुरभि के बगूले
जो सामने आया बच न पाया उसकी गिरफ्त से
श्वास लेना भी तब दे रहा था स्वर्गिक आनन्द
मुस्कुराहट को पसंद आ गया था उसका मुखड़ा
ईश्वर तब संगी साथी बन गया था और वह सहज ही एक ऊर्जा
जिसमें झलक जाती है हल्की सी भी कालिमा
ऐसा श्वेतकमल सा पारदर्शी हो गया था मन उसका
पल भर में सिलवट संवर जाती है ज्यों
ऐसे ही स्वच्छ हो जाता था
फूल की चोट खाकर आहत हुआ हो ज्यों कोई जलाशय
सारी दुनिया अपना विस्तार नजर आने लगी थी
मिट गये थे सारे भेद
छिन्न भिन्न हो जाते हैं ज्यों बादल बरसते ही...
प्रेम तब करना नहीं था

उसने जाना वह प्रेम ही था.... 

सोमवार, जुलाई 22

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आप सभी को शुभकामनायें

गुरु पूर्णिमा 

सदगुरु दूत खुदा का न्यारा
उसकी ओर ही करे इशारा I

जग को रब की खबर सुनाये
उस जैसा ही नेह लुटाए I

एक यही लाया पैगाम
कण-कण में व्यापा है राम I

साक्षी है वह परम ब्रह्म का
राज खोलता सृष्टि भ्रम का I

सदगुरु जीवन का संगीत
पोर-पोर से गाये गीत I

सबका पल पल रखता ध्यान
सदा सभी को अपना मान I

सदगुरु दूर करे अज्ञान
प्रेम भरे मिटा अभिमान I

सदगुरु शिखरों पर ले जाये
मन को सुंदर पंख लगाये I

जैसे एक अलौकिक घटना
सदगुरु सुंदर सच्चा सपना I

दूर करे हर चिंता मन की

पकड़ा दे मस्ती जीवन की I

शुक्रवार, जुलाई 19

यह कैसी विरासत

यह कैसी विरासत


बच्चा प्रेम से भरा आता है जग में
कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत
अक्सर दबा ही रह जाता है
भीतर प्रेम का बीज
जिसे सींचना था स्नेहिल स्पर्श से
झोंक दिया जीता है प्रतिस्पर्धा की आग में
उसे जल्दी ही....
कभी खा जाती है अभावों की आग
कभी अन्याय और असामनता का जहर
मिला दिया जाता है
उसके भोजन और पानी में
मारो, काटो की भाषा सिखाई जाती है
 मारो कीटों को
काटो जंगलों को, जानवरों को
नहीं सिखाते भाषा सह-अस्तित्व की
नहीं पढ़ाते
सहयोग की रीति और सुनीति
प्रकृति से दूर होते ही
आदमी जैसे बदल जाता है
और अपनी ही संतति को
विरासत में मृत्यु दिए जाता है...  

मंगलवार, जुलाई 16

अग्नि एक संकल्प की जगे

अग्नि एक संकल्प की जगे




जाना है दूर अति सुदूर
पावों में पड़ी हैं बेड़ियाँ ,
कांटे बिखरे कदम-कदम पर
पुकारतीं किन्तु रण भेरियां !

एक युद्ध लड़ा जाना है
यात्रा इक आमन्त्रण देती,
आरोहण उच्च आकांक्षा का
ज्योति एक निमन्त्रण देती !

एक लक्ष्य साधना है पावन
‘कुछ’ तो अनावृत करना है,
नन्हे-नन्हे स्फुलिंगों से  
मन का अंधकार भरना है !

चमकीले रंगो वाले कुछ
जगत अनोखे कहीं छिपे हैं,
आओ उनको ढूँढ़ निकालें
छाया जिनकी यहीं कहीं है !

 दस्यु छिपे हैं अंधकार में
छिप कर वार किया करते,
निर्मल मन के शीतल जल में
विष की धार भरा करते !

अग्नि एक संकल्प की जगे
ज्योति प्रखर रोशन सब कर दे
एक ऊष्मा अमर प्रेम की
प्रज्ज्वलित कण-कण नभ तक कर दे


शुक्रवार, जुलाई 12

बहती अमृत धार रसीली

बहती अमृत धार रसीली


अनगिन, अविरत, झर-झर देखो
धाराएँ अम्बर से बरसें,
नद-नाले पोखर झीलों के
सूने घट भर जाएँ फिर से !

ताप ले गया जिसे चुराकर
पुनः भरे व नमी सजीली,
कण-कण सिंचित हो वसुधा का
बहती अमृत धार रसीली !

कैसा अद्भुत समां बंधा है
इक रव कोई गुंजा रहा है,
ताल बद्ध, इक लय है जिसमें
मानो अम्बर थिरक रहा है !

चकित हुए से पाखी ताकें
छिपे हुए पत्तों, कोटों से,
प्रकृति सबको पनाह दे रही
शिशु जैसे माँ के आंचल में !

अभी दिवस थोड़ा बाकी था
बदली से श्यामलता छाई,
पवन भी जल संग मस्त हुआ है
गुलमोहर डाली मुस्काई !

टपटप, छपछप, टिपटिप छमछम
जाने कितने स्वरों में गाये,
वर्षा भिगो गयी मानस को
पावस अंतर आस जगये !


सोमवार, जुलाई 8

अब पुनःरुक्त नहीं होना है

अब पुनःरुक्त नहीं होना है

पूछ रहा है पता ठिकाना
भीतर अपनी याद खो गयी,
उन्हीं रास्तों पर चलता है
खुले नयन, पर दृष्टि सो गयी !

साँझ-सवेरे भी बदलेंगे
बीज अलख का इक बोना है,
सतत् प्रयाण रहे चलता
अब पुनःरुक्त नहीं होना है !

सिंचन प्रतिपल नव कुसुमों का
छिपे हुए जो अभी धरा में,
मानस-भू पाषाण बनी जो  
पिघलेगी ही सघन त्वरा में !

मन से ऊपर, परे भाव से
इक जोगी वाला डेरा है,
वहाँ न श्याम रात का साया
हर पल ही नया सवेरा है !


गुरुवार, जुलाई 4

नया जब दिन उगा

नया जब दिन उगा


नूतन उच्छ्वास भरें
श्वासों में हर्ष के,
नया सा दिन उगा
वृक्ष पर वर्ष के !

आशा कुम्हलायी जो
बंधी अभी छोर में ?
 लिए बासी मन जगे
क्यों कोई भोर में ?

ताजा समीर बहे
क्षमता भी बढ़ी है,
कल से आज तलक
उम्र सीढ़ी चढ़ी है !

जैसा भी हो समय
नया उत्कर्ष हो,
हँसी की गूंज सदा
बीते दिन अमर्ष के !

नया जब दिन उगे  
वृक्ष पर वर्ष के !


बुधवार, जुलाई 3

एक विजय प्रयाण चल रहा

एक विजय प्रयाण चल रहा


एक विजय प्रयाण चल रहा
हर क्षण इक संग्राम चल रहा,
भेदन, शोधन, संवर्धन का
प्रतिपल इक अभियान चल रहा !

गहन गुफाओं से अंतर की
धाराएँ ऊपर उठती हैं,
सौम्य भाव बहे अम्बर से
संग मेघ रूप धरती हैं !

इक सागर ज्योति का जिस पर  
गहन आवरण अन्धकार का,  
एक परम ऊर्जा सोयी  
इक आनंद है महाकार सा !

कोई अविरत सदा जगाता  
चरैवेति का मंत्र सुनाता,  
दुख दानव बलशाली कितना  
सुख देव की विजय कराता !  

प्रतिपल कोई साथ हमारे
सिर पर हाथ धरे है चलता,
विजय सत्य की ही होती है
स्वपन अगन सा जलता रहता !

दिव्य लोक से आवाह्न इक
अभीप्सा सत्य की जगाये,
आरोहण करने की प्रेरणा
निर्मल मन में भरती जाये !