शुक्रवार, सितंबर 27

सत्य-असत्य

सत्य-असत्य 


असत्य की हल्की सी रेखा भी 

सत्य के हिमालय को छुपा देती है 

जैसे आँख में पड़ा धूल का एक कण 

विस्तीर्ण गगन को 

चाह की एक हल्की सी चिंगारी भी 

मन के चैन को जला देती है 

जैसे विष की एक बूँद 

सारे कूप को बना देती है विषैला 

उसके पास जाना हो 

तो निर्मल रखना होगा मन को 

दानवों का अधिकार हो जाता है 

यदि कपट हो ह्रदय में 

निःस्वार्थ, निष्पाप और निर्द्वंद्व 

ही मिल सकता है 

उस निसंग, निरंजन से 

और तब शांति की अजस्र धाराएँ 

चारों ओर से 

दौड़ी चली आती हैं 

उग आते हैं पुष्प उद्यान, मन प्रांगण में 

और गूंजने लगती है सरगम श्वासों में 

सत्य की ही विजय होती है 

असत्य तो पहले से ही पराजित है 

चिर पराजित ! 


बुधवार, सितंबर 25

मिलन धरा का आज गगन से

मिलन धरा का आज गगन से



काले कजरारे मेघों का 

गर्जन-तर्जन सुन मन डोले,  

छम-छम बरसा नीर गगन से 

मलय पवन के सरस झकोले !


चहुँ दिशा से जलद घिर आये 

कितने शुभ संदेश छिपाए, 

आँखों में उतरे धीरे से 

कह डाला सब फिर बह जायें !


उड़ते पत्ते, पवन सुवासित 

धरती को छू-छू के आये, 

माटी की सुगंध लिए साथ 

हर पादप शाखा सहलायें !


ऊँचे, लंबे तने वृक्ष भी 

झूमें, काँपें, बिखरे पत्ते, 

छुवन नीर  की पाकर प्रमुदित 

मिलन धरा का आज गगन से !


ऊपरे नीचे जल ही जल है  

एक हुए धरती आकाश, 

खोयीं सभी दिशाएँ जैसे 

कुहरे में डूबा है प्रकाश !




सोमवार, सितंबर 23

शृंगार

शृंगार 


सज गया स्मित हास अधरों पर 

नयनों में स्वप्नों का काजल, 

दुल्हन का श्रृंगार हो गया

मुखड़े पर लज्जा का आँचल  !


सहज मैत्री, विश्वास, आस्था 

आभूषण शोभित करते तन, 

करुणा, ममता और सरलता 

से ढँका-ढँका मन का हर कण !


ले चल प्रिय गृह आतुर इसको 

मधु शीत पवन की डोली में, 

नभ देखता नक्षत्रों संग 

 सूर्य-चन्द्र साक्षी बन आये !


शुक्रवार, सितंबर 20

कविता

कविता 

सुना आपने

अब कविता पढ़ना मुझे नहीं भाता 

अक्सर मैं कविता का पेज ही खोल कर नहीं देखती 

टिकने ही नहीं देती आँखों को शीर्षक पर

 एक क्षण के लिए भी 

शायद भय है अंतर्मन में 

पुराना प्रेम जाग न उठे 

न लगने लगें कविताएँ अपनी-अपनी 

सो दूर से ही नमन करती हूँ 

नहीं तौलती शब्दों को 

भावों को अनुभूति में नहीं लाती

विचारती हूँ, परखती हूँ 

पर नहीं देखती, न छूती  

वृक्षों, पत्तियों और फूलों को 

मैं बिगड़ गई हूँ 

एक कली ने कल राह चलते कहा था 

मैंने अनसुना कर दिया 

कान नहीं दिये 

क्योंकि अब मैं वह नहीं रही 

मुझे अभाव नहीं है कोई 

 सभी कुछ है 

अब फूलों को अपना दुख सुनाने को रहा ही नहीं 

हवा का संगीत सुनने का वक्त नहीं 

फिर क्यों कविता पढ़ूँ 

क्यों अफ़सोस करूँ 

भ्रष्टाचार पर, असमानता पर, बेरोज़गारी पर 

क्यों नाराज़ रहूँ भ्रष्ट सत्ता से 

अब मैं स्वतंत्र हूँ 

अपने पैरों पर हूँ 

अब सब ठीक चल रहा है 

पेड़ कहीं कटते होंगे 

मुझे आवाज़ सुनायी नहीं देती 

नारे लगते होंगे, जुलूस निकलते होंगे 

पर वे बेमतलब हैं 

पहाड़ों पर आग लगती होगी शायद 

पर मैंने खिड़की कहाँ खोली है 

बंद हैं आँखें मेरी 

सपनों में नहीं 

अब तो ज़िंदगी चलने लगी है 

मैंने इसकी सेहत का जाम पिया था 

नये वर्ष पर 

शुभकामना भी दी थी 

अब मुझे कविता ज़रूरी नहीं लगती 

कि अच्छे-भले शब्दों को 

साथ-साथ रख दिया जाये यूँही 

मन बहलाव के लिए 

सुना आपने कविता अब 

ऊपर की या नीचे की शै हो गई है 

दूसरी श्रेणी की !


बुधवार, सितंबर 18

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा 

कान्हा गये गोकुल छोड़ 

उसके अगले दिन 

सुबह सूरज के जगने से पूर्व 

जग गई थीं आँखें 

तकतीं सूनी राह 

लकीरें खींचते स्वचालित हाथ 

फिर एक बार, बस एक बार 

तुम आओगे ? शायद तुम आओ 

कानों में मधुरिमा घोलती आवाज़ 

कागा की !

जैसे राधा का तन-मन 

बस उस एक आहट का प्यासा हो 

युगों से, युगों-युगों से 

उठे नयन उस ओर, हुए नम 

एकाएक प्रकट हुआ वह 

हाँ, वही था 

फिर हो गया लुप्त 

संभवतः दिया आश्वासन 

यहीं हूँ मैं !

यह यमुना, कदंब और बांसुरी 

अनोखे उपहार उसके 

हँस दीं आँखें राधा की 

विभोर मन, पागल होती वह 

संसार पाकर भी नहीं पाता 

और आँखें ढूँढ निकलती हैं 

स्वप्न ! सुनहरे-रूपहले स्वप्न 

जिन्हें सच होना ही है 

वे सच होंगे, प्रतीक्षा रंग लाएगी 

सूरज आएगा, धरती पीछे 

रचे जाएँगे गीत 

नये, अप्रतिम, अछूते 

हर युग में ! 


सोमवार, सितंबर 16

कल की बातें रहने ही दो

कल की बातें रहने ही दो 

जिसमें ठहरा जा सकता है 

वह केवल यह पल है मितवा, 

कल की बातें रहने ही दो 

कल किसने देखा है मितवा !


आगा-पीछा सोच-सोच के 

मन के हाल बुरे कर आये,  

शगुन-अपशगुन के फेरे में 

मोती से कई दिन गँवाये ! 


मन का क्या है, आज चाहता 

कल उसको ख़ारिज कर देता, 

छोड़ो इसकी चाहत, ख्वाहिश 

हर पल का तुम रस पी लेना !


चिड़िया, बादल, दूब, पवन पर 

स्नेह भरी एक दृष्टि डालो,  

कैसे हो जाता है अपना 

जग को अपना मीत बना लो !



शनिवार, सितंबर 14

हिन्दी दिवस पर

हिन्दी दिवस पर 

हिन्दी मात्र एक भाषा नहीं 

एक पुल है

यह जोड़ती है भारत ही नहीं विश्व को 

इतिहास, पुराण और संस्कृति के 

अनमोल खजानों से 

कबीर, सूर और तुलसी के साथ 

अनगिनत साहित्यकारों के फसानों से  

हिन्दी संस्कार की भाषा है 

अति सरल, मधुर, प्यार की भाषा है 

हाँ, नहीं बन सकी यह 

विज्ञान और व्यापार की भाषा 

या शायद रोज़गार की भाषा 

इसलिए आज अपने ही घर में बेगानी है 

इसकी शुद्धता और मर्यादा की 

कहीं-कहीं हो रही हानि है 

भावनाओं को शब्द देती 

हिन्दी प्रीत सिखाती है 

पोषित करती मनों को 

आगे ले जाती है 

हिन्दी माँ है, समझाती है 

काव्य रस का पान कराती है 

आज़ादी का संघर्ष 

इसके बलबूते लड़ा गया 

उत्तर को दक्षिण से मिलाती है 

 तय किया है एक लंबा सफ़र हिन्दी ने 

अभी और आगे जाना है 

देश विदेश में इसका मान और सम्मान बढ़ाना है 

हिन्दी को उसकी क्षमता की 

पहचान दिलानी है  

शिशुओं को शुद्ध हिन्दी सिखानी है 

क्योंकि हिंदुस्तान की शान है हिन्दी 

भारत की पहचान है हिन्दी !


गुरुवार, सितंबर 12

सच से नाता तोड़ लिया जब

सच से नाता तोड़ लिया जब

शब्दों में ताक़त होती है 

शब्द अगर सच कहना जानें,

धरती ज्यों सहती आयी है 

संतानें भी सहना जानें !


माटी, जल में विष घोला है 

पनप रही यहाँ  लोभ संस्कृति, 

खनन किया, वन जंगल काटे 

 आयी बुद्धि में भीषण विकृति !


युद्धों के पीछे पागल है 

दीवाना मानव क्या चाहे, 

शिशुओं की मुस्कानें छीनीं 

 रहीं अनसुनी माँ की आहें !


कहीं सुरक्षित नहीं नारियाँ 

वहशी हुआ समाज आज है, 

अनसूया-गार्गी  की धरती 

भयावहता  का क्यों राज है !


कहाँ ग़लत हो गयी नीतियाँ 

भुला दिये सब सबक़ प्रेम के, 

अपना स्वार्थ सधे कैसे भी 

शेष रहें हैं मार्ग नर्क के !


टूट रहे परिवार, किंतु है 

सीमाओं में जकड़ा मानव !

सच से नाता तोड़ लिया जब  

जागा भीतर सोया दानव !


मंगलवार, सितंबर 10

बहा करे संवाद की धार

बहा करे संवाद की धार 

टूट गई वह डोर, बँधे थे 

जिसमें मन के मनके सारे, 

बिखर गये कई छोर, अति हैं  

प्यारे से ये रिश्ते सारे !


गिरा धरा पर पेड़ प्रीत का 

नीड़ सजे जिस पर थे सुंदर, 

 शाखा छोड़  उड़े सब पंछी

आयी थी ऐसी एक सहर !


 अब उनकी यादों का सुंदर 

चाहे तो इक कमल खिला लें, 

मिलजुल कर आपस में हम सब 

 मधुर गीत कुछ नये बना लें !


बहा करे संवाद की धार 

चुप्पी सबके दिल को खलती, 

जुड़े हुए हैं मनके अब भी 

चाहे डोरी नज़र न आती !


कभी कोई प्रियजन सदा के लिए विदा ले लेता है तो परिवार में एक शून्यता सी छा जाती है।

इसी भाव को व्यक्त करने का प्रयास इस रचना में किया गया है।