बहा करो उन्मुक्त पवन सम
अनल, अनिल, वसुधा, पानी से
जीवन का संगीत उपजता,
मिले-जुले सब तत्व दे रहे
संसृति को अनुपम समरसता !
हर कलुष मिटाती कर पावन
चलती फिरती आग बनो तुम,
अपनेपन की गर्माहट भर
कोमल ज्योतिर राग बनो तुम !
बहा करो उन्मुक्त पवन सम
सूक्ष्म भाव अनंत के धारे,
सारे जग को मीत बनाओ
शुभ सुवास के बन फौवारे !
ग्रहण करे उर साम्य-विषमता
वसुंधरा सा पोषण देकर,
प्रेम उजास बहे अंतर से
इस जग का सहयोगी बनकर !
नई दृष्टि से जग को देखो
सहज ऊर्जा को बहने दो,
मनस बने अब धार नीर की
कर साकार मधुर स्वप्नों को !
जितना दिया अधिक मिलता है
सुख से जीवन भरपूर करो,
खुले हृदय से ग्रहण करो फिर
हो गुजर स्वयं से दूर करो !
रात-दिवस यह कहने आया
विश्व नागरिक बन जीना है,
अब सीमा आकाश ही बने
जब घर धरती का सीना है !