शुक्रवार, जनवरी 29

बहा करो उन्मुक्त पवन सम

बहा करो उन्मुक्त पवन सम 



अनल, अनिल, वसुधा, पानी से 

जीवन का संगीत उपजता, 

मिले-जुले सब तत्व दे रहे 

संसृति को अनुपम समरसता !


हर कलुष मिटाती कर पावन

चलती फिरती आग बनो तुम, 

अपनेपन की गर्माहट भर 

कोमल ज्योतिर राग बनो तुम !


बहा करो उन्मुक्त पवन सम 

सूक्ष्म भाव अनंत के धारे,  

सारे जग को मीत  बनाओ 

शुभ सुवास के बन फौवारे ! 


ग्रहण करे उर साम्य-विषमता 

वसुंधरा सा पोषण देकर, 

प्रेम उजास बहे अंतर से 

इस जग का सहयोगी बनकर !


नई दृष्टि  से जग को देखो 

सहज ऊर्जा को बहने दो, 

मनस  बने अब धार नीर की 

कर साकार मधुर स्वप्नों को !


जितना दिया अधिक मिलता है 

सुख से जीवन भरपूर करो, 

खुले हृदय से ग्रहण करो फिर 

हो गुजर स्वयं से दूर करो !


रात-दिवस यह कहने आया 

विश्व नागरिक बन जीना है, 

अब सीमा आकाश ही बने 

जब घर धरती का सीना है !


 

गुरुवार, जनवरी 28

आस्था का दीप

 आस्था का दीप 
वक्त पर जो थाम ले गिरते हुए को 
बढ़े आगे हाथ दे हिलते हुए को,
जो गमों की धूप से दिल को बचाए
ज्ञान वह जो डूबते के काम आये !

ज्ञान भरता है उजाला पथ अँधेरे जब मिलें 
खिला देता पुष्प, पत्थर जब कभी पथ पर मिलें, 
जब कभी संशय सताये राही कोई पथ न पाए 
काट देता हर विभ्रम को ज्ञान ही वह शस्त्र लाये !

मन कभी चंचल अति हो भंवर में डूबा डरे 
बुद्धि विचलित बंट गयी राह नहीं निश्चित करे, 
आस्था का दीप जगमग तब भी भीतर जल रहा है 
ज्ञान, श्रद्धा बन, कभी विश्वास बन कर पल रहा है  !

जगत जब विकराल बनकर भरे जीवन में निराशा
आँधियाँ ही हों गुजरतीं शांति की न नि:शेष आशा, 
जब कभी दानव बढ़ें देवों का न सम्मान हो 
उस समय भी दिल में कान्हा व अधर पर राम हों !

बुधवार, जनवरी 27

दिल्ली

दिल्ली 
देश की राजधानी बनने की 
बड़ी ही भारी कीमत चुकाई है अतीत में भी 
अनेकों बार दिल्ली ने ! 
एक बार फिर सुबह की शांत दिल्ली 
दोपहर को बदल गई 
जैसे एक युद्ध क्षेत्र में ! 
लालकिले पर नृशंसता से चढ़ती हुई भीड़ 
और हथियारों का प्रदर्शन खुलेआम ! 
जैसे कोई दुश्मन सेना चढ़ आयी हो
 निरंकुश बेलगाम !
क्या अपने ही देश में !
राष्ट्रीय पर्व पर  
 शोभा देता है अकल्पनीय यह व्यवहार 
जिसमें नागरिक व पुलिस
 हुए दोनों ही घातक हिंसा के शिकार !  
भारत आगे बढ़ता है तो 
कुछ लोग अनुभव करते हैं हीनता का 
परेड में जिस देश की छवि दिखी 
है वह उन्नति के शिखर पर चढ़ता हुआ  
जिन लोगों ने यह निंदनीय कार्य किया है 
 चाहते हैं भारत की विमल छवि बिगाड़ दें,
ऐसा हो उससे पूर्व  ही 
चलो हम इसे रक्षा कवच बाँध दें ! 

सोमवार, जनवरी 25

गणतन्त्र दिवस पर शुभकामनायें

गणतन्त्र दिवस पर शुभकामनायें 


गणपति के देश में फलता-फूलता रहा है गणतन्त्र शताब्दियों से इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं उन गणराज्यों की अनेक गाथाएं जहाँ भारत ने विकास के चरम को छुआ था लोकतान्त्रिक गणतन्त्र यह देश बना है मिसाल दुनिया के लिए जहाँ जनता सर्वोपरि है जिसके द्वारा चुना जाता है शासनाध्यक्ष आजादी की मूल भावना को पनपने का जहाँ पूर्ण अवसर है और सम्भावना है किसी भी व्यक्ति के चुने जाने की सर्वोच्च पद पर जहाँ देश सबका है न कि किसी राजा की निजी जागीर यहाँ जनता ही निर्णायक है और स्वीकृत संविधान के दायरे में चलाया जाता है शासन यहाँ किसानों को भी हक है अपनी बात कहने का युवाओं, महिलाओं को अपने स्वप्न पूर्ण करने का जहाँ आजादी है हर नागरिक को चुनने की अपना व्यवसाय जहाँ हर मत समान रूप से कीमती है जहाँ सभी को न्याय मिले ऐसी नीति है वह देश सदा आगे ही बढ़ता रहे विश्व के सम्मुख बनकर मिसाल नए कीर्तिमान गढ़ता रहे !

रविवार, जनवरी 24

हवा का सागर

हवा का सागर 

हवा की सरगोशियाँ गर कोई सुन सके

 पल भर भी तन्हा छोड़ती न रब हो जैसे 

लिपट जाती परस उसका फूल जैसा 

जिंदगी को राह देती श्वास बनकर 

झूमते वट, वृक्ष, जंगल, लता, पादप, फूल सारे 

लहर दरिया, सिंधु के तन पर उठाती

सरसराती सी कभी कानों को छूले 

सुनो ! कहती मत कहो, तुम हो अकेले ! 

वह संदेशे ही सुनाए, राज खोले उस पिया का 

डोलते पंछी से पूछो तैरता क्यों वह हवा में 

मीन जैसे जल में निशदिन वास करती 

जी रहे हैं चैन से हम सागरों में ही हवा के ! 



 

बुधवार, जनवरी 20

कुछ ख्याल


कुछ ख्याल 


‘कुछ’ होने से ‘कुछ नहीं’ हो जाना  

इश्क का इतना सा ही तो फ़साना  


चुप रहकर ही यह बयां होता है 

आवाजों में बस रुसवा होता है 


सुनो, सुनो और कुछ न कहो

उसी धारा में चुपचाप बहो 


उससे बढ़कर न कुछ था न होगा जमाने में 

उसी को आने दो हर बात, हर तराने में 


लाख पर्दों में छिपा हो हीरा चमक खो नहीं सकता 

जो सब कुछ है, वह कुछ नहीं में न हो, हो नहीं सकता 


मिट-मिट कर भी जो रह जाता है 

वह उसकी याद में गुनगुनाता है


 

मंगलवार, जनवरी 19

बस इतना सा ही सरमाया

बस इतना सा ही सरमाया

गीत अनकहे, उश्ना उर की 
बस इतना सा ही सरमाया ! 

काँधे पर जीवन हल रखकर 
धरती पर जब कदम बढाये 
कुछ शब्दों के बीज गिराकर  
उपवन गीतों से महकाए ! 

प्रीत अदेखी, याद उसी की 
बस इतना सा ही सरमाया ! 

कदमों से धरती जब नापी
अंतरिक्ष में जा पहुँचा मन 
कुछ तारों के हार पिरोये 
डोल चन्द्रमाओं के सँग-सँग  ! 

कभी स्मृति कभी जगी कल्पना 
बस इतना सा ही सरमाया ! 

सोमवार, जनवरी 18

कोई जानता है

 कोई जानता है
मन के ‘परदे’ पर 
यादों की फिल्म चलती है 
‘वह’ उसी तरह रहता है अलिप्त 
जैसे आँख के पर्दे पर 
चित्र बने अग्नि का तो जलती नहीं 
न ही भीगती समुन्दर की लहरों को घंटों देखते हुए 
स्मृतियों के बीज हमने संभाल कर रखे हैं 
वर्तमान और अनेक जन्मों के 
उन्हें स्वयं ही बोते हैं मन की धरा पर 
फिर यदि बीज हुआ दुख की याद का तो 
काँटों के वृक्ष उगाते हैं 
और देखते हैं जंगल उठते-बढ़ते 
जो हमारी ही संतति है 
उन्हीं से सुखी-दुखी होते हैं 
जब सृष्टि का पालन किया तो संहार से क्यों डरते हैं 
उखाड़ फेंकें यदि उन स्मृतियों के वनों को 
या देखते रहें उस परदे की तरफ 
जो सदा बना रहता है अलिप्त 
 पूर्व फिल्म के, दौरान या बाद में भी ! 

रविवार, जनवरी 17

तुम यदि

तुम यदि 
 तुम यदि बन जाओ सूत्रधार 
तो सँवर ही जायेगा जीवन का हर क्षण  
मुस्कान झरेगी जैसे झरते हैं फूल शेफाली के 
अनायास ही 
हवा के हल्के से झोंके की छुअन से 
या सूरज की पहली किरण आकर जगाती है  
तो हो जाते हैं समर्पित अस्तित्त्व को सहज ही !

तुम यदि बनो जीवन आधार
तो निखर ही जायेगा उर आंगन 
जहां प्रीत के पंछी प्रातः जागरण के गीत गाएंगे 
और उल्लास के पादप लहलहायेंगे
जिनकी सुवास आप्लावित कर देगी हर कोना !

तुम यदि बन सको पुकार उसकी 
तो उबर ही जायेगा अंतर अतीत के जंगल से 
झर जाएगी हर आशंका भी भावी की 
चल पड़ेंगे अजस्र शक्ति भरे कदम 
पीड़ा आज की हरने जग में !

शुक्रवार, जनवरी 15

सहज है जीवन भूल गए

सहज है जीवन भूल गए 
जग को जहाँ सँवारा हमने 
मन पर धूल गिरी थी आकर, 
जग पानी पी-पी कर धोया 
मन का प्रक्षालन भूल गए !

नाजुक है जो जरा ठेस से 
आहत होता किरच चुभे गर, 
दिखता आर-पार भी इसके 
कांच ही है यह भूल गए !

तुलना करना सदा व्यर्थ है 
दो पत्ते भी नहीं एक से, 
व्यर्थ स्वयं को तौला करते 
सहज है जीवन भूल गए ! 

बना हुआ अस्तित्व, मिला सब 
दाता ने है दिया भरपूर, 
खो नहीं जाए लुट न जाए 
चैन की बंसी भूल गए !

इक दिन सब अच्छा ही होगा 
यही सोचते गई उमरिया,  
मधुर हँसी, स्वजनों का साथ 
अब भी पास है भूल गए !
 

मंगलवार, जनवरी 12

सब कुछ उसमें वह सबमें है

सब कुछ उसमें वह सबमें है
झर-झर बरस रहा है बादल 
भर ले कोई खोले आँचल, 
सिक्त हुआ आलम जब सारा 
क्यों प्यासा है मन यह पागल !

सर-सर बहता पवन सुहाना 
जैसे गाये मधुर तराना, 
लहराते अरण्य प्रांतर जब
 पढ़ता क्यों दिल गमे फ़साना !

चमक दामिनी दमके अंबर
प्रकटा क्षण में भीतर-बाहर, 
हुआ दीप्त जब कण-कण भू का 
अंधकार में क्यों डूबा उर !

मह-मह गन्ध लुटाता उपवन 
सुख-सौरभ से भर जाता वन, 
हुई सुवासित सभी दिशाएं 
कुम्हलाया सा क्यों व्याकुल बन !

जर्रे-जर्रे बसा आकाश 
दूर नहीं वह हृदय के पास, 
सब कुछ उसमें वह सबमें है 
फिर क्यों कहे मिल जाये काश ! 
 

रविवार, जनवरी 10

मंजिल पर ही बैठ मुसाफिर

मंजिल पर ही बैठ मुसाफिर 
कहाँ गए ?  थे हवामहल ही 
कहाँ गया वह लक्ष्य साधता, 
मंजिल पर ही बैठ मुसाफिर 
पूछा करता था जो रस्ता ! 

नहीं मिला जब खोजा मन ने 
मेधा ने भी जोर लगाया, 
थके हार जब बैठे दोनों 
खुद को मंजिल पर ही पाया ! 

नहीं घटा कुछ जहाँ कभी भी 
ऐसा एक शून्य पलता है, 
जहाँ उगा है निशदिन राका 
सूरज कभी नहीं ढलता है !

यह भी बस कहने में आता 
इक छोड़ नहीं दूजा कोई, 
एक अनोखी भोर हुई है 
अंतर जिसकी सुरति समोई !

जहाँ न इक स्पंदन भी घटता 
उसी में सृष्टि बनी, बिगड़ती, 
जहाँ कभी कुछ हुआ न होगा 
माया कैसे रूपक  गढ़ती !

उस अनाम से फलित सदा हो   
स्वयं का ही दर्शन स्वयं को, 
एक याद युग-युग से विस्मृत  
पुन: आ गई मिटा संशय को !
 

शुक्रवार, जनवरी 8

सपनों से जब पार गया मन

सपनों से जब पार गया मन 

सुंदर सपने, कोमल आशा 

पढ़ी प्रेम की यह परिभाषा,  

सपनों से जब पार गया मन 

संग निराशा छूटी आशा !


उसी प्रेम में उठना सीखा

 जिसमें लोग गिरा करते हैं,

शब्दों का अब भेद खुल गया 

 मतभेद, मनभेद भरते हैं !


मौन समझ लें इकदूजे का 

जब हम ऐसी जगह आ गये, 

सहज शांति, आत्मीयता के 

सान्निध्य में मन गुल खिल गए ! 


अब न कहीं जाना, कुछ पाना 

दो ना एक हुए रहते हैं, 

एक बोलना यदि चाहे तो  

कर्ण दूसरे के सुनते हैं !


मंगलवार, जनवरी 5

नींद में ही सही...

नींद में ही सही...
कुछ स्मृतियाँ कुछ कल्पनाएँ 
बुनता रहता है मन हर पल 
चूक जाता है इस उलझन में 
आत्मा का निर्मल स्पर्श....
 यूँ तो चहूँ ओर ही है उसका साम्राज्य 
 घनीभूत अडोल वह है सहज ही ज्ञातव्य 
 पर डोलता रहता है पर्दे पर खेल 
मन का अनवरत 
तो छिप जाती है आत्मा 
असम्भव है जिसके बिना मन का होना
उसके ही अस्तित्त्व से बेखबर है यह छौना
नींद में जब सो जाता है मन कुछ पल को 
आत्मा ही होती है भीतर 
तभी नींद सबको इतनी प्यारी है 
नींद में ही हो जाती है खुद से मुलाकात 
 पर अफ़सोस ! नहीं हो पाती तब भी उससे बात 
जागरण में तो दूर हैं ही उससे 
शयन में भी हो जाते हैं दूर उससे 
कब होगा वह ‘जागरण’ 
जब जगते हुए भी प्रकटेगी वह और नींद में भी.... 
 

रविवार, जनवरी 3

निंदा -स्तुति

निंदा -स्तुति

तारीफें झूठी होती हैं अक्सर 

उन पर हम आँख मूंदकर भरोसा करते हैं 

फटकार सही हो सकती है 

पर कान नहीं धरते हैं 

प्रशंसकों को मित्र की पदवी दे डालते 

सिखावन देने वालों को यदि शत्रु नहीं 

तो कदापि निज हितैषी नहीं मानते 

तारीफ़ें झूठा आश्वासन देती हैं 

मंजिलों का 

आलोचना आगे ले जा सकती थी  

नकार उसे पाँव की जंजीर बना लेते  

कहीं बढ़ते नहीं 

उस इक माया जाल में 

कोल्हू के बैल की तरह

 गोल-गोल घूम तुष्ट होते 

संसार चक्र में फंसे 

उन्हीं विषयों से राग बटोरते 

जो चुक जाता क्षण में 

आगे क्या है ज्ञात नहीं 

पर जो भी है निंदा-स्तुति के पार है 

वह सुख-दुःख के भी परे है 

वहां तो स्वयं ही जाना होता है 

कोई खबर नहीं आती 

उस अनाम अगम की !