आस्था का दीप दिल में
कुछ नहीं
है पास अपने
रिक्त है मन का समन्दर
मौन की इक गूंज है या
एक शुभ निर्वाण का स्वर
नीलिमा आकाश की भी
एक भ्रम से नहीं ज्यादा
बह रहा जो पवन अविरत
उसी ने यह जाल बाँधा
श्वास की डोरी में खिंच
चेतना का हंस आया
जाल कैसा बुन दिया इक
रचे जाता अजब माया
जिंदगी के नाम पर बस
एक सपना चल रहा है
ओढ़ कर नित नव मुखौटे
स्वयं को ही छल रहा है
भेज देता वह अजाना
एक स्मित इक हास कोमल
जो छुपा है खेल रच के
भर रहा है परस निर्मल
डोलती है धरा कब से
रात-दिन यूँ ही सँवरते
पंछियों के स्वर अनूठे
रंग अनजाने बिखरते
कौन जाने कब जला था
आस्था का दीप दिल में
या कि उसकी लपट यूँ ही
खो गयी थी बेखुदी में