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गुरुवार, मार्च 10

पल-पल मधु का सोता भीतर

पल-पल मधु का सोता भीतर

चमचम चमक रहा है दिनकर
वर्तमान का मन अम्बर पर,
ढक लेते अतीत के बादल
भावी का कभी छाता अंधड़ !

झर-झर झरता ही रहता है
 पल-पल मधु का सोता भीतर ,
कभी मूर्च्छा पाहन बनती
मोह कभी बन जाता पत्थर !

सुख की तो इक खान छिपी है
दुःख की इस चट्टान के पीछे,
द्वार बंद कर कर्णों के हम
बस बैठे हैं ऑंखें मींचे !

मन सरवर पर फैली काई
उग नहीं पाते शांति कमल,
गतिमय कर्मशील अंतर में
बहता जाता है जल निर्मल !

खिले हुए हैं पुष्प हजारों
उर उपवन पर छाया पाला,
शिशु सम था जो अंतर पावन
चाह जगी मैला कर डाला !

मुक्त हाथ से बांटे प्रकृति
जीवन में जो भी है सुंदर,
पर जाने क्यों हम जो चुनते
बन जाता है वही असुंदर !

अनिता निहालानी
१० मार्च २०११