पल-पल मधु का सोता भीतर
चमचम चमक रहा है दिनकर
वर्तमान का मन अम्बर पर,
ढक लेते अतीत के बादल
भावी का कभी छाता अंधड़ !
झर-झर झरता ही रहता है
पल-पल मधु का सोता भीतर ,
कभी मूर्च्छा पाहन बनती
मोह कभी बन जाता पत्थर !
सुख की तो इक खान छिपी है
दुःख की इस चट्टान के पीछे,
द्वार बंद कर कर्णों के हम
बस बैठे हैं ऑंखें मींचे !
मन सरवर पर फैली काई
उग नहीं पाते शांति कमल,
गतिमय कर्मशील अंतर में
बहता जाता है जल निर्मल !
खिले हुए हैं पुष्प हजारों
उर उपवन पर छाया पाला,
शिशु सम था जो अंतर पावन
चाह जगी मैला कर डाला !
मुक्त हाथ से बांटे प्रकृति
जीवन में जो भी है सुंदर,
पर जाने क्यों हम जो चुनते
बन जाता है वही असुंदर !
अनिता निहालानी
१० मार्च २०११