साक्षीभाव
संवेदनाओं का ही तो खेल है
चल रहा है छल इन्हीं का...
संवेदनाएं, जो घटतीं हैं मन की भूमि पर
और प्रकटती हैं देह धरातल पर
जहाँ से पुनः
ग्रहण की जाती हैं मन द्वारा
और फिर प्रकटें देह.....
मान पा जब उमगाया मन
झेल अवमान कुम्हलाया...
उपजती है संवेदना की मीठी व कड़वी फसल
देह के खेत पर
पड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
और खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की ‘मांग’ बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !
खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
आते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !