बन जाये मन स्वयं उजास
झर जाता है कुम्हलाया पुष्प
धरा पर आहिस्ता से जैसे
बिखर जाती है पाँखुरी-पाँखुरी
सहजता से विलग हो डाली से
पिघल जाये वैसे ही सारी उदासी
मन रहे निर्मल.. पल पल..
यही प्रार्थना है !
हर बादल बरस जाता है जैसे
निज भार से हो पीड़ित
बिखर जाती है बूँद बूँद
सहजता से धरा पर
खो जाये हर छोटी बड़ी कामना
खिला रहे मन का आकाश..
निरभ्र नील वितान सा
यही अर्चना है !
उजाला भर जाता है जैसे
नन्हा सा एक दीया..
जल जाये दुःख के तेल में
बाती अहंकार की
बन जाये मन स्वयं उजास
यही वन्दना है !