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शनिवार, जुलाई 8

जीवन जो गतिमान निरंतर



जीवन जो गतिमान निरंतर 


रोकें नहीं ऊर्जा भीतर

पल-पल बहती रहे जगत में,

त्वरा झलकती हो कृत्यों से

पाँव रुकें नहीं थक मार्ग में !


नित रिक्त हों हरसिंगार सम

पुनः-पुनः मंगल ज्योति झरे,

रुकी ऊर्जा बन पाहन सी  

सर्जन नहीं  विनाश ही करे !


धारा थम कर बनी ताल इक  

बहती रहती जुड़ी स्रोत से,

जीवन जो गतिमान निरंतर 

दूर कहाँ है वह मंजिल से!


कृत्यों की ऊर्जा बहायें

भीतर खले न कोई अभाव,

भरता ही जाता है आँचल 

जिस पल माँगा मुक्ति का भाव  !


लुटा रहा है सारा अम्बर 

हम भी दोनों हाथ उलीचें,

क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें 

बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !


शनिवार, जून 29

मन बेचारा




मन बेचारा


तोड़ डाला महज खुद को
चाह जागी जिस घड़ी थी,
पूर्ण ही था भला आखिर
कौन सी ऐसी कमी थी !

बह गयी सारी सिखावन
चाह की उन आँधियों में,
खुदबखुद ही कदम जैसे
बढ़ चले उन वादियों में !

एक झूठी सी ख़ुशी पा
स्वयं को आजाद माना,
चल रहा चाह से बंधा
राज यह मन ने न जाना !

स्वयं ही उलझन रचाता
स्वयं रस्ता खोजता था,
दिल ही दिल फिर फतेह की
गलतफहमी पालता था !

उसी रस्ते पे न जाने
लौट कितनी बार आया, 
जा रहा है स्वर्ग खुद को
नित नया सपना दिखाया !  

गुरुवार, अगस्त 23

पाया परस जब नेह का



पाया परस जब नेह का


तेरे बिना कुछ भी नहीं
तेरे सिवा कुछ भी नहीं,
तू ही खिला तू ही झरा
तू बन बहा नदिया कहीं !

तू लहर तू ही समुन्दर
हर बूंद में समाया भी,
सुर नाद बनकर गूँजता
गान तू अक्षर अजर भी !

है प्रीत करुणा भावना
सपना बना तू भोर में,
छू पलक तू ही जगाता
सुख सम भरा हर पोर में !

तुझसे हृदय की धड़कनें
मृत्यु है तेरी गोद में,
श्रद्धा, सबूरी, अर्चना,
नव चेतना हर शब्द में !

भीतर मिला हर स्वर्ग बन
जीवन का सहज मर्म तू,
खोयी कहीं दुःख की अगन
हर नीति औ’ हर धर्म तू !

कतरा-कतरा विदेह बन
डूबा सरल उर भाव में,
पाया परस जब नेह का
मन खो गया इस चाव में !

कण-कण पगा रस माधुरी
भीगा सा मन वसन हिले,
तेरी झलक जब थिर हुई
उर में हजार कमल खिले !

मद मस्त हो उर गा उठा
जीवन बिखरता हर घड़ी,
तू ही निखरता भोर में
तू ही सजा तारक लड़ी !

तू ही गगन में चन्द्रमा
तू ही धरा पर मन हुआ,
रविकर हुआ छू ले जहाँ
तू ही खिला बन कर ऋचा !


शुक्रवार, अप्रैल 21

नई कोंपलें जो फूटी हैं


नई कोंपलें जो फूटी हैं

कोकिल के स्वर सहज उठ रहे
जाने किस मस्ती में आलम,
मंद, सुगन्धित पवन डोलती
आने वाला किसका बालम !

गुपचुप-गुपचुप बात चल रही
कुसुमों ने कुछ रंग उड़ेले,
स्वर्ग कहाता था जो भू पर
उसी भूमि पर नफरत डोले ?

कैसा विषम काल आया है
लहू बहाते हैं अपनों का,
जिनसे अम्बर छू सकते थे
कत्ल कर रहे उन स्वप्नों का !

महादेव की धरती रंजित
कब तक यह अन्याय सहेगी,
बंद करें यह राग द्वेष का
सहज नेह की धार बहेगी !

भूल हो चुकी इतिहासों में
कब तक सजा मिलेगी उसकी,
नई कोंपलें जो फूटी हैं
क्यों रोकें हम राहें उनकी !

काश्मीर है अपना गौरव
हर भारतवासी मिल गाये,
एक बार फिर झेलम झूमे
केसर बाग़ हँसे, मुस्काए !


शुक्रवार, अगस्त 19

झर जाती हर दुःख की छाया

झर जाती हर दुःख की छाया

सभी स्वर्ग क्षण भंगुर होंगे
 नर्क सभी अनंत हैं होते,
दुःख में समय न कटता पल भर
सुख के क्षण बहते ही जाते !

सुख बँटना ही सदा चाहता
सहज फैलता ही जाता है,
दुःख में भीतर सिकुड़े छाती
सुख विस्तीर्ण हुआ बढ़ता है !

आज सोचते हैं हम कल की
सदा व्यवस्था में ही बीते,
प्रेम जहाँ वहीं सुख पलता
यह पल होता पर्याप्त उसे  !

नहीं सताती कल की चिंता
परस प्रेम का जिसने पाया,  
खो जाता अतीत, भावी सब
झर जाती हर दुःख की छाया !

सूना उर ! हम जग से भरते
खालीपन भीतर का अपना,
एक ही भाव शाश्वत भीतर
शेष सब ज्यों भोर का सपना  !

प्रेम ही है वह दर जहाँ से
जीवन की कलियाँ खिलती हैं,
साझीदार मिले जब कोई
जीवन की धारा पलती है !



शुक्रवार, दिसंबर 18

सृष्टि भरपूर है

सृष्टि भरपूर है


आज जो पंक है वही कल कमल बनेगा
अश्रु जो झरता है.. मन अमल बनेगा
अभी जो खलिश है भीतर वही कल स्वर्ग रचेगी
आज के जागरण से.. कल गहन समाधि घटेगी
सृष्टि भरपूर है प्रतिपल लुटाती है
जिसकी आज चाह उपजी कल उसे भर जाती है
बेमानी है अभाव की बात
यहाँ बरसता है पल-पल अस्तित्त्व
बस खाली कर दामन पुकारना है एक बार
रख देना मन को बना सु-मन उसके द्वार
माना कि शंका के दस्यु हैं, दानव भी भय के
पर विजय का स्वाद.. नहीं चखेंगे वे
निकट ही है उषा ज्ञान सूर्य उदित होगा
नजर नहीं आयेंगे तब भय और शंका
मुस्कुराएगी सारी कायनात संग में
आँखों में अश्रु भरे हर्ष और उल्लास के !



गुरुवार, दिसंबर 17

राहों में जो फूल मिलेंगे

राहों में जो फूल मिलेंगे


मंजिल कितनी दूर भले हो
कदमों को न थकने देना,
राहों में जो फूल मिलेंगे
उर सुरभि से भरने देना !

पत्थर भी साथी बन सकते
चलना जिसको आ जाता है,
भूलों से ही उपजी पीड़ा
दुःख भी पाठ पढ़ा जाता है !

अंतर में जब प्रीत जगी हो
उपवन बन जाता संसार,
नहीं विरोध किसी से रहता
सहज बिखरता जाता प्यार !

श्रम के कितने सीकर बहते
नित नूतन यहाँ सृजन घटे,
साध न पूरी होगी जब तक
तिल भर भी न तमस घटे !

उर आंगन में रचें स्वर्ग जब
उसका ही प्रतिफलन हो बाहर,
भीतर घटे पूर्णिमा पहले
चाँद उगेगा नीले अम्बर !



बुधवार, सितंबर 11

स्वप्न और हकीकत

स्वप्न और हकीकत



स्वप्न देखा है मानव ने
 न जाने कितनी-कितनी बार
लायेगा चिर स्थायी शांति
इक दिन वह
स्वर्ग से धरा पर उतार
चैन की श्वास लेंगे जब जन
 बहेगी प्रीत की बयार.. 
नहीं चलेगा, मौत का सामान
बेचने वालों का कारोबार
चाहता रहा है यही दिल उसका
 देता रहा है यही पुकार
खत्म होगा वैर, साथ
होड़ भी हथियारों की
 सहज, सुंदर बढ़ेगा जीवन व्यापर
नहीं पनपेंगे षड्यंत्र सत्ताओं के लिए
न ही भेंट चढ़ेंगे हिंसा की, निर्बल
विजय होगी सौहार्द की 
जीतेंगे ज्ञान और बल !
बनेगा नव समाज श्रम से
नहीं होगा अभाव न भूखा कोई
खिलेंगी सभी प्रतिभाएं
 नहीं खो जाएँगी अभावों के मरुथल में
स्वप्न देखा है मानव ने
यह हजारों बार
पर टूट जाते हैं स्वप्न और हकीकत
 चेहरा दिखाती है कर चीत्कार
फिर भी...तो
 चलता ही रहता है
 क्या नहीं ? जीवन हर बार
खोलने नई-नई सम्भावनाओं का द्वार !


सोमवार, फ़रवरी 11

सभी जोड़ों को समर्पित जिनके विवाह की सालगिरह इस हफ्ते है


कल बड़े भैया-भाभी के विवाह की वर्षगाँठ है, यह कविता उनके साथ उन सभी के लिए है जिनके विवाह की सालगिरह इस हफ्ते है. 

विवाह की वर्षगाँठ पर 

स्वर्ग में तय होते हैं रिश्ते
सुना है ऐसा, सब कहते हैं,
जन्नत सा घर उनका जो
इकदूजे के दिल में रहते हैं !

जीवन कितना सूना होता
तुम बिन सच ही हम कहते, 
खुशियों की इक गाथा उनमें
आंसू जो बरबस बहते हैं !

हाथ थाम कर लीं थीं कसमें
उस दिन जिस पावन बेला में,
सदा निभाया सहज ही तुमने
पेपर पर लिख कर देते हैं !

कदम-कदम पर दिया हौसला
प्रेम का झरना बहता रहता,
ऊपर कभी कुहासा भी हो
अंतर में उपवन खिलते हैं !

नहीं रहे अब ‘दो’ हम दोनों
एक ही सुर इक ही भाषा है,
एक दूजे से पहचान बनी 
संग-संग ही जाने जाते हैं !

आज यहाँ आकर पहुंचे हैं
जीवन का रस पीते-पीते
कल भी साथ निभाएंगे हम
पवन, अगन, सूरज कहते हैं !


सोमवार, दिसंबर 24

आया हूँ मैं प्रेम लहर बन



आया हूँ मैं प्रेम लहर बन

अंधकार में जो बैठे थे
ज्योति उन्हें जगाने आई,
मृत्यु की छाया थी जिन पर
जीवन सरिता थी लहराई !

कहा था उसने, जागो अब तो
अपने भीतर स्वर्ग को पा लो
आया हूँ मैं प्रेम लहर बन
अंतर-बाहर सभी भिगा लो !

झील किनारे जब गलील की
इक दिन यीशू टहल रहे थे,
जाल डालते देख कहा यह  
आओ, मेरे पीछे पीछे !

 पतरस, अन्दियास के जैसे  
याकूब और यूहन्ना भी,
साथ हो लिए थे यीशू के
पीड़ा हरते तन की मन की !

सभागृहों में घूमा करते
देश सीरिया में मिलकर नित,
स्वस्थ किया रोगों से जन को
यश फैला था उनका अद्भुत !

सुना है तुमने, दंड मिलेगा
जो हिंसा का कृत्य करेगा,
लेकिन वह भी दोषी होगा
जो भाई पर क्रोध करेगा !

चाहे जितनी बार कही हो
मधुर प्रार्थना बारम्बार,
मन में यदि द्वेष भरा हो
पूजा न होती स्वीकार !

स्वर्ग पिता का सिहांसन है
ध्यान रहे यह सत्य हो वाणी,
धरती है पांव की चौकी
पड़े किसी को शपथ न खानी !

बाहर भीतर एक हुआ जो
वही प्रभु का प्यारा बनता,
शत्रु नहीं जगत में जिसका
नहीं दिखावा जिसको भाता !

धर्म व्यवस्था दृढ़ करने ही
यीशू इस जग में था आया,
उसकी प्रीत में झूमें मिल कर
क्रिसमस यही सिखाने आया ! 

सोमवार, अक्टूबर 3

स्वर्ग धरा पे लाए कौन


स्वर्ग धरा पे लाए कौन

अवसर नहीं चूकता कोई
नर्क गढ़े चले जाता है,
नर्क का ही अभ्यास हो चला
स्वर्ग धरा पे लाए कौन ?

शक होता है प्यार पे सबको
नफरत को जपते माला से,
अंधकार में रहना भाता
ज्योति यहाँ जलाये कौन ?

डर कायम है भीतर-भीतर
ऊपर चस्पां है मुस्कान,
चुनता है मन असंतोष ही
मधुर गान फिर गाए कौन ?

जिसने यह सच जान लिए हैं
वही बनेगा भागीरथ अब,
धरती पर सुर सरि बह निकले
सहज प्रेम ही बरसेगा तब !