गुरुवार, सितंबर 28

रहे साधते वीणा के स्वर


रहे साधते वीणा के स्वर
कितनी बार झुकें आखिर हम 
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता 
रहे साधते वीणा के स्वर !

श्वास काँपती ह्रदय डोलता 
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे 
रह-रह वे यादें धड़कातीं !

निज पैरों का लेकर सम्बल
इक ना इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जगत के मोहक 
सूने पथ पर बढ़ना होगा !

कितने जन्म सोचते बीते 
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ 
कब तक रस्ता तकें सांवरे ! 

सोमवार, सितंबर 25

यह तू तो नहीं

यह तू तो नहीं


कहीं कुछ ऐसा नहीं 

जहाँ नज़र ठहर जाये 

दिल के मोतियों को लुटाता चल 

कि यह दामन भर जाये

हर सुकून भीतर ही मिला 

जब भी मिला 

बाहर फूलों के धोखे में 

काँटों से पाँव छिलवाये 

ख़ुद पे यक़ीन कर 

ख़ुदा में छिपा है ख़ुद 

वह यक़ीन ही छू सकता उसे 

 जर्रे-जर्रे में जो मुस्कुराए 

तू खुश है ही बेवजह 

जैसे दुनिया की वजह नहीं 

तलाश ख़ुशियों की 

बेमज़ा ज़िंदगी को बनाती जाये 

तेरे दामन में हज़ार 

ख्वाहिशें लिपटीं 

उतार फेंक इसे क्योंकि 

यह तू तो नहीं, बताती जाये ! 


शुक्रवार, सितंबर 22

संग-साथ

 संग-साथ 


प्रेम का अदृश्य वस्त्र 

ओढ़कर हम चलते हैं 

जीवन के उतार-चढ़ाव के मध्य 

जो कभी भी पुराना नहीं होता 

तो कोई साथ-साथ चलता है 

हर धूप हर तूफ़ान से 

सामना करते हुए 

वह हमें देखता है !

शांति की एक धार 

भिगो जाती है 

जब हमारी दुआओं में 

फ़िक्र सारी कायनात की 

भर जाती है

एक माँ के दिल की तरह 

तब हम उसे अपने भीतर 

धड़कता हुआ पाते हैं !

जो जानता है बारीकियाँ  

हर शै की 

वह पढ़ लेता है 

छोटी से छोटी ख्वाहिश 

जो भीतर जन्म लेती है 

और हम मुक्त होकर 

विचरते हैं जगत में 

जैसे कोई बादल 

अनंत आकाश में 

 या मीन सागर में !


गुरुवार, सितंबर 21

गणपति अथर्वशीर्ष

गणपति अथर्वशीर्ष  संस्कृत भाषा में एक लघु उपनिषद है। यह पाठ गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और सीखने का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। इसमें कहा गया  है कि गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। यह स्तोत्र अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है। इसका पाठ कई रूपों में मौजूद है, लेकिन सबमें एक ही संदेश दिया गया है। गणेश को अन्य हिंदू देवताओं के समान, परम सत्य और वास्तविकता के रूप में, सच्चिदानंद के रूप में, और हर जीवित प्राणी में आत्मा के रूप में  तथा ॐ के रूप में वर्णित किया गया है।

श्री श्री रविशंकर जी ने ने इस स्तोत्र की बहुत सुंदर और सरल व्याख्या  की है । सर्वप्रथम शांति पाठ किया गया है। ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि जब तक जीवन रहे, हम शुभ देखें, शुभ ही सुनें. केवल काँटों को नहीं फूलों को भी देखें. हमारी वाणी में स्थिरता हो, अपने वचन पर हम स्थिर रह सकें. ऐसी वाणी न बोलें  जिससे किसी को आघात पहुँचे। वाणी की कुशलता ही जीवन की कुशलता है. सत्य वचन बोलें पर मधुरता के साथ बोलें. यदि वाणी में त्रुटि रह जाती है तो दिल अच्छा होने पर भी हमारे संबंध बिगड़ने लगते हैं. जब तक हम इस धरा पर हैं,  हमारा जीवन देवताओं के काम में लग जाये.  हमसे बड़े काम हों. हमारा जीवन देव के हित में लग जाये.  

इंद्र भी हमारे लिए कल्याणकारी हो. हम अपने आप में स्थिर हो जाएँ. अनिष्टकारी चेतना भी हमारे लिए अनर्थकारी न हो. इंद्र हमारी रक्षा करे. हे गणपति ! तुम ब्रह्म हो, जिसमें जड़, चेतन सब कुछ समाया है. ब्राह्मी चेतना तुम ही हो. तुम ही कर्ता हो. तुम्हीं मेरे दिल की धड़कन चलाते हो, मेरी श्वसन क्रिया भी तुम्हारे कारण ही है. प्रकृति का सारा काम तुम्हारे कारण है. समय-समय पर जो भी परिवर्तन हो रहा है, नदियाँ बह रही हैं, सूरज का उगना आदि सब कुछ तुम्हारे कारण है. विचारों व भावों का उमड़ना भी तुमसे ही है. जैसे एक मकड़ी अपने ही स्राव से जाला बनाती है वैसे ही सब कुछ तुमसे ही हो रहा है. इसे धारण करने वाले भी तुम हो. इन सबको समाप्त करने वाले भी तुम हो. फूल खिलता है फिर मुरझा जाता है, प्राणी जन्मते हैं फिर विनाश को प्राप्त होते हैं. तुम ही सब कुछ हो. यहां जो कुछ भी है वह तुम ही हो. मैं भी तुम ही हूँ. मेरा जीवन तुमसे ही है. बोलने वाले तुम हो, सुनने वाले भी तुम हो. तुम्हीं देने वाले हो, तुम्हीं पकड़ कर रखने वाले हो. तुमसे कुछ बचा नहीं है. सही- गलत, अच्छा-बुरा सब कुछ तुमसे है. तुम मेरे पीछे हो, तुम्हीं आगे हो. पूर्वज भी तुम हो, संतति भी तुम हो. प्रश्न भी तुम हो, उत्तर भी तुम हो. दाएं -बाएं भी तुम हो. स्त्री-पुरुष दोनों तुम हो. सरल और कठिन दोनों तुम हो. विद्या प्राप्ति को कुशलता से किया जाता है, वह दक्षता भी तुम हो. गंतव्य भी तुम हो और मेरे अस्तित्त्व का आधार भी तुम हो. मेरा मूल भी तुम हो, और उद्देश्य भी तुम हो. मनुष्य जन्म मिला इसका कारण तुम हो, देवत्व को प्राप्त करना है, वह भी तुम हो. 

तुम सब जगह से मेरा पालन करो, तुम पालनहार हो. मैं तुम्हारे शरणागत हूँ. वाणी के रूप में तुम हो, वाणी के पार की तरंग भी तुम हो. तुम चिन्मय हो. आनंदमयी चेतना तुम हो. आनंद के भी परे ब्रह्म तुम ही हो. तुम सच्चिदानंद हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. अभी इसी क्षण तुम हो ! तुम ज्ञान भी हो और विज्ञान भी हो. बुद्धि के रूप में तुम ही हो. यह जगत तुमसे उपजा है, और तुममें ही स्थित है. हरेक की इच्छा का लक्ष्य तुम ही हो. तुम भूमि हो, जल तुम हो, आकाश, धरा, अग्नि सब तुम हो.  प्रपंच से परे भी तुम हो. 

वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणी भी तुम हो. तुम तीनों गुण के परे हो. तीनों अवस्थाओं के परे तुम हो. तीन देहों के परे हो. ज्ञान को भी तिलांजलि देकर जब कोई गुणातीत हो जाता है, वह गणपति को प्राप्त होता है. भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में तुम हो. तीनों कालों के परे भी तुम हो. 

मूलाधार चक्र में तुम सदा ही हो. इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों शक्तियों के रूप में तुम हो. ध्यान में स्थित योगी तुम्हें पाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, प्रजापति, भूर, भुवः, स्व आदि  लोक तुम्हीं हो. मन्त्र में देवता बसते हैं. जगत देवताओं के अधीन है, देवता मंत्र में हैं. गम गणपतये नमः, पहले ग फिर अ और अंत में म, ग अर्थात अवरोध, अ मध्य है. म पूर्णता का प्रतीक है. जो बाधा को दूर करे, वह तुम हो। एक दन्त अर्थात एकाग्रता, एकमुखी चेतना, देने वाले, हमें उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करो. 

गणक ऋषि ने अपने ध्यान में इस मन्त्र को देखा, ऐसे गणपति मुझे प्रेरित करें, मेरे मस्तिष्क को तेजवान बनायें. तुम इस जगत के कारण हो, तुम अच्युत हो, तुम चतुर्भुज वाले हो, इस रूप में तुम मेरे भीतर हो, लाल पुष्प से तुम्हारी पूजा होती है. मूलाधार चक्र में लाल रंग है । पहले रूप में उसे देखा, फिर रूप के साथ संबंध बनाने के लिए कहा गया. प्रकृति और पुरुष से परे तुम हो. योगियों में जो बड़े योगी हैं, ऐसे ध्यानी व योगी को तुम वर देते हो. 

जो इसका अर्थ समझते हैं, वे ब्रह्म तत्व को प्राप्त करते हैं. यह रहस्य उन्हें ही देना चाहिए जो शिष्य हों, जो सौम्य हो. जो बार-बार इस ज्ञान को अपने में दोहराते हैं, उनकी सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं. जो इस ज्ञान में अभिषिक्त हो जाते हैं. उनकी वाणी में बल आ जाता है. इस विद्या को पाने के लिए चतुर्थी के दिन इसका परायण करो. कुशलता से इस ज्ञान को पकड़ लें तो सब प्राप्त हो जाता है. इस ज्ञान को अच्छी तरह समझने से यश, सम्पत्ति मोक्ष  सब मिल जाता है. इसका जाप करने से हजारों को आनंद प्राप्त होता है.

शुक्रवार, सितंबर 15

तानाशाही

तानाशाही 


निरंकुश सरकारों का 

दमन चक्र 

जब चलता है 

न जाने कितने देशों में 

 मानवाधिकारों का हनन करता है

 पार कर जाते हैं 

जब तानाशाह 

क्रूरता की हदें 

पिसती है बेक़सूर जनता 

जो विरोध तक नहीं जता पाती 

और चंद लोग 

जो आवाज़ उठाते हैं 

कुचल दी जाती है उनकी ताक़त 

डरा-धमका कर 

या कभी जान भी लेकर 

ऐसी सरकारें स्वतंत्र होकर भी 

स्वतंत्र नहीं होतीं 

वे भी किन्हीं के इशारों पर चलती हैं 

 उनके मालिक होते हैं 

अहं और लोभ

हिंसा और दमन उनके अस्त्र 

तब यूएनओ भी 

साक्षी बना रहता है 

क्योंकि वहाँ बैठे ज़्यादा लोग आते हैं 

ऐसे  मुल्क  से 

जो मानता है स्वयं को दुनिया का पैरोकार 

 सत्ता कोई भी सँभाले 

आ जाता है उसे 

दुनिया को चलाने का अधिकार !






बुधवार, सितंबर 13

दूर और पास

दूर और पास 


वे साथ रह सकते थे 

पर रहते नहीं थे 

क्योंकि उनके दिल साथ थे 

हो सकता है 

साथ रहने पर दूर हो जाते दिल से 

वे दू….र थे इसलिए.. निकट थे 

यदि आ जाते निकट 

तो शायद…..

क्योंकि यदि दिन के बाद 

रात कभी न भी आये 

तो भी हर रात के बाद 

दिन अवश्य आता है 

धरा से दूर है चंदा 

इसलिए उसके चक्कर लगाता है ! 


सोमवार, सितंबर 11

धारा इक विश्वास की बहे

धारा इक विश्वास की बहे

बुना हुआ है दो धागों से  

ताना-बाना इस जीवन का, 

इक आनंद-प्रेम का वाहक 

दूजा, जंगल है यादों का !


दोनों हैं दिन-रात की तरह 

 पुष्प गुच्छ हों गुँथे हुए ज्यों, 

किसके हो लें, किससे पोषित 

यह चुनाव करना है दिल को !


तज दे सारे दुख, भय, विभ्रम 

मुक्त गगन में विहरे खग सा, 

मन को यह निर्णय करना है 

जंजीरों से बंधा रहे या ! 


जहाँ न कोई दूजा, केवल 

धारा इक विश्वास की बहे,

सुरति निरंतर वहीं हृदय की 

कल-कल स्वर में सहज ही कहे !


वही ज्ञेय है, लक्ष्य भी वही 

जहाँ हो रहा नित्य ही मिलन,

प्रीति-सुख से मिले प्रज्ञा जब 

शिव-गिरिजा का होता नर्तन !


शनिवार, सितंबर 9

इच्छाएँ

इच्छाएँ 


इच्छाएँ पत्तों की तरह उगती हैं 

मन के पेड़ पर 

कुछ झड़ जाती हैं आरम्भ में ही 

कुछ बनी रहती हैं देर तक 

कभी समाप्त नहीं होतीं 

यह एक सदानीरा नदी सी 

कल-कल करतीं शोर मचातीं 

जिसमें तरंगें उठती गिरती हैं निरंतर 

पत्तों को मूल का ज्ञान नहीं हो पाता

जिनसे वे पोषित हैं 

न तरंगों को हिमशिखरों का 

अंततः मूल भी पोषित होता है धरा से 

और हिमशिखर जल से 

पंच भूतों के पार क्या गया है कोई 

भूत भावन है जो शिव सोई 

शिवोहम् मंज़िल है 

हम रास्तों पर ही अटक रहे हैं 

प्रकाश सम्मुख है 

हम अंधेरों में ही भटक रहे हैं ! 


बुधवार, सितंबर 6

कृष्ण रंग में डूबा अंतर



कृष्ण रंग में डूबा अंतर 

श्याम रंग में भीगा अंतर
भीगी मन की धानी चूनर,
कोरा जिसको कर डाला था
विरह नीर में डुबो डुबोकर !

जन्मों से था जो सूखा सा
जैसे कोई मरुथल बंजर,
कैसे हरा-भरा खिलता है
कृष्ण रंग में डूबा अंतर !

एक डगर थी सूनी जिस पर
पनघट नजर नहीं आता था,
काँटों में उलझा था दामन
श्यामल रंग से न नाता था !

भर पिचकारी तन पे मारी
सप्त रंगी सी पड़ी फुहार,
 पोर-पोर शीतल हो झूमा
फगुनाई की बहती  बयार !

रंग दिया किस रंग में आज 
कान्हा रंग रसिया ह्रदय का,
राधा रंग गई, मीरा भी 
हुआ सुवासित कण-कण तन का !



मंगलवार, सितंबर 5

रिश्ता इक अद्भुत बन जाता




रिश्ता इक अद्भुत बन जाता


शिक्षा, शिक्षण तथा प्रशिक्षक 

मानवता के पावन रक्षक, 

कोरे मन पर लिखें इबारत 

बन जाते हैं वही परीक्षक !


​​समुचित सम्मति देते शिक्षक 

सही-ग़लत का भेद बताते, 

लक्ष्य प्राप्त कर लें जीवन का 

विद्यार्थियों  को पथ सुझाते !


श्रेष्ठता का वरण करें सदा 

माध्यम  भी नैतिक  अपनायें, 

गुण-कमियों का करे आकलन 

शिष्य का मस्तिष्क पढ़ पाये !


मन में करुणा और दया भर 

सदा छात्र पर प्रेम लुटाये,  

जो शिक्षा का मोल न समझे

उसे भी धैर्य से समझाये !


आजीविका के योग्य बनाते 

भाषा वाणी शुद्ध बनाते, 

शिक्षक दिल में रह बच्चों के 

जीवन का मर्म समझाते !


उपलब्धि पर सदा शिष्यों की 

गर्व सदा शिक्षक को होता 

छात्र उन्हें आदर्श मानते 

रिश्ता इक अद्भुत बन जाता !



शनिवार, सितंबर 2

आया सितम्बर

आया सितम्बर 


आया सितम्बर 

लाया वर्षा की बौछार 

बस कुछ कदम दूर है 

जन्माष्टमी  त्योहार !

वही, अपने कन्हैया का जन्मदिन 

जिसे मनाते हैं आधी रात  

सोचें जरा,  था आधुनिक 

वह द्वापर में भी 

ठीक बारह बजे 

जन्मदिवस मनाने की 

चलायी थी परिपाटी !

 सितम्बर लिए आता  

गणपति बप्पा को भी 

और कैसे भला भूलें 

भगवान विश्वकर्मा का अवतरण दिवस 

मिल मनाते  कारीगर 

भर अंतर में हुलस !