गुरुवार, मार्च 30

एक आभा मय सवेरा



एक आभा मय सवेरा

नींद टूटे, जोश जागे 
हृदय से हर सोग भागे, 
याद में हो मन टिका जब 
टूटते हैं मोह धागे !

प्रेम का सूरज दमकता 
ज्योत्सना बन शांति छाए, 
एक आभा मय सवेरा 
तृप्ति की हर रात लाए !

मुक्त उर से गीत फूटे 
कर्म की ज़ंजीर बिखरे,
मिले जग को प्राप्य उसका 
रिक्त मन की गूंज उतरे !

आस का  दीपक न बुझता 
सहज सम्मुख मार्ग दिखता, 
नहीं मंज़िल दूर कोई 
हर घड़ी वह मीत मिलता !

हर कहीं मौजूद है वह
समय केवल एक भ्रम है, 
कल वही था आज भी है 
वहाँ था जो यहाँ भी है !

मंगलवार, मार्च 28

रामनवमी के पावन पर्व पर

रामनवमी के पावन पर्व पर 


त्रेता युग में प्रकट हुए थे 

 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम,  

किन्तु आज भी अति ही पावन 

शुभ परम सात्विक जिनका नाम !


खुद अनंत को सांत बनाया 

अनुपम अवतार लिया विष्णु ने, 

किंतु रहे राम नहीं सीमित

भारत भू की सीमाओं में !


राम नाम के मधुर जाप ने 

सारे जग को गुंजाया है , 

हरि अनंत  कथा भी अनंता 

हर युग ने जिसे सुनाया है !


जन्मस्थल पर बनता मन्दिर 

दिव्य स्वप्न अब पूर्ण हुआ है,  

राम राज्य फिर लौटा लाएं   

 बाट देखता वर्तमान यह !


 शुभ मूल्यों की हो स्थापना

 राजाराम चले थे जिन पर,

दुनिया को नव मार्ग दिखाया  

सुत आदर्श, मित्र भाई बन  !


माँ सीता का नाम सदा ही  

वीर राम से आगे लगता,  

सहे कई अपवाद भले ही 

सिया-राम ही जग यह जपता !


शुक्रवार, मार्च 24

एक मुल्क


एक मुल्क 


जैसे कोई जल 

विलग हो जाए 

बहते दरिया से 

तो सूखने लगता है 

वैसे ही झुलस रहा है एक मुल्क 

अपने स्रोत से बिछड़ा 

खानाबदोश सा कोई परिवार 

या माता-पिता से रूठा 

नाफ़रमाबरदार बेटा 

जो अगर घर से खतो-किताबत 

 भर शुरू कर दे 

भले न लौटे घर 

तो हालात सुधरने लगते हैं 

प्रेम का रक्त दौड़ने लगता है 

उसकी रगों में 

जिसकी आँच पिघला देती है 

सारी जड़ता 

जो कभी दो थे ही नहीं 

एक ही थे 

वे कैसे पनप सकते हैं अलग होके 

जो एक साज़िश का परिणाम था 

वह स्नेह की छुअन से ही 

हो सकता है पुनर्जीवित 

वह मुल्क कौन सा है 

यह आप भी जानते हैं ! 




बुधवार, मार्च 22

वही ख़ुदा उनमें भी बसता है उतना ही



वही ख़ुदा उनमें भी बसता है उतना ही 


रोटी-कपड़े की फ़िक्र नहीं होती जिनको 

ख़ुदा की रहमत है कमी नहीं ज़रा उनको 


चंद निवालों के लिए दिन-रात खटते हैं 

कभी देखा भी है पसीना बहाते  उनको 


अपने हाथों से नई इमारतें गढ़ते 

जा बसें उनमें ख़्वाब भी नहीं आये जिनको 


वही ख़ुदा उनमें भी बसता है उतना ही 

बड़ी प्यारी सी हँसी है मेहनत कशों की 


सोमवार, मार्च 20

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू 


जान-जान कर भी जाना नहीं जाता 

जो किसी परिभाषा में नहीं समाता, 

इक राज है जो आज तक खुल न पाया 

है ख़ुद में ख़ुदा पर नज़र कहाँ आता है !


अपना अहसास भी दिलाए जाता है 

फिर भी स्वयं को छिपाए जाता है, 

कभी यह तो कभी वह बनकर जगत में 

दिल को सदियों से लुभाए जाता है !


तू है तो हम हैं सदा इतना यक़ीन 

सहज कृपा के दिए दिल में जलते हैं, 

राहों को रोशन करे जिनकी ख़ुशबू 

हर कदम अकीदत के फूल खिलते हैं !




शुक्रवार, मार्च 17

रिक्तता


रिक्तता 

जब ख़ाली हो मन का आकाश 

तो कोई राजहंस तिरता है

उसमें हौले-हौले 

नील निरभ्र आकाश में वह श्वेत बादल सा हंस 

जिसके पंखों की श्वेत आभा  

पथ को रोशन करती है 

जीवन में उजास भरती है 


जब ख़ाली हो मन का आकाश 

तो वंशी की धुन गूँजती है 

मद्धिम-मद्धिम 

खुले अंबर में वह प्यारी सी तान 

आह्लादित करती मन प्राण 

हृदय में विश्वास भरती है 


जब न रहे कोई दूसरा 

तो रस की एक धार बही आती है 

मंद-मंद हवा के झोंकों सी 

देखते-देखते 

सारे जग में छा जाती है ! 


मंगलवार, मार्च 14

हम ही तो बादल बन बरसे

हम ही तो बादल बन बरसे 


तुझमें मुझमें कुछ भेद नहीं 

मैं तुझ से ही तो आया है, 

अब मस्त हुआ मन यह डोले 

सिमटी यह सारी माया है !


यह नीलगगन, उत्तांग शिखर 

उन्मुक्त गर्जती सी लहरें, 

अपने कानन, उपवन, राहें 

टूटे सारे जो थे पहरे !


हम ही तो बादल बन बरसे 

हमने ही रेगिस्तान गढ़े,

सागर में मीन बने तैरे 

अंबर में उच्च उड़ान भरें !


जब  समझ न पाए पागल मन 

दीवानों सा लड़ता रहता, 

जो हर अभाव से था ऊपर

कुछ हासिल करने को मरता !


जब दुःख को सच्चा माना

आँखों से उसे बहाया था, 

फिर खुद को कुछ माना उसने 

तब व्यर्थ बड़ा इतराया था !


गर झांक ज़रा भीतर लेता 

अम्बार लगे हैं ख़ुशियों के, 

जब व्यर्थ खोजता फिरता है 

वंचित ही रहता है उनसे !



शनिवार, मार्च 11

एक पुकार बुलाती है जो

एक पुकार बुलाती है जो 


कोई कथा अनकही न रहे  

व्यथा कोई अनसुनी न रहे  , 

जिसने कहना-सुनना चाहा 

वाणी उसकी मुखर हो रहे   !


एक प्रश्न जो सोया  भीतर 

एक जश्न भी खोया भीतर, 

जिसने उसे जगाना चाहा 

निद्रा उसकी स्वयं सो रहे    ! 


एक चेतना व्याकुल करती 

एक वेदना आकुल करती,

जिसने उससे बचना चाहा 

पीड़ा उसकी सखी हो रहे ! 


कोई प्यास अनबुझी न रहे  

आस कोई  अनपली न रहे, 

जिसने उसे पोषणा चाहा 

सहज अस्मिता कहीं खो रहे  ! 


एक पुकार बुलाती है जो 

इक झंकार लुभाती है जो, 

जिसने उसको सुनना चाहा 

घुलमिल उससे एक हो रहे  !


गुरुवार, मार्च 9

सच है न !

सच है न ! 

सच को झुठलाते हैं हम 

लाख छुपाते भी हैं 

भूल जाना चाहते हैं उसे 

सच से मूँद लेते हैं आँखें 

डरते भी हैं

दरकिनार कर उसे 

झूठ का एक ताजमहल खड़ा कर लेते हैं 

पर वह टिकता नहीं 

टिक सकता नहीं 

सच अनावृत होता है 

और सब बिखर जाता है 

अदेखा कर के भी कोई 

सच से बच नहीं सकता 

भीतर-भीतर कुरेदता रहता है 

सच कितना भी कड़वा हो 

उसे घूँट-घूँट पीना ही  होता है  

उसकी नींव पर खड़ी होती है 

प्रेम की इमारत 

सच की स्याही से लिखी जाती है 

कभी न मिटने वाली इबारत ! 



मंगलवार, मार्च 7

बादलों के पार


बादलों के पार
उठे धरा से छूने अम्बर
मेघपुंज के पार आ गए
छूटी पीछे दो की दुनिया
इक का ही आधार पा गए I

दूर कहीं है गंध धरा की
स्वर्णिम क्षण यह दृश्य अनोखा
ढका गया बादल से हर कण
दिखे कहीं न कोई झरोखा I

निर्मल नीले नभ की छाया
श्वेत मेघ तिरते झलकाते
मानो बिखरी शुभ्रा कपास 
या उड़तीं बगुलों की पातें I

हिमाच्छादित पर्वत माला
ज्यों मीलों दूर चली जाती
श्वेत बादलों की यह शैया
परीलोक की याद दिलाती I

पलकों में अनुराग भर लिया


पलकों में अनुराग भर लिया 


आम बौराया, खिल मंजरी 

 झूल रही मद में गर्वीली,

हवा फागुनी मस्त हुई है 

बिखरी मदिर सुवास नशीली !


मोहक, मदमाता सा मौसम

 खिले पलाश, सेमल की डाल

धूम मचाती, रंग उड़ाती 

 आयी होली उड़ता गुलाल !


बही बयार बड़ी बातूनी

 बासंती बाग  में  रसीली,

बजे ढोल, मंजीरे खड़के,

 नाच उठी सरसों शर्मीली !


उपवन-उपवन पुष्पों की छवि 

 ज्यों बारात सजी अलबेली  

गुन-गुन नर्तन करे भ्रामरी 

 उड़े  तितलियों सँग  रंगीली  !


ऊपरवाला खेल रहा है 

ऐसे सँग कुदरत के होली

लाल गुलाब, गुलाबी कंचन  , 

निकल पड़ी महुआ की टोली  !


छँट गए सारे घन सुनी जब  

कोयलिया की वन-वन बोली

मिटा द्वैत सब एक हुए हैं 

हरेक मुखड़े  सजी रंगोली !


डगर-डगर हर गाँव खेत में 

निकली है मस्तों की टोली,

पलकों में अनुराग भर लिया 

बोलों में ज्यों मिसरी घोली !  


सोमवार, मार्च 6

होली अंतर की उमंग है

होली अंतर की उमंग है


 है प्रतीक वसंत जीवन का

यौवन का इंगित वसंत है,

होली मिश्रण है दोनों का

हँसते जिसमें दिग-दिगंत है !


रस, माधुर्य,  सरसता कोमल

आशा, स्फूर्ति और मादकता,

होली अंतर की उमंग है

अमर प्रेम की परम  गहनता !


जिंदादिल उत्साह दिखाते

साहस  भीतर भर-भर पाते,

होली के स्वागत में ख़ुशियाँ 

पाते उर में और लुटाते !


सुंदर, सुखमय सजे  कल्पना  

रंगों की आपस में ठनती,

मस्तक लाल, कपोल गुलाबी

मोर पंख सी चुनरी बनती !


कण-कण वसुधा का मुस्काए 

फूलों से मन खिल-खिल जाते ,

लुटा रहा सुवास मौसम जो

चकित हुए नासापुट पाते !


हरा-भरा पुलकित  उर अंतर

कण-कण में झलके वह सुंदर,

मधुरिम, मृदुलिम निर्झर सा मन  

कल-कल करे निनाद निरंतर !


मादक पीयुष सी ऋतु  होली

अमराई में कोकिल बोली,

जोश भरा उन्मुक्त हृदय ले

निकली मत्त मुकुल की टोली !


गुरुवार, मार्च 2

जीने की अभिलाषा ऐसी

जीने की अभिलाषा ऐसी 


ढगा जा रहा दीवाना  मन

अपनी ही क़ैदों में  जकड़ा, 

उलझा  रहा व्यर्थ बंधन में 

खुद  की ही छाया को पकड़ा !


जीने की अभिलाषा ऐसी 

इधर-उधर की  माया जोड़ी,

फ़ूलों पत्तों  से मढ़वाकर 

अहंकार की चादर ओढ़ी !


भ्रम पाले अनेक  अंतर में 

एक-एक कर टूटा करते,

सुख की उम्मीदें ही रहतीं 

दुःख के बादल फूटा करते !


जिसका यह विस्तार पसारा,

वह अनंत जो जान रहा है 

लेक़र उससे कुछ उधार पल 

यह मानस  संसार रहा है !


जानी जान और है दूजा

यह उसके बल पर  इतराता, 

समझे यह जग को भोगे है 

किंतु उसका ग्रास बन जाता !


स्वयं जाल बुनता रिश्तों  के 

आहत भी अपने बल होता,

रंग, रूप, गंध औ’ स्वाद के 

द्वारा नित इससे छल होता !


बोध जगे ना जब तक भीतर

ऐसे ही आना-जाना  है,

सुख-दुःख  के इस मकड़ जाल  में 

फँसे हुए बस  मुस्काना है !